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सोमवार, 17 अगस्त 2020

सांस्कृतिक व राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में लोक शाहीर कॉमरेड अण्णाभाऊ साठे

16.08.2020
    अण्णाभाऊ साठे जन्मशती आयोजन 
  प्रलेस - इप्टा, घाटशिला 
(रिपोर्ट)

लोक शाहीर कॉमरेड अण्णाभाऊ साठे की जन्मशती के मौके पर इप्टा और प्रलेस की घाटशिला इकाई ने कॉमरेड अण्णाभाऊ साठे के अवदान और सांस्कृतिक व राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में उनको देखने समझने के लिए, विशेषकर युवा साथियों के बीच इस क्रांतिकारी लोक शाहीर के बारे में जानने, समझने और संघर्ष की लौ सम्भालने के लिए प्रेरित होने के लिए एक ऑनलाइन  विचार गोष्ठी आयोजित की. इस फेसबुक लाइव परिचर्चा में इप्टा की रायगढ़ इकाई के युवा साथी श्याम देवकर, रायपुर इप्टा के बहुत सक्रिय और नाचा-गम्मत लोक-नाट्य शैली की परम्परा को आगे बढ़ाने की मुहीम में निसार अली के साथ महत्वपूर्ण काम कर रहे शेखर नाग, प्रलेस के राष्ट्रीय सचिव कॉम. विनीत तिवारी ने अण्णाभाऊ साठे के इस देश के वंचितों और सर्वहारा वर्ग की राजनीतिक लडाई को सांस्कृतिक मोर्चे पर लड़ने को लेकर अपनी बात रखी. इप्टा की राष्ट्रीय सचिव उषा वैरागकर आठले इस परिचर्चा में अध्यक्षता की. 
(इस पूरी परिचर्चा को आप यूट्यूब पर या इस रिपोर्ट के बिलकुल अंत में दिए गये वीडियो में देख सकते हैं)

श्याम देवकर ने "युवा पीढ़ी के लिए अण्णाभाऊ साठे क्यों?" विषय पर अण्णाभाऊ साठे के जीवन और कला को केन्द्रित कर अपनी बात रखी. उन्होंने अन्ना भाऊ साथे के तीन प्रवास की बात की - मान्गवाड़ से मुम्बई, मुंबई से मास्को. आज की परिस्थिति में मेहनतकश वर्ग जो तकलीफें उठा रहा है, वैसे ही अण्णाभाऊ साठे को भी पेट भरने के लिए महानगर की तरफ जाना पड़ा था. अत: उन्होंने अपने जीवनानुभवों से बहुत कुछ लिखा. आज भी हालात नहीं बदले हैं. अण्णाभाऊ साठे ने कहा था कि 'ये पृथ्वी किसी शेषनाग के माथे पर नहीं है, ये पृथ्वी मेहनतकश, मजदूर, दलित के हाथों पर टिकी है, यानि उनके दम पर चलती है'. रूस यात्रा में वे कितने सरल व्यक्ति की तरह पहुंचे थे, जबकि उनकी ख्याति 'लेनिनग्राद का पोवाडा' के रुसी अनुवाद से वहां तक उनसे पहले पहुँच ही गयी थी.  आज के युवाओं के पास तो अण्णाभाऊ साठे के समय के मुकाबले ज्यादा संसाधन, पहुँच और अच्छे साथियों की संगत उपलब्ध है तो आज के युवाओं को समझ बूझ कर अपनी दिशा तय करनी चाहिए. 

इसके बाद शेखर नाग ने लोक कलाओं की ताकत पर केन्द्रित अण्णाभाऊ साठे के कलाकर्म पर बात की. उन्होंने विस्तार से बताया और 'हाना' लोकगीतों के माध्यम से छत्तीसगढ़ी 'नाचा' में प्रयुक्त लोक गीतों का गायन कर विचारों को सोदाहरण प्रस्तुत किया. उन्होंने कहा कि लोक कलाओं की ताकत बहुत होती है, बशर्ते वह दरबारी न हो, लोक से जुड़ा हुआ और समाज सापेक्ष हो. लोक कलाकर अक्सर कृषक और मजदूर होते हैं. रूस की सरकार ने मराठी रेडियो शुरुआत की थी और अण्णाभाऊ साठे को रशिया में ही रह जाने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन अण्णाभाऊ साठे को महसूस करते थे कि भारत में किसानों, मजदूरों को उनकी जरूरत अधिक है, इसलिए वे भारत आ गये. 
शेखर नाग ने कहा कि, लोक कलाओं में प्रतिरोध की जबरदस्त शक्ति होती है और वह सत्ता की नाराजगी से नहीं डरता. वह व्यवस्थाओं को तिलमिला देती हैं. शेखर छत्तीसगढ़ के कई लोक कलाकारों, उड़ीसा के लोक कलाकारों आदि की जानकारी देते हुए आज के वक्त में भी लोक कलाओं के महत्व और प्रभाव पर बोल रहे थे. उन्होंने "पोगा पंडित" नाटक का विशेष उल्लेख किया, जिसके लिए हबीब तनवीर पर हमले भी हुए थे. 

