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मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

हर्ष की प्रेतछाया...


किताब जो मैंने पढ़ी - मुझे चाँद चाहिए (सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास)

सुरेन्द्र वर्मा के साहित्य अकादमी से पुरस्कृत उपन्यास "मुझे चाँद चाहिए" के सिद्घांत प्रेमी, कट्‌टर अंहवादी और अंतत: अवसादग्रस्त हो कर एक बुझे तारे के समान अंतरिक्ष में गिर कर खो जाने की नियति को प्राप्त आत्महंता हर्ष की छाया क्या आज की उस युवा पीढ़ी के गिने चुने नुमाइंदों पर नहीं है, जो इस समाज में तमाम दाँवपेंचों के बीच अपने आदर्शों, मुल्यों और सिद्घांतों के लिए आत्मोत्सर्ग कर डालने का जज्बा रखते हैं. यह अलग बात है कि ऐसे जज्बाती युवा अब गिनती के ही बचे हैं. और वह भी गुमनाम...!
उपन्यास में नायिका "सिलबिल" उर्फ वर्षा वशिष्ठ में बीसवी सदी की आधुनिक औरत की करवट लेती हुई तस्वीर एक आकार लेती है. भारतीय स्त्री का एक दूसरा आयाम सामने आता है, चाहे कोई कहे कि वह महत्वाकांक्षाओं के लिए किसी भी कीमत पर, किसी भी स्तर तक समझौता करने को वह तैयार ही क्यों न हो जाती हो ! लेकिन ऐसा मान लेना पूरी तरह से जायज नहीं होगा. सच तो यह है कि, वह प्रतिभा के उपयोग के साथ साथ हालातों की माँग के हिसाब से खुद को ढालती है, यही ढालना उसकी सफलता का एक बटा दो राज है. एक विद्रोहिणी, परंपराभंजक, संस्कारों व रूढ़ियों से अपनी जाति पर युगों से थोपे गई वर्जनाओं और विडंम्बनाओं से टकराती हुई सिलबिल उर्फ वर्षा वशिष्ठ वर्तमान उपभोक्तावादी समाज के समीकरणों के अनुसार स्वंय को बखूबी ढालती हुई लगातार अपनी प्रतिभा और व्यवहारिकता के दम पर कामयाबी के पायदानों पर चढ़ती जाती है. राष्ट्रीय नाटय विद्यालय की रिपरर्टरी में कुछ हजार रूपये की वृत्ति पर जीवन होम नहीं कर देने की प्रतिबद्धता है, कुछ चिरंतन माने जाने वाले आदर्शों से वह चिपक कर नहीं रहती. मुम्बई की फिल्मी दुनिया की चकाचौंध और धनवृष्टि के वातावरण में खुद का अनुकूलन और अनुशीलन करती है.
वर्षा के मुकाबले उसका प्रेमी हर्ष जो एक संपन्न घर का इकलौता युवा होने के बावजूद विशुद्घ कला के लिए सबकुछ त्यागने को तैयार है. विशुद्घ कला के प्रति घनघोर आग्रही... अपनी कला के दम पर ही अपनी अस्मिता बनाने और अपना अस्तीत्व बचाए रखने की जिद रखता है. उसके मूल्य और जीवन दृष्टि वर्तमान अवसरवादी और उपभोक्तावादी परिवेश में सहिष्णु नहीं रह पाती. वह इन्हीं परिस्थितियों में जूझते टूटते हुए लगातार अवसादग्रस्त होता जाता है और नशे की लत में पड़ता है.
एक तरफ जहाँ वर्षा लगातार कामयाबी की ऊँचाईयाँ हासिल करती हुई विभिन्न पुरस्कारों सम्मानों से सम्मानित होती हुए "पद्‌मश्री" हासिल करती है, तो दूसरी तरफ हर्ष के लिए विशुद्घ कला का यह तिरोहन और कला को भी एक उत्पाद व केवल लोकप्रिय कला के रूप में मान्यता बर्दाश्त नहीं होती. हर तरफ से टूटा और पराजित हर्ष आत्मघाती हो जाता है. उसका विषाद उसे मार डालता है. लेखक लिखता है, "कालिगिला दो कुत्तों के बीच कुत्ते की मौत मरा था..." वर्षा सोचती है कि अपराध खुद हर्ष का ही है. कि हर्ष में बस यह था कि, "एक ओर ऊँचे कलात्मक मूल्य, जिद और स्वाभिमान है और दूसरी ओर छुई मुई अंह." यह उस वर्षा की प्रतिक्रिया है, जो हर्ष को दूसरों के बनिस्पत कहीं ज्यादा गहरे रूप से समझती थी.
