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गुरुवार, 27 मई 2010

भूख (लघुकथा)

भूख से तफ़तीश की जा रही थी, लोकतंत्र के सबसे बड़े पंचायत में.

भूख सकुचाया-सिमटा, कँटीली झाड़ियों से बने कटघरे में खड़ा भौंचक देख रहा था ये सारी कार्यवाहियाँ. उसे अच्छी तरह याद है, कल उसे तब गिरफ़्तार किया गया था, जब वह एक अनाथ फुटपाथिया बच्चे की आँत से निकल कर उसकी जीभ पर आ गया था और बच्चे ने रेडी वाले के तंदूर से एक अधभुनी रोटी चुपके से उठाने की कोशिश की थी.
भूख को ये भी बिल्कुल ठीक से याद है कि उसे कई बार चीख-चीख कर भीड़ के सामने अपनी सफ़ाई में चौदह पिल्ले जनने वाली उस कुतिया का वास्ता देना पड़ा था, जो अपने झूले स्तनों और पिचकी काया के साथ चमकती आँखों से उसी रेड़ी पर रोटी-सब्जी भकोसते लोगों को ताक रही थी जीभ निकालकर...

भूख ने बताया था कि यही उसकी असली शिनाख्त है!

“तुम इस सभ्य देश के संस्कारी नागरिकों को चोरी, रिश्वत, बेईमानी, घपले-घोटालेबाजी, फिरौती-अपहरण, हत्या जैसे घिनौने दुष्कर्मों के लिए उकसाते हो...” थुलथुल सरपंच ने, जिसके सिर पर अनाज की बालियों से सजी पगड़ी थी, भूख की ओर हिकारत से देखते हुए उस पर लगे इल्जामों को दुहराया, नियम के अनुसार.

भूख बेदम सा खड़ा था, अचानक पुख्ता आवाज़ में बोला, “झूठ...!! मैं किसी को अपना ईमान खाने को मज़बुर नहीं करता ! मगर यही सच भी है कि खाए घाए हुओं के बीच भूखा पेटधर्म निभाने को कुछ भी कर सकता है, किसी भी हद तक जा सकता है. और वह नाजायज़ भी नहीं होगा, क्योंकि जीने के लिए कोई भी शर्त बड़ी नहीं होती...”

इसके बाद यही हुआ कि भूख को एक गुमनाम मौत की सज़ा सुनाई दी गई...

एक सुबह राजधानी के बड़े अखबार में एक कॉलम की रिपोर्ट थी सर्दी और भूख से लालकिले की चाहरदिवारी के बाहर फुटपाथ पर सात साला अज्ञात बच्चे ने दम तोड़ा.

रविवार, 23 मई 2010

मैंने ठान लिया है

सारी वेदनाओं को समेट कर
देती हुई बालों को एक झटका...
पोंछ कर लहू बाजूओं पर का
मैं फिर खड़ी होती हूँ,
सड़क  पर दोबारा
कुछ ग्रंथों पर इतराए हुए इस कबीलाई
सनातन समाज के
गाल पर चांटे सा पड़ती हूँ...
मुर्दा इतिहास की खाक में
मुँह डाले उर्ध्वाकार जो गड़ा है
यह सिर धुनता जो लोक है
सुने मेरी हुंकार...
धम्म-धम्म...
मेरे जीवित रहने का श्रम


फिर पोंछ स्वेद आँचल से भाल का
लाँघती हूँ सदियों के इस कंटीले बाड़ को 

मेरे रक्त के ताप से प्रेरित हुआ मेरा निर्णय
मैंने लीक पर थूक दिया
मुक्त हो सकूंगी अब
पोथियों, बिस्तरों, जच्चाघरों, दड़बों, कसाईबाडों से

मैं धुरी से बंधी तो बंधूंगी स्वेच्छा से
कोई हाँक के तो देखे अब
मेरे सींगों की धार देखे अब

मैं खड़ी हूँ लो बीच चौराहे
बचा सको तो बचा लो अपनी लाज, धर्म, कुलमर्यादा
मैंने  पल्लू से झाड़ा सनातनी धर्म का बुरादा....