विनीत तिवारी ने कहा कि हमें मराठी प्रान्त के लोक साहित्य और परम्परा को और जाने की जरूरत है. अण्णाभाऊ साठे के बारे में यह होता है कि कम्युनिष्ट उन्हें कम कम्युनिष्ट मानने लगे थे, क्योंकि वे बाद में आंबेडकर के विचारों की तरफ गये. जबकि, अम्बेडकरवादी उन्हें इसलिए अम्बेडकरवादी नहीं मानते कि वे मार्क्सवादी पृष्ठभूमि से आते थे ! यह एक बड़ा कारण है कि उनकी रचनाएँ जो विदेशी भाषा में आ चुकी थीं, लेकिन अंग्रेजी में अनूदित नही हुई थीं. (हिंदी में भी नहीं) तो ये भेदभाव हुआ. पार्टी के भीतर भी हुआ. विनीत तिवारी ने कहा कि अन्ना भाऊ आंबेडकरवाड़ी, दलित  आन्दोलन के साथ कभी भी उस रूप में नहीं थे, क्योंकि यह मानते थे कि दलित आन्दोलन के भीतर अगर हम 'वर्ग' के प्रश्न, 'क्लास-फेक्टर' को नहीं लायेंगे तो केवल 'कास्ट-मूवमेंट' कामयाब नहीं होगा.  ये वो जितना पढ़ा-लिखा था, सीख -समझा था, उसके आधार पर मानते थे.  प्रगतिशील लेखक संघ का यह दायित्व भी है कि अन्ना भाऊ साठे को हिंदी भाषी लोगों तक पहुँचाया जाय.   
उन्होंने कहा कि 'लाल वाबटा कला पथक' के बारे में इतिहास को थोडा सुधार लेना चाहिए. इसमें लोक शाहीर अमर शेख, लोक शाहीर गवाणकर (बुआ) के साथ अन्ना भाऊ साठे शामिल तो थे, लेकिन एक चौथा महत्वपूर्ण व्यक्तित्व भी इनमें शामिल था, जो इन तीनों के साथ जनमानस के बीच जाता था या नहीं, कहना मुश्किल है मगर वह चौथा व्यक्तित्व बलराज साहनी थे, जिन्होंने इन तीनों की खोज की थी.  बलराज साहनी ने मुंबई के परेल इलाके की मिल मजदूरों की चालों में इन लोक कलाकारों को ढूंढ निकला, जिनके अंदर आधुनिक चेतना थी, व्यवस्था के खिलाफ़ गुस्सा था. तो इन लोगों ने बलराज साहनी के साथ जुड़कर कम्युनिज्म और मार्क्सवाद को जाना. 
जबकि ठीक उसी समय आंबेडकर भी सक्रिय थे. तब यह सोचने वाली बात है कि ये सब पहले कम्युनिज्म से क्यों जुड़े, अम्बेडकरवाद से नहीं. ये सब 'मांग' समाज से आते थे. आंबेडकर थे 'महाड' समुदाय के, जो दलितों के भीतर सबसे प्रभावशाली समुदाय है. डॉ. आंबेडकर ने जोर देकर कहा था कि मैं केवल 'महाड' समाज का नेता नहीं हूँ, बल्कि सब दमित शोषित अस्तित्व वालों का लीडर हूँ, दूसरी तरफ 'मांग', 'मातंग' आदि समाजों के नेता आंबेडकर को मानने को तैयार नहीं थे. 
इसके ऐतिहासिक कारण हैं.  इसलिए 'महाड़' के अलावा दूसरी जातियों का समर्थन आंबेडकर को नहीं मिला. अन्ना भाऊ साठे ने देखा कि गाँवों में 'महाड़' और 'मांग' जातियों के बीच भेदभाव था और शहर में दलितों और गैर दलितों के बीच था. दोनों ही स्थितियों में उनके भीतर एक तरह का द्वैत बना रहा कि हमें शायद जाति के और वर्ग के सवाल को साथ लेकर चलना पड़ेगा. और वे इस द्वैत के साथ ईमानदारी से रहे. अण्णाभाऊ ने नैरेटिव की बायनरी को बदला. जाति के मसले के साथ उन्होंने स्त्री-पुरुषों के द्वन्द के नैरेटिव को भी खड़ा किया. और इस प्रक्रिया के भीतर अमीर और गरीब के नारैतिव को कभी छोड़ा ही नहीं. अण्णाभाऊ साठे को याद करते हुए हमें यह याद रखना चाहिए कि एक कलाकार द्वन्द के साथ में रहता है. और उसके सामने जो परिस्थितियां रहती हैं, उसके प्रति वह फैसलाकुन नहीं हो पाता. जैसे फ्रेंज काफ्का. तो वो भी एक कलाकार के लिए एक तरह की ताकत का काम करता है. आजकल जो 'लाल' और 'नीले' को एक साथ मिलाने  की नारेबाजियां हो रही हैं,  इसे अगर आगे ले जाना है, ठोस शक्ल देनी है,  मार्क्सवादी लोग दलितों को ग्राह्य कैसे हों? फिर से कैसे वह माहौल बने जिसमें गवाणकर बुआ, अमर शेख और अन्ना भाऊ साठे जैसे लोग कम्युनिष्ट विचारधारा को ये माने कि जब तक वर्ग की लड़ाई हम साथ में नहीं जोड़ेंगे, तब तक जाति की लडाई अकेले कामयाब नहीं होगी. अण्णाभाऊ साठे को याद करते हुए यह कहना है कि वर्ग की और जाति की समझ को लेकर के, दलितों के और शोषितों के, चाहे वे किसी भी तबके से आने वाले लोग हों, उस आन्दोलन को हमें आगे बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए. 
      