दरअसल यह उपन्यास कई स्तरों पर एक सच को सामने रखता है कि, वर्तमान प्रतियोगितावादी बाजारवादी वक्त में कला को "कॉमोडिटी" के रूप में पेश करने वाली दृष्टि, सोच और समझ का बोलबाला है. यह समय जहाँ, कला केवल उसे मंच दे रहे पूँजीवादी के हितों के निमित्त गढ़ी जा रह होती है, प्रस्तुत होती है. निष्कर्ष यह कि वर्षा को समझौते करना और वक्त के साथ ढलना आता है, हर्ष को नहीं. और इसलिए आज की तारीख में हर्ष के पास कामयाबी के मौके नहीं हैं. रोहिणी अग्रवाल का निष्कर्ष है, 'हर्ष में वह डायनामिज़्म ही नहीं है जो व्यक्ति को 'कालिगुला' बनाता है' ("बाजार का शास्त्र और हर्ष की मौत", नया ज्ञानोदय, दिसम्बर २००३). कालिगुला, रोमन सम्राट ऑगस्टस का परपोता, में अपनी महत्वकांक्षाओं को किसी भी दम पर पाने की उत्कटता है और उसमें संवेदना नहीं है. तो क्या हर्ष जैसे आज के युवा को भी इस संवेदहीन समय और समाज में कट्‌टर प्रतिद्वन्दिताओं के दरम्यान अपनी प्रतिबद्धता और संवेदनशीलता परे रखनी होगी ? क्या ऐसा ही कुछ संदेश उपन्यास के पाठ से उभरता है ? क्या मशीन की भांति संवेदनरिक्त हो जाना, सफलता के लिए "प्रोग्राम्ड" हो जाना मनुष्यता के लिए और उसके भविष्य के लिए अनुकरणीय संदेश है ? क्या अब इस घोर बाजारवादी दौर में हमें ऊँचे, शाश्वत आदर्शों, मूल्यों के प्रति आग्रही होना छोड़ देना चाहिए ? तब शायद मनुष्यता और मनुष्यता की पक्षधरता नहीं बचेगी. घनघोर उपभोक्तावादी समय में हर्ष का अवसान उसकी मात्र भावुकता या मूर्खता नहीं है, बल्कि एक संकेत है कि आज का समय का संवेदनहीन यथार्थ तुम्हारी सभी प्रतिभाओं, सत् और सहज मनुष्यता को क्षत-विक्षत कर डालेगी. यह वह भयानक टूटन है जिसे समय रहते पहचानने की ज़रूरत है, जो युवापीढ़ी को सचेत करती है. कतिपय पूँजीवादी शक्तियों को अपने आदर्शों पर हावी नहीं होने देना है, उसका मुकाबला करने के लिये बचा रहना भी जरूरी है. यह रचना प्रकारांतर से यह बताती है कि, सही है कि कोरा आदर्शवाद किसी काम का नहीं होता, किन्तु अपने आदर्शों, मूल्यों और सिद्घांतों से च्युत हो जाने में भी जीवन के प्रति रागात्मक दृष्टि के बजाय भोगवादी दृष्टि बनती है. शक्ति पूँजी के पक्ष में भले दिखे और शायद नब्बे फीसदी यही हो भी, मगर मानवीय आवेग और रचनात्मक ईमानदारी हमेशा निरे भौतिक आग्रहों से कई गुना अधिक ताकतवर होती है.
हर्ष की मृत्यु नई पीढ़ी की आधुनिक भौतिकवादी चैम्बर नहीं घुट घुट कर मौत को "प्रोजेक्ट" नहीं करती, इसका दूसरा पाठ यह है कि, यहाँ धीरे धीरे निर्मित हो रही उत्तर बाजारवादी स्थिति की निकृष्टता का साफ संकेत पाया जा सकता है. मुद्दा यह है कि हमारी इससे लड़ने की तैयारी कितनी है ?