प्रेम की कविता

सुनो,
प्रेम पर कवितायेँ लिखने का
मौसम फिर नहीं आएगा...
धुँए और गर्द की दीवार के आरपार
धूमिल होती हुई लौ को
सँभालने का
दौर फिर नहीं आएगा...
किसी फरेब में उलझे मत रहना,
तुम्हारी पक्षधरता का इम्तिहान
फिर नहीं आएगा...

अभी शहरी और गैर-शहरी
जंगलों में हुए
मासूम हत्याओं को
क़त्ल साबित करने में
वक्त लगने वाला है बहुत,
मगर अन्तोगत्वा जब अपराध सिद्ध हो जायेगा,
तब रोटी खुरचने पर कातिलों की
शक्ल उभर आएगी...

जान लो कि,
क्यों आसमान के चेहरे पर
लाल इन्द्रधनुष खिला रहता है आजकल...
क्योंकि जिनकी कमर पर चर्बी है,
कानून की भाषा और अस्मत
उनकी कांख में दबी है,
एडियों पर गिरवी है...
पहचान लो और
दर्ज करो इस समय को...
जहाँ सत्ता सिर्फ़ एक बेहया
कामोत्तेजना जैसी है...

गिद्ध भी सफाईकर्मी हैं,
किरदारों को तवज्जो देने में
समय लगता है...
लेकिन आखिरकार,
सफेदपोश दीमकों, तिलचट्टों और कौओं
का जोर कम पड़ जायेगा...
राइफलों के कारतूस ठस्स हो जायेंगे...
धान की बालियाँ बेखौफ़ हो जाएँगी...
पसीने वालों को उनका लंबित महत्त्व
अदा किया जायेगा...

तो उस और इस समय के बीच
खून के कतरों से नम,
और उत्साह में पगी हुईं,
प्रेम पर कवितायेँ लिखो...
ये जरूर लिखी जानी चाहियें...
क्योंकि प्रेम करते हुए भी प्रतिशोध
लिया जा सकता है
इस बर्बर समय से...

-शेखर मल्लिक
२१-२२-२३/०५/२०१०

शुक्रवार, 21 मई 2010

आधुनिक रचना प्रक्रिया


मैंने अपने आप से कहा
बनने को बन जायेगी
एक दमदार कहानी, फिक्र मत करो.
( आजकल हर तीसरी कहानी
लगभग एक एफ. आई. आर. है !)

बस थोड़ा सा खून

एक मिनट, थीम पर से पकड़ न छूटे !
ज़रा वक्त की नब्ज़ पर तो ऊँगली रखना
अरे ! उसका चेहरा धड़कता है !
गोया...
उफ्‌ ठीक लिखते टेम शब्द भूला जाता है !

काटो हाशिए पर जो लिखा है,
वही बॉटमलाइन है...
ऊँहूँ... सुधार कर दुबारा लिखो.
तुम बच्चे हो भी

बस थोड़ा सा बारूद

एक अधनंगी औरत की सर उड़ी लाश
वीभत्स वीभत्स!!!
पर लिखो, उसे भी लिखो, हकीकत लिखो
कहानी बन रही है ?
अरे बन ही जायेगी खुद-ब-खुद !
तुम किस्सेबाजी की मियाद का ख्याल मत करो
मजमून डालते जाओ

स्वागत है ब्रेक के बाद!

कहानी तैयार है ! लिजिए
ओफ्फो, हाथ क्यों पोंछने लगे ?
जी हाँ,जी हाँ
आप तो यही कहेगें, कच्ची कहानी है..
इसलिए तो खून भी
देखो आपके हाथों और सफेद कमीज़ पर
उतर आया है
जी, कहानी मैंने ही लिखी है
नहीं, मैंने नहीं लिखी है !
हाँ जी, बिल्कुल! मुझसे लिखवाई गई है

सूत्रों के मुताबिक,
फ्लैशिंग न्यूज़ के मानिंद
अभी अभी विस्फोट स्थल से लौटा हूँ
और रास्ते में ये कहानी उतार दी है

क्या साहब, आप नहीं छापेंगे
क्यों ? अच्छा, इसमें कहानीपन नहीं है
रिपोर्ट है !
जी आजकल आदमी कहानी बनता कहाँ है
पहले रिपोर्ट बन रहा है
खैर छोड़िए
मैं दूसरी जगह जाता हूँ
मुझे बहसों के लिए फुर्सत नहीं है...

