देती हुई बालों को एक झटका...
पोंछ कर लहू बाजूओं पर का
मैं फिर खड़ी होती हूँ,
सड़क पर दोबारा
कुछ ग्रंथों पर इतराए हुए इस कबीलाई
सनातन समाज के
गाल पर चांटे सा पड़ती हूँ...
मुर्दा इतिहास की खाक में
मुँह डाले उर्ध्वाकार जो गड़ा है
यह सिर धुनता जो लोक है
सुने मेरी हुंकार...
धम्म-धम्म...
मेरे जीवित रहने का श्रम
फिर पोंछ स्वेद आँचल से भाल का
लाँघती हूँ सदियों के इस कंटीले बाड़ को
मेरे रक्त के ताप से प्रेरित हुआ मेरा निर्णय
मैंने लीक पर थूक दिया
मुक्त हो सकूंगी अब
पोथियों, बिस्तरों, जच्चाघरों, दड़बों, कसाईबाडों से
मैं धुरी से बंधी तो बंधूंगी स्वेच्छा से
कोई हाँक के तो देखे अब
मेरे सींगों की धार देखे अब
मैं खड़ी हूँ लो बीच चौराहे
बचा सको तो बचा लो अपनी लाज, धर्म, कुलमर्यादा
मैंने पल्लू से झाड़ा सनातनी धर्म का बुरादा....
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