हमेशा ऐसा ही होता है, कि
मासूम किलकारियों को पर लगने से पहले,
फुर्र से उड़ जाने से पहले
धारदार हथियारों से उनके पँख
चाक कर दिये जाते हैं,
कई बार, सिर्फ़ हत्याएँ करना उनका शिगूफा हो जाता है
वे हमारे इतिहास, हमारी स्मृतियों, अनुभव, चेतना और
अनुभूति और फैसले करने की जैविक क्षमता
की हत्या करने को पागल हो जाते हैं...
ऐसा होता है कि
अक्सर जब नज़र सामने की तरफ होती है
पीछे से वार होता है...
वे वही होते हैं, वही, जिन्हें हमने भाई कहा था
एक ही आसमान के नीचे !
अरसे तक एक थाली में बाँटकर
भात खाया था जिनके साथ...
जिनकी बहती हुई नाक पोंछी थी,
जिन्हें गिनतियाँ और पहाड़े सिखाए थे...
जिनको बोलना सिखाया था...वे अचानक...
जीभ काटने वाले हाथों में तब्दील हो जाते हैं
ताकि हम आज़ादी का स्वाद ना चख सकें !
सवाल यह नहीं कि ऐसा क्यों होता है...
सवाल तो यह है कि
क्या हम ऐसा होने को
खारिज नहीं कर सकते ?
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