वरिष्ठ रंगकर्मी उषा वैरागकर आठले, जो अण्णाभाऊ साठे की कहानियों और नाटक का अनुवाद कर हिंदी भाषी पाठकों, कलाकारों तक पहुँचा रही हैं, ने कहा कि अण्णाभाऊ साठे का व्यक्तित्व और कृतित्व बहुआयामी था. अण्णाभाऊ साठे को 'मराठी का गोर्की' कहा जाता था. क्योंकि जिस तरह गोर्की ने अपने वर्ग के, अपने लोगों के, दलित-शोषित-पीड़ित लोगों के चरित्रों को रचा, वैसे ही अण्णाभाऊ साठे के साहित्य में भी उसी तरह के पात्र हैं.
इप्टा, प्रलेस और कम्युनिष्ट पार्टी के लिए उन्होंने अपने कई साथियों के साथ बेहद सक्रिय और मुखर भूमिका निभाई. जन चेतना का गाँव-गाँव में प्रसार किया. अण्णाभाऊ साठे ने अपने जीवन में कई तरह के कम किये और उनसे जो अनुभव उन्हें मिले, वो गरीबी, अपमान, दलित होने के, जिससे उनके भीतर इनसे मुक्त होने के लिए प्रतिकार की भावना आई.  माटुँगा लेबर कैम्प के आसपास लेबर रेस्टोरेंट में वे कई कम्युनिष्टों के संपर्क में आये. यह एक बहुकथित बात है कि जिस जगह अण्णाभाऊ साठे रहा करते थे, वह बहुत सीलन भरी, मच्छरों से भरी जगह थी, उन्होंने मच्छर पर  महाराष्ट्र की लोकशैली 'पोवाडा' में लिखा. लेबर रेस्टोरेंट में जब वे इस पोवाडे को सुना रहे थे तो कॉम. पगारे ने सुना और युवा अण्णाभाऊ की आवाज और कथन शैली से, विचार व्यक्त करने के साफ़ तरीके से प्रभावित हुए. उन्हें लगा कि कम्युनिष्ट पार्टी को ऐसे लोगों की सख्त आवश्यकता है, जो लोगों की बात लोगों के बीच जाकर कर सकें. वे अण्णाभाऊ को पार्टी ऑफिस ले आये. इस तरह, माना जाता है कि, अण्णाभाऊ साठे कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े. उनकी लिखी रचनाएँ कम्युनिष्ट पार्टी ने ही सबसे पहले प्रकाशित की थी. अण्णाभाऊ साठे ने सिर्फ पोवाडे, लावणी नहीं लिखे, कम्युनिष्ट पार्टी के लिए जगह जगह भाषण देने का काम ही नहीं किया, पैम्फलेट लिखने, बांटने का काम, प्रचार-प्रसार का काम, उसके लिए अख़बारों में रिपोर्टिंग करने का काम भी किया करते थे. तो कम्युनिष्ट पार्टी के लिए लगभग होल टाइमर जैसी ही स्थिति उन दिनों अण्णाभाऊ साठे की हुआ करती थी.  1944 में 'लाल बावटा कला पथक' में सक्रिय होने से पहले ही वे प्रलेस और इप्टा से जुड़ चुके थे. 1949 में उन्हें इप्टा का राष्ट्रीय अध्यक्ष भी चुना गया. इप्टा के मंचों से अण्णाभाऊ साठे ने कई प्रसिद्ध नाटक, गीत दिए, जो उनके सामाजिक, राजनितिक और सांस्कृतिक चेतना से ओतप्रोत थे.  उनका एक पूर्णकालिक नाटक 'इनामदार' है, जो इप्टा द्वारा हिंदी में मंचित हुआ, और जिसमें ए.के. हंगल साहब ने अभिनय किया था, भले वह लिखा मराठी में गया था. 
उषा आठले ने विशेषकर 'जाल' कहानी का जिक्र किया, जिसका हिंदी में अनुवाद उन्होंने किया है, कि वर्ग और वर्ण संघर्ष में हमेशा उन्होंने ऐसे चरित्र रचे जो पूरे समाज के सामने उदहारण स्थापित कर सकें.  कहानी में वे दिखाते हैं कि सिर्फ जाति से ही मुक्त होना नहीं, आर्थिक रूप से मजबूत होना भी बेहद जरूरी है. तो इस प्रकार उनकी सांस्कृतिक चेतना के साथ उनकी राजनितिक चेतना का भी पता चलता है. इस राजनितिक चेतना के पीछे उनकी मार्क्सवादी समझ है
आज तमाम प्रगतिशील तबके को जरूरी है कि वे अन्ना भाऊ साठे, उनके व्यक्तित्व-कृतित्व के आयामों को देखते हुए, उनके विचारधारा को समझें कि किस प्रकार वे लोगों से जुड़े हुए थे. अपनी विचारधारा के लिए जमीनी आधार उन्होंने बनाया. उनसे ये सीखने की बहुत आवश्यकता है.
 
