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बुधवार, 29 दिसंबर 2010

सुश्री अरुंधती राय की बात...

तरस आता है ऐसे राष्ट्र पर जो अपने लेखकों को सच कहने से रोकता हो. मैं यह श्रीनगर, कश्मीर से लिख रही हूं। आज सुबह के अखबार कह रहे हैं कि कश्मीर पर हाल ही में सार्वजनिक सभाओं में दिए गए बयानों के लिए मुझे देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया जा सकता है। मैंने सिर्फ वही कहा है जो यहां के लाखों लोग रोजाना कहते हैं। मैंने सिर्फ वही कहा है जो मैं और मुझ जैसे अन्य लेखक सालों से लिखते और कहते आ रहे हैं। वे लोग जिन्होंने मेरे भाषणों की स्क्रिप्ट को पढऩे की जहमत उठाई होगी, देख सकते हैं कि वे मूलत: न्याय की मांग हैं।
मैंने कश्मीर के उन लोगों की आजादी की बात कि है जो दुनिया में सेना के सबसे खौफनाक कब्जे में जी रहे हैं, मैंने उन कश्मीरी पंडितों की बात की है जिन्हें अपनी मातृभूति से खदेड़ दिए जाने त्रासदी को झेलना पड़ रहा है, कश्मीर में शहीद हुए उन दलित सिपाहियों की बात की है जिनकी कब्रों को मैंने कुडलूर के गांवों में कूड़ के ढेर से पटी हुई देखा है। मैंने भारत के उन गरीब लोगों की बात की है जो कश्मीर पर कब्जे की वास्तविक कीमत चुकाते हैं और जो अब पुलिस राज के आतंक में जीना सीख रहे हैं। कल मैं दक्षिण कश्मीर में सेब उगाने वाले कस्बे सोपियां गई थी। यह पिछले साल आसिया और नीलोफर नाम की युवतियों के बर्बर बलात्कार और कत्ल के बाद 47 दिन तक बंद रहा था। इन के शव घर के करीब एक छिछले नाले में मिले थे और जिनके कातिलों को आज तक सजा नहीं मिली है।
मैंने निलोफर के पति और आसिया के भाई शकील से मुलाकात की। हम गुस्से और गम से पगलाए उन लोगों के साथ एक घेरे में बैठे जो यह उम्मीद छोड़ चुके हैं कि उन्हें भारत से इन्साफ मिलेगा और अब इस नतीजे पर पहुंच चुके हैं कि सिर्फ आजादी ही उनकी अंतिम उम्मीद है। यही उन्हें न्याय दिलाने की आखिरी उम्मीद है। मैं उन युवा पत्थर फेंकनेवालों से भी मिली जिनकी आंखों में गोलियां लगी हैं। मैंने एक युवक के साथ यात्रा की जिसने बताया कि अनंतनाग जिले के उसके तीन किशोर दोस्तों को हिरासत में लिया गया और उनकी अंगुलियों के नाखून उखाड़ लिए गए। पत्थर फेंकने की सजा के बतौर।
अखबारों में कुछ लोगों ने मुझ पर भारत तोडऩे की मंशा से नफरत भरे भाषण देने के आरोप लगाए हैं। उल्टा मैंने जो कहा वह लगाव और गर्व के कारण है। यह इसलिए कहा है कि मैं नहीं चाहती की लोग मारे जाएं, उनके साथ बलात्कार हो, उन्हें जेलों में ठूंसा जाए या उनके नाखूनों को जबरदस्ती यह कहलाने के लिए कि वे हिंदुस्तानी हैं, उखाड़ लिया जाए। यह इसलिए कहा कि मैं ऐसे समाज में रहूं जो एक न्याय संगत समाज हो।
तरस आता है ऐसे राष्ट्र पर जो अपने लेखकों को सच कहने से रोकता हो। तरस आता है उस देश पर जहां न्याय की मांग करने वालों को जेल में ठूंसने की जरूरत पड़ती हो, जबकि सांप्रदायिक हत्यारे, कत्लेआम करनेवाले, कारपोरेट घोटालेबाज, लुटेरे, बलात्कारी और गरीब से गरीब का खून पीनेवाले खुलेआम घूमते हैं।


-अरुंधति रॉय
("समयांतर" से साभार)

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (30/12/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
    http://charchamanch.uchcharan.com

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  2. इसे पढ़वाने के लिए आभार ! अरुंधति जी ने बिल्कुल सच कहा !

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