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शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

टूटन

कई दिनों से धूप का एक टुकड़ा
बदामदे की अधटूटी सीढ़ी पर पड़ता है
...इससे पहले उस तरफ का छज्जा टूटा था
तब से धूप का वह टुकड़ा
भीतर आ जाता है
टूटी हुई जो वो पुरानी आरामकुर्सी
बरामदे के एक कोने में पड़ी है,
वहाँ बैठ जाता है...

अलगनी टूटी पड़ी है,
उस पर कभी उसके और मेरे कपडे
भरी दुपहरी गलबहियां डाले झूमते-झूलते रहते थे
उन दिनों का सिलसिला भी
कहीं छूट गया है,
टूट गया है
लगता है धूप भी टूट कर
टुकड़े-टुकड़े
मेरे आँगन पर,
आम की सुखी ठूँठ की
डालियों से छनकर
पड़ती है इन दिनों...
इस तरह खुद को बिखेर कर
शायद कुछ बिखरा हुआ
इतिहास...
वर्तमान के टुकड़ों पर
चुनने आती है धूप

सबकुछ भग्न है
और सबके सामने नग्न है...

टूटने का ये सिलसिला
अचानक नहीं यों ही शुरू हुआ

सबसे पहले
जब सपने टूटे
जब सपनों से भरी नींद टूटी
जो सुखों की बांहों में लिपट
हमने साथ-साथ बुने थे...
जब आस टूटी
हमारा संवाद टूटा...
छाती फटी और ह्रदय टूटा

मन टूटता है तो
शरीर भी टूटता है...
फिर भी,
इन सारी टूटन के बीच...
हमारी लय नहीं टूटी,
बंधन अंतर्मनों का नहीं टूटा
सम्बन्ध प्राणों का नहीं टूटा
सिन्दूर की लाली नहीं गई
रूह का भाव सेतु नहीं टूटा...

प्रेम और परिणय...
अटूट, अटूट, अटूट हैं... सर्वदा !

धूप सी सर्वव्यापी और अटूट...