उसके रिश्ते की आखिरी औरत

(उस क्रांतिकारी के लिए, जो हर खतरनाक दौर में वक्त की कोख से पैदा होता है और कारतूस के सामने कलम को रख देता है.)

         शहीद कामरेड महेंद्र सिंह की विरासत को पूरी  अपेक्षा व विश्वास के साथ समर्पित


एक बेतरतीब शुरूआत कहानी की

"उनका" एक दूसरे के लिए होना एक ज़िंदा सच था...साँसें लेता हुआ सच, कलेजे सा धड़कता सच... बहरहाल, जिसे एक दिन लहूलुहान होना था. और दोनों एक दूसरे के  अस्तीत्व के लिए ज़रूरी थे... ठीक वैसे ही जैसे सच के लिए दलील और वजूद के लिए पहचान का होना ज़रूरी है...

लड़का कई बार उस कस्बे के सीवान पर घेरा देने वाली नदी पर जागता था, कई बार कविताओं में जीता था और कई बार हथौड़ी छैनी लेकर अपने आप को तराशने निकल पड़ता था और  अपनी ही चोटों से लहूलुहान होकर घर लौटता था. तब वह  अक्सर उसके वास्ते चौखट बन कर इंतज़ार करती हुई पाई जाती... उसकी हथेलियाँ कौर बन जातीं, उसे दुनिया का सबसे लज़ीज़ खाना खिलाने के लिए और उस रात उसकी जाँघ लड़के के लिए बिस्तर बन जाती, उसे एक पुरसुकून नींद देने के लिए...

लड़का कई दफे उससे कह चुका था और अक्सर कहा करता था, 'मेरे पीछे जान मत दो. मेरा रास्ता बिरसा मुंडा या भगत सिंह के पीछे हो गया है... मैं सच, इंसाफ और हक़ की तलाश में सिद्घार्थ की भटकन लिए कभी भी दूर निकल सकता हूँ...'

वह तब तपाक्‌ से अंगीठी बन जाती, जिसे लोहे के काले वजनी तवे का बोझ कंधे पर लेना है और गर्म रोटियाँ सिंकवा कर खिलवानी है...
लड़का सारे प्रतीक नए चाहता था, सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन की तरह, शायद यही उसकी गल्ती थी... और वह उसके पीछे मोमबत्ती की तरह गलती रहती थी...

पूर्वकथा यानि कथा जहाँ से कही जाती है आमतौर पर...

चौदह बरस पहले उस शाम एक बवंडर आया था. न बिजली कड़की, न तेज पछुआ हवायें चली, न ओले पड़े...मगर एक मकान की बोसीदा दीवारें छत से मरहूम हो गईं थी. वह खामोश चीखों का अजीब तूफान था, जिसमें एक नाजुक सी क्यारी जड़ समेत उखड़ गई थी और उस वक्त के बदलते हुए इतिहास का मामूली सा हिस्सा हो गई थी. लड़के का कामरेड पिता सरेचौराह नाम पूछ कर पिस्तौल से दाग दिया गया था. उस दिन भरी दोपहर, एक भीड़ को संबोधित करने के बाद...

लड़के ने पिछले दिनों अपने इक्कीसवें वर्षगाँठ पर उस तूफान को याद करते हुए उससे कहा था, 'मैं मर सकता हूँ, मगर मेरी भाषा कभी नहीं मरेगी...' और जो उसने नहीं कहा, मगर समझा जाना चाहिए था वक्त के तकाज़े में लाज़मी मुद्दे की मानिंद, कि 'मेरी भाषा मेरी सबसे बड़ी ताकत है. मेरी भाषा मेरा वजूद है, जो मेरी धरोहर है, वही भाषा जिसका मैं वारिस हूँ... भाषा के बगैर कोई क्रांति संभव नहीं...मैं मिट्‌टी का आदमी हूँ, मेरा बदन मिट्‌टी में मिल जाएगा... मगर इसीलिए मिट्‌टी के करीब हूँ. मैं उसी तरह हमेशा ज़िंदा रहूँगा, जैसे यह ज़मीन  नश्वर है.  अनेक रूपों में, जो कहीं न कहीं जो इस कायनात में सदा बची रहेगी...यही मेरी ज़मीन है, मेरा ज़मीर है..." और समझा गया भी...
ये उसने नहीं कहा, मगर समझा गया...दुनिया की एक सबसे दुखी मगर बहादुर रूह द्वारा...

और एक मध्यरात्रि उस रूह ने  अपनी आँखें पोंछते हुए मादा गालियों के बीच हथकड़ियों का लॉक जुड़ते सुना...