संचालन सत्यम ने किया. सत्यम ने कहा कि अण्णाभाऊ साठे और हबीब तनवीर की विरासत जो है, वो क्रांतिकारी भावों को लोगों तक लेकर जाने में हमारी मदद करेगी. इस परिचर्चा में हम अण्णाभाऊ साठे के व्यक्तित्व और रचनाकर्म के विविध आयामों से परिचित हुए.  आज हम समझ रहे हैं कि कैसे अण्णाभाऊ साठे जैसे क्रांतिकारी कलाकार आज के वक्त में पहले से ज्यादा प्रासंगिक हैं. अण्णाभाऊ साठे हों या परसाई, सत्ताधारी फासीवादी भी इनकी एप्रोप्रिएशन चाह रहे हैं. अण्णाभाऊ साठे वर्ग संघर्ष हो चाहे वर्ण संघर्ष हो या लिबरल पहचान की राजनीति हो, उसके खिलाफ एक पुकार हैं.   

रिपोर्ट : ज्योति मल्लिक/ शेखर मल्लिक



शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

विनीत तिवारी : भीष्म साहनी के जन्मशताब्दी वर्ष 2015 में घाटशिला में दिया वक्तव्य

प्रगति लेखक संघ के राष्ट्रीय सचिव मंडल के साथी, "प्रगतिशील वसुधा" के संपादक विनीत तिवारी का भीष्म साहनी के जन्मशताब्दी वर्ष 2015 में घाटशिला प्रलेस द्वारा आयोजित कार्यक्रम "हमारे समय में भीष्म साहनी" में 14 नवंबर, 2015 दिया गया वक्तव्य. नीचे ऑडियो प्लेयर पर आप इस वक्तव्य को सुन और डाउनलोड कर सकते हैं. 