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

मैं सुनैना दास : एक जिन्दा शै

मैं सुनैना दास, आपको अपनी आपबीती, न-न कहानी जैसा कुछ सुना रही हूँ. मैं किस्सागोई में कोई एक्सपर्ट नहीं हूँ, सो जो कुछ कहना है, सपाट बक दूँगी, इसके लिए माफ़ करियेगा.
मैं जानती हूँ कि मैं कोई नयी बात नहीं कहने जा रही. आप ऐसी कहानियां या वक्तव्य बहुत सी पढ़ चुके होंगे, आए दिन पढ़ ही लेते होंगे दो-चार... न सिर्फ पत्रिकाओं में, बल्कि अख़बारों में ही...बतर्ज़ रिपोर्ट...! महिला विमर्श में भी गाहे-बगाहे आप सभी में से बहुतों ने एकाध बार हिस्सेदारी भी की ही होगी या करने की इच्छा पाले होंगे.
मैं सुनैना दास, उम्र १९ वर्ष, स्नातक फर्स्ट ईयर, जो कहने या सुनाने जा रही हूँ, उसके लिए मुझे ये दावा करने की जरूरत नहीं महसूस हो रही कि मैं कोई बहुत बड़ा साहस का काम कर रही हूँ. मैं यहाँ जिन शब्दों, अर्थों और रिश्तों का, यहाँ तक कि एहसासों का इस्तेमाल या जिक्र कर रहीं हूँ, वो प्रायः आम हैं. रोजमर्रा की भाषा में, व्यवहार में... धोखे में...
मैं जिन्दा हूँ, इसलिए बोल रही हूँ. हर जिन्दा शै बोलती है...
और मेरे लिए, सचमुच आज यह सब आपसे शेयर करना अच्छा लग रहा है, मुझे यकीन है कि ये सब कह चुकने के बाद मैं काफ़ी हल्का महसूस करूंगी...
एक हमारे पड़ोसी हैं, सिंग साहब, यानि एन. डी. सिंह. पूरा नाम नारायण देव सिंह. इस आदमी को बचपन से चाचा कहती थी या फिर जैसा उसने मुझे सिखाया था, ‘बड़े पापा’ कहा करो’, तो ज्यादातर मैं उसे ‘बड़े पापा’ ही कह कर बुलाती थी. तब तक, जब तक कि... वो सब नहीं हो गया जिसको लेकर मैं अब आपको ये कथा सुना रही हूँ... इसलिए इस कहानी में तो क्या, अपनी जिंदगी में भी, मैं आगे कभी ‘बड़े पापा’ मुँह पर नहीं लाऊंगी. इस शब्द से मुझे बेहद कोफ़्त और नफ़रत हो रही है...
वो हमारे फ्लैट के ‘सामने दरवाजे’ पर रहता है, अंग्रेजी में तो आजकल यही कहा जाता है ना, ‘द मैन नेक्स्ट डोर !’ पुलिस की नौकरी करता है, सो बड़ी सी तोंद और घनीं मूछों से दोनों तरफ़ के गाल आधे ढांपे रहना शायद उसकी पुलिसिया नौकरी की डिमांड है!  
      मैं उससे पहले बहुत डरा करती थी. मगर धीरे-धीरे ये डर कम होने लगा था, जब वो मुझे बाबा के साथ कहीं आते जाते देखता, पुचकार कर बुलाने लगता. गोद में उठा लेता, या फिर सर और पीठ पर दुलार से हाथ फेरने लगता. मैं उस समय छः-सात साल की रही होऊँगी. फिर तो डर इतना कम हो गया कि मैं अब बाबा के बगैर भी उसके सामने जाने से कतराने नहीं लगी...
      कभी-कभी वो मुझे बेधड़क अपनी गोद में उठा लेता और अपनी छाती से कसकर दाबता...मेरे गाल पर चूमने लगता. उसकी मूछें चुभतीं, मानों खुरच ही डालेगी मेरे कोमल गालों को. पर मैं सिर्फ कुनमुना कर रह जाती, और कर भी क्या सकती थी उसकी जकड़न में. मेरी कसमसाहट को बाबा और माँ भी एक भोली बाल-सहज प्रतिक्रिया ही समझते और उस आदमी के साथ हँसते रहते. वो बाबा से कहता, बड़ी प्यारी बच्चिया है सदानंद तेरी, इसे मेरे घर भेज दो. इसे हम रख लेंगे... और ठहाका लगाता, उसकी तोंद थूलथूलाने लगती, जिसपे मैं काँप रही होती. मैं ये सुनते ही उसकी गोद से उतरने को जी-जान लगा देती और बाबा की तरफ़ छूट भागती. बाबा हँसते रहते, मानों गर्व से पुलकित होकर... जिसे समझना मेरे लिए आज तक मुमकिन ना हो सका.
      मैं धीरे-धीरे विकसित हो रही थी. जैसे कि इस धरती पर हर जीव ‘ग्रोथ’ करता है. जल्द ही मैं उन दिनों के दौर में आ पहुंची, जब ‘माहवारी’ की शक्ल में खुद के विशिष्ट होने, यानि मादा होने का एहसास मुझे हुआ. मुख़्तसर एहसास...