इसके बाद कैलेण्डर के कई पन्ने बेकार हो गए...
कई दिन बीते, वह कभी रोती और कभी संकल्प करती रही...
कई दिन बीते, एक भी मौसम नहीं गुज़रा...
और कई दिन बीते, बे आवाज़ चाबुकों की मार तेज होती गई...


आखिरकार एक दिन सूरज बिल्कुल उसकी सीढ़ियों पर उगा, और समाज के वास्ते गैरज़रूरी हो चुके उसके चेहरे पर एक सदी की रात ढली थी.

वह लड़के को बदहवास चूमते हुए बोलती रही, 'मेरे राजा, मेरे सोना, मेरे जीवनधन...तुम आ गए... आह्‌ तुम आ गए, मेरी जान चली गई थी, मैं मर गई थी...'

दो नदियों की चार धाराऐं कधों पर मिलती रहीं, किंहीं मुख़्तसर लम्हों के लिए...


दोस्तों, यहाँ तक की लफ्फाज़ी से साफ हो गया है कि...


लड़का  अपनी फितरत और ज़मीर से मज़बूर था... और वह उसके भीतर फल गए आदर्शों के उन बीजों से, जो उसका बाप  अपने लड़के की ज़ीन में रोप गया था अनायास...

लड़के ने आदतन फिर कागज़ों के दामन पर उजली कालिख पोतना शुरू कर दिया. आरोप पत्र गढ़े जाते रहे उसके खिलाफ...और वह क्लिपबोर्ड पर कागज दबाए लिखता रहा... स्थापनाओं की चूलें हिलती रहीं...
लिखता रहा कि लोग लोहे, बारूद, धातु, चमड़े और एक मुल्की कागज़ पर छपे खास टुकड़े के पीछे हैं...कि आज का सूरज खून देख देख कर थक गया है... कि लोग सुदामा पाण्डेय 'धूमिल' को ठीक ठीक समझ लेते तो सड़क की क्रांतियाँ संसद में फैसलों में बदल जातीं... कि पाश, सफ़दर जैसों को रोकने के लिए हत्या ही इकलौता रास्ता उनके पास बच जाता था...कि इलाके का विधायक अधिनायक नहीं, जनता का मुलाजिम होना चाहिए... कि कभी कभी तारीख में विद्रोह करने की ज़रूरत एक मुकद्दस, पुराने या हालिए इतिहास को बदलने के लिए एक सिलसिलेवार धीमी सरग़ोशी या फिर बिना किसी आहट के पैदा हो जाती है, उसे आइडेंटिफाई करना ज़रूरी है...

वह लेखकीय भावुकता के झोंक में यह भी दर्ज़ करता गया, कि मैंने माँस से कभी प्रेम नहीं किया, सच्चा प्रेम वहाँ किया भी नहीं जा सकता... कि मेरा प्रेम किसी को दिखाई भी नहीं देता, समझ में नहीं आता... कि मैं सुनहरे गालों से नहीं, एक खुबसूरत कलेजे से प्रेम करने का सपना देखता हूँ... कि मेरे प्रेम को आदमखोरों के एक 'ग्रूप' ने ग्रास लिया है...

कि ( अब) हर कोई मुक्तिबोध नहीं हो सकता...

वह लिखता रहा, जहाँ तक लिखा जाना संभव हो सका...फिर दीवार पर टँगी एक पुरानी बत्ती बेनूर हुई थी, एक पुराना पर्दा खिड़की पर फड़फड़ाया था, एक पुरानी घड़ी ऊँघने लगी थी.


इन्हीं दिनों किसी दिन लड़के ने उससे कहा था, 'तुम हो तो ताकत मिलती है...मैं सृजन कर सकता हूँ, विरोध कर सकता हूँ, कुछ घाव भर सकता हूँ...'

वह मुस्करा भर देती तो लड़के की आँखों में वही दूधिया मौसम खिल उठते थे...

उत्तरकथा का पूर्वांश...

गोलियों की हैवानी धाँय धाँय के बीच वह धराशायी हुआ था.

और शांत, गाढ़ा, ताजा लहू तारकोल की तजुर्बेकार सड़क की गर्द सोखने लगी... सिर पर बने सुराख से खून था कि लगातार रिसता जा रहा था, खून का भी अपना 'स्टेटमेंट' होता है... किसी हरामखोर तिजोरी में उसे समझने के लिए शब्दकोश नहीं है...

