बहुत दिनों से
बहुत गहरे उतरकर
तेरी आत्मा की नरम उष्म गोद में
थक कर
सोता रहा हूँ
और तूने मेरी पलकों पे झुककर
अपने गर्म श्वासों से
हल्की थपकियाँ दी हैं...
मेरी लहू की बूंदों में
मिश्री घोली है...
दुनिया बहुत जली है
लोगों ने कांटे बहुत बोये हैं
नश्तर चुभोये हैं
ज़हर उगला है
अपने दायरे से हमें बाहर किया है
पर हमने लिपटकर एक-दूजे से
नई सुबह की हमेशा कामयाब प्रतीक्षा की है
बहुत दिनों से
तेरा और मेरा परस्पर विलयन होता रहा है
और आज
और अब
तू मैं है और
मैं तू हूँ !
पूरी दुनिया
गैर-वाजिब, गैर-अहम होके
हमारे दायरे से बेदखल हो चुकी है...
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