पहली बार खून देखकर तो मेरी हालत खराब हो गई थी! माँ से पूछा तो टका सा जवाब मिला, ऐसा होता है सभी लड़की के.और किससे पूछती? कोई दीदी तो है नहीं, सहेलियों से पूछते शर्म लगा...
      वो अपनी पुलिसिया ड्यूटी से कभी एक तयशुदा समय पर घर तो आता नहीं था. दिन में कभी भी, और रात में किसी भी वक्त... उसकी बीबी, यानी मेरी चाची, जिनके उस वक्त तक चार-चार बच्चे, एक-डेढ़ साल के अंतराल पर हो चुके थे, वह उन्हीं में सुध-बुध खोए व्यस्त रहती या मेरे सर पर पटक जाती. मैं बुरा नहीं मानती थी, बल्कि मुझे तो उसकी वो औलादें बड़ी प्यारी थीं, मेरे मन बहलाव का सर्वोत्तम साधन... मैं चाची को जो बन पड़ता, मदद करती. कभी छोटू को नहला देती, तो कभी गुडिया का स्कूल बैग संभाल देती, कभी पास बिठाके पढ़ाती, यानि उनको सँभालने की मेरी भी ड्यूटी लगी रहती ताकि चाची घर के काम निपटा सकें...
      इन्हीं दिनों जब मेरे उभार सलीके से पुष्ट हो रहे थे, उसने अचानक एक दोपहर, लगभग आतुर होकर, मुझे छाती से कसकर दबोच लिया, मैं हतप्रभ-विस्मित सी अपने को उस पकड़ से छुड़ाने को कसमसाई, मगर वो अजगर की फांस सी मजबूत थी. मुँह से शराब की तीखी बास... मुझे मितली आने लगी, दम घुटता सा लगा...
तभी चाची किसी चीज को ढूंढती उस कमरे में आ निकली... मैं उस जकड़ से छुटी और सीधे अपने घर के बाथरूम में भागती हुई घुसी थी... मेरा दम फूल रहा था, मैं थर-थर कांप रही थी...
बौछार के नीचे बेदम हांफती हुई सी काफ़ी देर तक खड़ी रही... 
स्वभाव से चंचल होने के बावजूद मैं बहुत लज्जालु प्रकृति की हूँ, या कहूँ थी... पर मेरी हिचक मेरे उस एकमात्र युवा दोस्त के सामने काफूर हो जाती, वो ही एकमात्र मेरा अंतरंग बनता जा रहा था. उम्र के इस दौर में, जो माँ को होना चाहिए था, उस भूमिका को मेरा दोस्त ईमानदारी से निभाने लगा था. वो मुझे अक्सर सलाह देता था, सुनो, पुरुष हमेशा कामुक-अवसरवादी होता है. उससे बचना. मैं क्या और क्यों कह रहा हूँ मुझे मालूम है, क्योंकि मैं खुद एक मर्द हूँ.” 
उस दिन मुझे उसकी बात का अर्थ साफ़ हो गया.
मुझे निहायत बुरा लगा था, उस आदमी का ऐसा बर्ताव. जिस पर मेरा कोई भरोसा और यकीन ना होते हुए भी एक इंसानी आश्वस्ति सी थी... मेरे बदन पर देर तक उस लिजलिजे जकड़न का एहसास बना रहा, वैसे ही जैसे रस्सी खुल जाने पर भी उस हिस्से पर उसका एहसास बना रहता है. माँ से बताने को दिन भर मौका ढूंढती रही... और रात में जब कहा तो माँ बोली, तो क्या हुआ, बचपन में भी तो तुझे गले लगाकर, प्यार किया करते थे...!
आश्चर्य! क्या माँ को समझ नहीं आ रहा था कि अब मेरा बचपन नहीं था, मैं बच्ची नहीं रही थी, बचपन से जवानी की चौखट पर कबकी पैर धर चुकी थी. कि अब मेरे शरीर का भूगोल और रसायन बदल रहा था... आश्चर्य कि ये मेरी सगी माँ है!
मेरे पाठकों, मैं एक बात इस वाकये के मद्देनज़र पूछ रही हूँ... मैं मानती हूँ और यह सच भी है  कि कोई स्त्री अछूती नहीं रहती, क्योंकि उसे मर्द हर क्षण अपने फितरत की तमाम कामुकता के साथ छूता है. फिर कौमार्य-शुचिता, पवित्रता और पतिव्रता के ढकोसले भी तैयार करता है! मेरे पुरुष सहजीवियों... जब आप ये दोगलापन कब छोड़ोगे ?
मैं सुनैना दास, अब अनछुई, पवित्र और हाँ, ‘वर्जिन’ नहीं हूँ, शायद इसीलिए आज अपनी बात कहने में आज मुझे किसी हिम्मत की जरुरत नहीं महसूस हो रही.     

