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शनिवार, 14 अगस्त 2010

कहानियों के नोट्स - "गदल" (रान्घेय राघव)

कई बार कुछ कहानियां अंतर्मन को छूती हैं और बरबस कुछ कहने का मन हो आता है. पिछले दिनों रांघेय राघव की कहानी "गदल" भी कुछ ऐसी ही बेहतरीन कहानियों में से एक है. कथ्य एवं शिल्प के मामले में अनूठी और बेजोड़. राघव जी की  "गदल". नारी के उद्दाम उत्कंठा, प्रेम और सबसे पहले उसके आत्मसम्मान-स्वाभिमान को किस खूबसूरती से पिरोया है.

फणीश्वर नाथ रेणु की रचनाएँ,खासकर 'मैला आँचल', पढ़ लो तो शब्दों का टोन दिल-ओ-दिमाग पर घंटियों सा देर तक बजता रहता है. रेणु की कहानियाँ बताती हैं कि, शब्दों की मार क्या होती है, कैसे बिना ज्यादा कहे, सिर्फ कुछेक शब्द द्वारा पूरी स्थिति, पुरी तस्वीर भरपूर व्यंग और कटाक्ष के साथ खड़ी कर दी जाती है! उनकी अविस्मरणीय कहानियाँ... "ठेस", "संवदिया" और "पंचलेट"...

"गदल" में नारी का खाका शिवमूर्ति जी के "त्रिया चरित्र" की तरह कुछ खास है. नारी का प्रेम और सुप्त कामना जिसे वह वाणी से नहीं कहती पर वह अपने समझने वाले को इशारे खूब करती रहती है, उसे मानों धिक्कारती, ललकारती रहती.. खूबसूरती तो इसी इशारे को बयां करने में है.

डोडी के प्रेम में गदल तो उसी समय पड़ गई थी जब १४ वर्ष की आयु में उसका भाई डंडे की जोर पर उसे ले आया था. " जग हंसाई से मैं नहीं डरती देवर !...... तू उसके साथ तेल पिया लठ्ठ लेकर मुझे लेने आया था न, तब?मैं आई थी कि नहीं?" वही प्रेम था, विश्वास था कि वह डोडी से भी निभाती रही उसकी भाभी बनकर...डोडी भी तो उसी को चाहता रहा, परोक्ष रूप से. इसीलिए वह बर्दास्त नहीं कर पाया कि गदल उसके रहते किसी और मर्द के घर बैठ जाये. लेकिन गदल ने ऐसा क्यों किया... कारण था ये... "चूल्हा मैं तब फूकूँ, जब मेरा कोई अपना हो." गदल को बेटे बहू की मजूरी मुफ्त करनी मंज़ूर नहीं. "ऐसी बाँदी नहीं हूँ कि मेरी कुहनी बजे, औरों के बिछिए छनके." कहानी यहीं पर साधारण से असाधारण हो उठती है. अघोषित रूप से  के आत्मसम्मान का प्रश्न उठती है. उसके यौनिक अधिकारों का मसला उठती है.

"गदल" में नारी का खाका शिवमूर्ति जी के "त्रिया चरित्र" से कहीं विपरीत खींचता है. नारी का प्रेम और सुप्त कामना जिसे वह वाणी से नहीं कहती पर वह अपने समझने वाले को इशारे खूब करती रहती है, उसे मानों धिक्कारती, ललकारती रहती है... खूबसूरती तो इसी इशारे को बयां करने में है.

रचना ह्रदय के पार जाये तभी तो वह काल से पार जाती है... कालातीत, कालजयी हो सकती है. कहानी का अंतिम दृश्य और संवाद, गदल का अंतिम वाक्य... उफ़ किस तरह तीर सा ह्रदय को भेद जाता है...! प्रेम की ज्वाला भी कितनी शालीनता से अपने तेज के साथ प्रकट होती है. 

नारी विमर्श की रचनाएँ इधर खूब नयी धारा की आयी हैं. पर 'गदल' कुछ और ही नायाब लगती है. एक स्त्री की बहादुरी, प्रेम, आत्मसम्मान, जुझारूपन... हर पहलू मुखर हुआ है... बगैर किसी दावे या घोषणा के.

"गदल" को पढ़ना स्त्री-मनुष्य की चेतना को पढ़ना है. 

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