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शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

शब्दों के जाले


इस रात... 
बड़े श्रम से
आहत मन की सारी प्रतिबद्धताओं
के दम पर
शब्दों के जाले बुनने फिर बैठा हूँ...

या कि इनका कोई अर्थ
कलेजे में चीरा लगाकर...
सीने के ऐन बीचों-बीच...
कुछ फोड कर बाहर निकल आया है,
जिसे शब्दों की शक्ल में 
अपने ही माँस और रक्त से छाँट कर
पेश कर रहा हूँ...!

इन शब्दों की धार से खेलते हुए
कई बार मेरी उँगलियों की जगह 
गर्दन कटी है...
और इनके तात्पर्य ढूंढते हुए
सारे आदिम जंगल छान मारे हैं !
तब एक जगह पाया...
अपनी असलियत ढेले की तरह पड़ी थी, 
...उठाई है !

फिर भी मैं कोई पागल हूँ कि 
सुकरात का ज़हर खुद भी चखना चाहता हूँ...
सफदर की तरह आखरी दम पे  
अपनी ईमान पर निसार होना चाहता हूँ...
पाश की तरह "घास" बन जाना चाहता हूँ और,
बागियों में भगत या बिरसा होना चाहता हूँ... 

शब्दों की आंच पर तमाम कच्चे अर्थों के 
उपले-कंडे सेंकते हुए...
मैं देख रहा हूँ कि 
बाज़ार मेरी नाक तोड़ रहा है
सत्ता मुझे झाड़-जंगलों में शिकारी कुत्ते की तरह
खोज-खोज कर,
गोली मार रही है...
मेरी जमीन का पानी वे लोग 
अपनी शीतल-पेय पैदा करने वाली फैक्ट्री में खपा रहे हैं
मेरी मिट्टी पर...
मेरे घर की औरतों के बदन पर की तरह 
उनके पंजों और खुरों के बजाफ्ता निशान हैं...!
मेरे नाम पर बनी सारी योजनाओं को
मेरे बहुत सारे अवैध विधाता चर रहे हैं...

उफ्फ़, बहुत हो चुका ! कहते हुए,
उठकर बाहर भागा हूँ 
एकाएक,
कमरे में असंख्य 
चीत्कार-चीखें
एक मातमी धुन की तरह फ़ैल गई थीं...

इस समय जो मृत्युबोध
सन्नाटे का फायदा उठाकर
मेरे-तुम्हारे जीवन में
चोरी से पैवस्त हो गया है,
उसे दबोच लेना है, 
कि वह एक गलत बात है...

तो इस समय...
इतना मौन क्यों है मेरा संसार ?
पूछने का यह समय, 
बिल्कुल ठीक समय है !

एक सहज किलकारी की तरह 
पूर्व में सूर्योदय कल होगा ही,
यही सोचकर बैठने से अच्छा है, हम पूरब की दिशा में 
इस रात से ही चलना शुरू कर दें...

शब्दों के जाले,
इस वक्त के चेहरे पर लिपटे
फ़रेब के जाले काट देंगे... 
हाँ, शब्दों को सान पर चढ़ा रहा हूँ,
कमान पर चढ़ा रहा हूँ...

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