इससे थोड़ी देर पहले रामलीला मैदान में मंच और लाउडस्पीकर का इस्तेमाल इस देश के इतिहास में घटे एक गलत मक़सद को महान साबित करने के लिए कुछ मुखौटों ने किया था... जो  अपनी नस्ल में खाँटी देशी खून ढोने की ग़लतफहमी में थे...जिनके लिए उनकी बीमार सोच में राष्ट्र का अर्थ एक ख़ास धर्म था...

देश का ताजा मगर आम व अभिजात्यीय क्षमताओं से रहित खून रोटी, छत, अस्तीव और आबरू के लिए जल रहा था जिस समय...जिस वक्त विश्व का सबसे बड़ा, शातिर, बेशरम मगर  घोषित आतंकवादी शांतिमुहिम नामक पेटीकोट की ओट ले कर दुनिया को बाजार के दलदल या युद्घभूमि के बंजर में बदल देने के लिए रोज मदारियों की चालें चल रहा था...जिस वक्त सत्ता से बाहर के लोग 'विदेशी बहू' को रोकने के लिए किसी भी हद तक जाने की खबरिया घोषणाएं कर रहे थे...और ऐसे वक्त जब सेसेंक्स रिकार्ड तोड़  उछाल मार रहा था, मगर देश का तीसरा दर्जा  अपने हाल पर छोड़ दिया जा रहा था...उस वक्त, जब रैलियों या महारैलाओं का सीजन चल रहा था...नक्सली पहाड़ी रास्तों पर विस्फोट कर अपना शक्ति प्रदर्शन कर रहे थे... और बरगद की जड़ों में सिक्के रोपने वालों के खुफिया इरादों से बहुत से हाथ पेट बेख़बर थे...

उन्हीं दिनों यह हादसा शहर के बीचोंबीच उसी रामलीला मैदान के पास हुआ था...
लालनीली बत्तियाँ, सायरन, बूटों की धमक और वर्दियों की रेलमपेल में...लड़का औंधा पड़ा था सबके बीच...लोकतंत्र में चारों खाने चित्त...एक मुहरबंद रायफल की अज़नबी गोली के भटके हुए वार का शिकार हो कर... और उस पर कई स्वचालित किस्म के कैमरे तने थे. वह भी  अपने बाप की तरह इस शाम की बुलेटिनों के लिए महत्वपूर्ण बाईट बन गया था, एक फुटेज...ब्रेकिंग न्यूज़ में उसका नाम फ्लैश हो रहा था, लक्ज़री कार के स्क्रॉलिंग विज्ञापन क्लिप के साथ...

वहाँ से कुछ ही कदम पर उसकी गली से हो कर हवा, उसके रिहायशी क्वॉर्टर के ज़ीने से चहलकदमी करती हुई, दरवाजे पर हल्की सी थपकी दे कर बालकिनी में पड़े मेज़ पर चुपचाप जा बैठती थी और फिर एक उदास कलम क्लिपबोर्ड में उलझे कागजों पर हिलती थी, आले पर रखी किताबों में से कोने वाली का ज़िल्द थरथराता था...

अचानक आकाश में उजले बादलों का अकाल पड़ गया, कहीं से भी कोयलें कूक नहीं रही थीं, हवा अब थिराने लगी थी... मानो अभी क्षितिज में तोपों की सलामी की सम्मानसूचक आवाज़ गूँजेगी. चाहरदिवारियों में दरारें पड़ने लगीं,  अविश्वासी  अपेक्षाओं आस्थाओं के जर्जर किले भरभरा कर ज़मींदोज़ होने लगे...

वह जो उसके रिश्ते की आखिरी औरत थी, और संयोग से पहली भी,  अब  अकेली हो चुकी थी. जिसका एक  नियमित और अपनी उम्र पूरी करते वेतन, एक चादर, एक मोढ़े, एक हमदर्द टोटी, एक खोहनुमा क्वॉर्टर...और इकलौते लड़के के सिवा कोई विशेष दावेदारी नहीं थी, ज़िंदगी में...जिसके कामरेड पति का ज़िस्म सरेआम चौक पर  अज्ञात (!) मोटर साईकिल सवारों द्वारा चौदह बरस पहले गोलियों से छेद दिया गया था...

वह  अपने जवान बेटे की लाश देखने का हौसला समेट रही थी...

मगर अफ़सोस! इस तरह यह कहानी यहाँ खत्म नहीं होती...
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