वह आदमी शराब पानी की तरह पीता, मुफ़्त की ही होती तो कोई लिमिट क्यों कर रहता. इसमें मेरे बाबा भी शामिल होते हैं, शराब का लालच ही खींचता है उनको उधर... सजातीय होने के आलावा...! ड्यूटी से वह कभी भी आ टपकता है, और जब मैं उसके सामने पड़ जाती तो मुझे किसी तरह बिना छुए, हाथ लगाये नहीं रह पाता. आमतौर पर इसे उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता, मगर इसी बात का फायदा तो उठाया जाता है... मुझे भीतर से खूब बुरा लगता, पर मैं लिहाज करती थी कि मुझसे बड़े हैं, मन में कोई पाप लेकर तो ऐसा नहीं करते होंगे. मैं समझती थी सारी दुनिया सफ़ेद परदे की तरह उजली है! हाँ, कितनी मूर्ख थी मैं...या जानबूझकर खुद को बना रही थी. ये भी उसी दिन समझ आया...
चाची जब भी कुछ अच्छा अपने तीनों बच्चों, चूँकि सबसे छोटी वाली तो दुधमुंही थी, के लिए पकाती मुझे भी बुलाकर खिलाती या मेरे घर भिजवा देती. उनके पति के प्रति अब थोड़ी सतर्क और कटी रहने के बावजूद मैं उस घर में घुसी रहती तो उसका एक कारण थी चाची और उनका प्यार. बाद में पता चला कि वो मुझपे इतना अपनापा इसलिए जताती थीं कि मैं उनके बच्चों की आया बनी रहूँ ! इसके अलावा माँ अक्सर मुझे किसी ना किसी काम से वहाँ भेजती. उन दिनों में साढ़े अठारह साल पुरे कर चुकी थी और थोड़ी सयंत होने लगी थी. माँ ने कभी परवाह नहीं की कि मेरी उम्र मेरे मादा होने के कारण शिकारगाह में छोड़े गए खरगोश की नियति के समान खतरनाक हो चुकी है! माँ मुझे आधी रात को भी पड़ोस में भेज सकती थी, किसी भी परिचित, चाहे दो दिन का ही हो, पुरुष के साथ घर या कहीं भी अकेला छोड़ सकती थी! सड़क पर आवारा लौंडे मुझ पर फब्तियां कसते तो भी माँ निस्संग रह जाती थी...
आखिर माँ पहली पाठशाला होती है! पर मेरे मामले में ऐसा नहीं था, ना आज भी है... वो और सब बातों में किसी हद तक थी भी, पर यौन विषय पर नहीं. एक बंद दरवाजे की तरह... २१वीं सदी में मैं थी, मेरी माँ थी, मगर मैं अपने पाठ और अनुभव स्वयं पहली बार जीकर इकठ्ठे कर रही थी.
बाबा अपनी फिक्रमंदी जरूर दिखाते, पर वो नसीहतों से ज्यादा कुछ ठोस नहीं दे सके...
मेरे अजीज पाठकों, आपको अब तक भान तो हो ही गया होगा कि एन. डी. सिंह नाम के उस आदमी ने ही मेरी ‘वर्जिनिटी’ को खत्म किया है... इससे भी कहीं ज्यादा वो आदमी मेरे विश्वास और सम्मान का खूनी है.
जो मैं कहना चाहती हूँ उस मुद्दे को आप नोट करें, कि औरत क्या सिर्फ छली जाने के लिए होती है? क्या मैंने एक आदमी, और स्पष्ट कहूँ तो, एक मर्द पर भरोसा करके गलती की? उस आदमी ने मुझे बचपन, गोया लड़की तो बारह साल में ही युवा हो जाया करती है. खर-पतवार सी बढ़ती है. ‘बेटा धान की बाली होता हैं, और लड़की खर-पतवार... बेमोल, छांटे जाने योग्य, अपभ्रंश...’ किसी सहेली की माँ से सुना था, जब वो अपने गाँव की बात कर रही थी. तो उस आदमी ने मुझे बचपन से यकीन दिलाया कि मैं उन्हें अपने से उम्र में बड़ा, वत्सल और अपना शुभचिंतक मानूँ, उनकी इज्जत करूँ... ये ही हमारे यहाँ के संस्कार भी हैं. मैंने कहाँ भूल कि जो उससे मनुष्य का रिश्ता रखा? उसे एक पुरुष के बजाय ‘आदमी’ समझा... हाँ, शायद यहीं पर भूल कर दी मैंने. मर्द हर रूप में मर्द ही होता है, कायर, स्वार्थी, मौकापरस्त कामुक... मेरा दोस्त सही कहता है.
सिंग साहब नाम का वो आदमी दाना डाल रहा था, कबूतरी कभी ना कभी तो फंसती ही... फँस गयी तो ठीक, नहीं तो दबोच कर कभी एकांत, कभी अँधेरे में, उसके पर-पर नोंच-खंरोंच कर उसे तितर-बितर कर देंगे. वही मरदाना ताकत का दंभ, अंह, भ्रम...!