सन्नाटा !

सन्नाटा !
नहीं मध्यरात्रि सा,
दमदमाते दोपहर की तरह का...
अंतर तक पसरा मौन
फेफड़ों की धुकधुकी में,
एक हरामजादी लय में
ज़िंदगी हराम...
और शून्य का विस्तार
धूप की मार
धूमिल की कविता के पाठ से
पाई एक आग
और निरापदा में
खुश रहने की खुशफ़हमी
फ़रेब फ़रेब फ़रेब !!!
कहीं कुछ जल रहा है
नामुराद ये चिरायँध, ओफ्फो !
भटकाव के पल
सपनों का (उजाड़) कबाड़खाना
एक आदिम वासना के एहसास में तर
सन्नाटा...
गहराता हुआ
अज़ब सी भन्नाहट...
साले सब कामयाब हुए
हम हर मोर्चे पर ही नाकाम ?
यह बिमारी लाइलाज़ है !
(क्या) यह कफ़न जैसा कुछ है
जो मेरे बदन पर चिपका है
दूर शहनाई की तान टूट रही है
गर्मी की रातें आ गई हैं...
सड़क पर चल रहा हूँ या,
सड़क मेरे साथ चल रही है.
धमाका !
कोई मेरे साथ क्यों नहीं चल रहा ?
कोई मेरे साथ चल क्यों नहीं पाता ?
कोई मेरे साथ चलना क्यों नहीं चाहता?

कुछ कवितायेँ

एक जायज़ डर है कि
तब सबकुछ सचमुच ही 
गढ़ा नहीं जा सकता 
पत्थरों को तराश कर 
एक पहचानी हुई सूरत 
जेहन के बाहर नहीं निकाली जा सकती
अब सबको पता है कि वह
कौन सा खुफ़िया तंत्र है
जिसके सहारे हमारी नियति के सभी रहष्य
सरेनज़र होने से रोक दिए जाते हैं,
कि कुछ भी स्पष्ट नहीं होता
 अंधेरी गलियों के सारे लैम्पपोस्ट 
बुझा दिए जाते हैं
जब  अभिव्यक्ति एक ग़ैरमाफीदार जुर्म
करार दी जा चुकी होती है
हिमालय सा सच साबुत
सिस्टम की परखनली के पैंदे में
झूठ की महीन सुराख से 
निकाल दिया जाता है,
अवशिष्ट की तरह...

और फिर रचने के लिए
पर्दे होते हैं  और 
उनके पीछे पैदा किया गया शून्य
पगलाये कुत्ते सा भौंकता है,
अनसुना कर दिया जाता है.
हाथों को चाटने वाले 
और विचारों को नेस्तनाबूद करने वाले 
दीमकों की बाढ़ से 
खौफ़ खाना जहाँ 
आखरी उपाय बच गया हो
सृजना के गीत रूँधे गले से 
गाए नहीं जाते...
फिर भी,
सूरत बदलने की उम्मीद
तो जेब में पड़ी है  अभी...

मंगलवार, 4 मई 2010

तुम्हारे लिए असहनीय हो चुकी लड़की (निरुपमा पाठक की हत्या के संदर्भ में)

“तुम इंसान
जानवर बन जाते हो,
ठेठ रक्त पिपासु,
सिर्फ़ तब, जब
उस एक लड़की को अपनी बपौती मान लेते हो.
और उसकी उम्र को अपनी जागीर.
तब बादल सी उडती लड़की,
नदी सी बहती लड़की,
चाँदनी सी बिछती लड़की,
वक्ष से दूध पिला
तुमको जिंदगी देती लड़की,
बरगद कि छाँव सी बनी रहती लड़की,
तुम्हारे पंजों में अपनी साँसें
गिरवी रखी हुई लड़की,
तुम्हें नहीं दिखाई देती.
तुम्हें बस अपने मजबूत काले हथियारों से
किसी अँधेरे कोने में दुनिया से छिपा कर
उसका सर कलम करना होता है.
क्योंकि तुम्हारे तय किये हुए
हदबंदी से पैर बाहर कर चुकी लड़की
तुम्हारे लिए असहनीय हो चुकी होती है.”


- शेखर मल्लिक
०४.०५.२०१०
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