...मैं तो उस रात माँ के ही कहने पर उसकी रसोई में उसका गैस स्टोव जलाने में मदद करने गयी थी... मैंने तो सिर्फ उसको ‘अंकल’ कहा था... पर उस रात चाची वहाँ नहीं थी, गाँव से बच्चों को लेकर लौटी नहीं थी... ग्यारह अगस्त की उस रात को उस सिंह साहब ने नशे की चरम सीमा पर मुझे निरीह मेमने सा अपने फंदे में फँसने आते देखा और हलाल करने का सोचने लगा... लुंगी गाँठ कर कब उसने बाहर दरवाजे की सिटकिनी चढ़ाई, मुझे पता नहीं चला; कब उसने मुझे घेरने को अपना जिस्म आगे बढ़ाया, मैंने नहीं देखा...
और एकाएक मैं पंख फडफडाती कबूतरी सी फँस चुकी थी... और सिर्फ तीन-चार मिनट के अंतराल में मेरा कोमार्य खून के धब्बे बनकर उसकी फ़र्श पर बिखरा पड़ा था...
माँ घर में निश्चिन्त थी, उसे पता नहीं चला कि उनकी अठारह साल की बेटी के साथ अभी-अभी बलात्कार हो चुका है...माँ तो कभी इसके बारे में सोचना ही नहीं चाहती थी. तभी तो मेरे इतनी बार ईशारा करने, आनाकानी करने पर भी उसने मुझे बचाने की कोई कोशिश नहीं की कभी... इसलिए मेरे पाठकों, मैंने आज तक उन्हें बताया नहीं कि मेरा रेप हो चुका है...! मुझे पता नहीं क्यों, यकीन है कि वो जानकार भी कुछ खास उत्तेजित तक नहीं होगी...!
उस आदमी ने इसके बाद मुझसे कभी नजर नहीं मिलाई... आज तक नहीं... हाँ, उसने बतौर मेहरबानी, आई-पिल का पैकेट अखबार में लपेटकर गुड़िया के हाथों मुझे भेजा था, बहत्तर घंटों से पहले...  मैंने वितृष्णा और गुस्से से उसे उसी समय डस्टबीन में फेंक दिया था. मेरे भरोसे की हत्या हो गयी थी, मैंने आदमियत कि लाश देख ली थी. मैं आपे से बाहर हो रही थी. अब कोई डर मेरे ऊपर असर नहीं कर रहा था...     
  ...तो मेरे पाठकों मुझे जितना बकना था, बक चुकी. आपको जरुर लग रहा होगा कि मैं पक्का पागल हूँ. कोई टीन-एजर लड़की बलात्कार ‘शिकार’ होने के बाद भी इतना तटस्थ होकर कैसे ये सब बयान कर सकती है...इतना कैसे बक सकती है? हाँ, शायद मैं पागल हो गयी हूँ. उस ‘घटना’ ने मेरा दिमाग खराब कर दिया है. पर मुझे पता है कि मैंने जो कुछ भी अभी आपसे कहा है, पुरे होशोहवास में कहा है. मैं जानती हूँ कि जो माँ से नहीं कह सकी या सकती, वह आपसे कह दिया. है ना ये हैरत वाली बात ! क्योंकि कुंवारी लड़की कि सबसे पहली राजदार उसकी माँ ही होती है... खैर.
जो मेरे साथ हुआ, जो कर दिया गया, जो दर्द और अपमान उस चार-पांच मिनट में मैंने झेला, वो कैसे ‘शेयर’ करूँ? नहीं कर सकती ना, कोई नहीं कर सकता.
गलत ! मैंने किया अपने उसी दोस्त से. और देर तक उसका हाथ मेरी पीठ सहलाता रहा... मैं उसके सीने में छुपी रही. काश हमेशा छुपी रहती तो ये घाव नहीं खाती. उसने कहा, तुम बोलो क्योंकि, चुप रहने से कोई हल नहीं निकलता. कुछ लोगों को उनकी मौत से पहले शर्म की मौत मारना जरूरी होता है. लड़ना अनिवार्य है. तुम लड़ो, और बोलो क्योंकि तुम जिन्दा हो... हर जिन्दा शै बोलती है. 
अब फैसला आप पर छोडती हूँ... चाहे तो मेरे इस किस्से को पूरी तरह ख़ारिज कर दीजिए, चाहे तो स्त्री-विमर्श के किसी खाने में डाल दीजिए. मेरा मकसद बोलना था, वो मैं कर चुकी...

-          शेखर मल्लिक



     



सोमवार, 12 अप्रैल 2010

हाँ, ये सत्य है...

बहुत दिनों से 
बहुत गहरे उतरकर
तेरी आत्मा की नरम उष्म गोद में 
थक कर 
सोता रहा हूँ 
और तूने मेरी पलकों पे झुककर
अपने गर्म श्वासों से 
हल्की थपकियाँ दी हैं...
मेरी लहू की बूंदों में 
मिश्री घोली है...

दुनिया बहुत जली है
लोगों ने कांटे बहुत बोये हैं 
नश्तर चुभोये हैं
ज़हर उगला है 
अपने दायरे से हमें बाहर किया है 

पर हमने लिपटकर एक-दूजे से
नई सुबह की हमेशा कामयाब प्रतीक्षा की है

बहुत दिनों से
तेरा और मेरा परस्पर विलयन होता रहा है
और आज 
और अब 
तू मैं है और 
मैं तू हूँ !
पूरी दुनिया 
गैर-वाजिब, गैर-अहम होके 
हमारे दायरे से बेदखल हो चुकी है...

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