शनिवार, 1 अगस्त 2020

"अंगारे" लिखने वाली रसीद जहां

ज़ाहिद खान

यह सन् 1932 की बात है. उन दिनों एक किताब छपकर आई. नाम था – ‘अंगारे’ और यह सज्जाद ज़हीर, अहमद अली, रशीद जहां और महमूदुज़्ज़फर की नौ कहानियां का संग्रह था, जिसमें एक एकांकी भी शामिल था. सिर्फ़ नाम ही नहीं, किताब की तासीर भी अंगारे की तरह ही साबित हुई. हंगामा खड़ा हो गया और इस क़दर बवंडर मचा कि रशीद जहां को ‘अंगारे वाली’ का ख़िताब देकर उनके ख़िलाफ़ फ़तवे जारी हुए. संयुक्त प्रांत की सरकार ने समाज और अमन के लिए ख़तरा मानकर किताब ज़ब्त कर ली.

हाजरा बेगम ने उस दौर की कैफ़ियत कुछ यूं बयान की है, ‘‘अंगारे शाया करते समय ख़ुद सज्जाद ज़हीर को अंदाज़ा नहीं था कि यह एक नई अदबी राह का संगेमील बन जाएगा. वह ख़ुद तो लन्दन चले गए, लेकिन यहां तहलका मच गया. पढ़ने वालों की मुखालफ़त इस क़दर बढ़ी कि मस्जिदों में रशीद जहां – अंगारे वाली के ख़िलाफ़ वाज होने लगे, फ़तवे दिए जाने लगे और ‘अंगारे’ ज़ब्त हो गई. उस वक्त तो वाकई ‘अंगारे’ ने आग सुलगा दी थी.’’ रशीद जहां के ख़िलाफ़ फ़तवे आए और उन्हें जान से मारने की धमकियां भी मिलीं.

‘अंगारे’ और उसके लेखकों की मुख़ालफ़त ज़रूर हो रही थी मगर उनके तरफ़दार भी थे. बाबा-ए-उर्दू मौलाना अब्दुल हक़, मुंशी दयानारायण निगम भी इन्हीं तरफ़दारों में थे. लोग रशीद जहां को ‘अंगारे’ वाली लेखिका के तौर पर पहचानते और सराहते.

मुंशी दयानारायण निगम ने अपने अख़बार ‘ज़माना’ में लिखा,‘‘चार नौजवान मुसन्निफ़ों ने, जिनमें एक लेडी डॉक्टर भी हैं, अंगारे नाम से अपने दस क़िस्सों को किताबी सूरत में शाए किया. इनमें मौजूदा ज़माने की रियाकारियों पर रौशनी डालने, मुरव्विजा रस्म व रिवाज़ की अन्दरूनी ख़राबियों को बेनक़ाब करने की कोशिश की गई थी. हमारे नाम-निहाद आला तबके की रोजमर्रा मआशत के नकायस का मजहका उड़ाया गया था. गो इस मज्मूए का तर्ज़े बयान अक्सर मकामात पर सूकयाना था, जो मजाके-सलीम को खटकता था. लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि नौजवाने-आलम ने दुनिया में जो अलमे-बगावत बलन्द कर रखा है, उसी का एक अदना करिश्मा इस किताब की इशाअत है.’’

उर्दू अदब की धारा बदल देने वाली इस किताब का असर यह हुआ कि कल तक अफ़सानानिगार जिन मसलों पर क़लम नहीं चलाते थे, उन पर भी कहानियां लिखी जाने लगीं. कहानी वर्जित क्षेत्रों में भी दाख़िल हुई.

ये अंगारे वाली रशीद जहां डॉक्टर थीं, अफ़साने और नाटक भी लिखतीं, अख़बारनवीसी के साथ ही समाजी और सियासी कामों में भी मशक़्कत करतीं. और यह वही डॉ. रशीद जहां हैं, जिन्होंने मुल्क में तरक्कीपसंद तहरीक़ की बुनियाद रखने और उसे आगे बढ़ाने में हाथ बंटाया. अपनी 47 साल की ज़िंदगी में उन्होंने कितने ही बेमिसाल कारनामे अंजाम दिए. प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा की वह संस्थापक सदस्य थीं. इन दोनों संगठनों के विस्तार में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. हिन्दी और उर्दू ज़बान के अदीबों, संस्कृतिकर्मियों को इन संगठनों से जोड़ा. संगठन बनाने के सिलसिले में सज्जाद ज़हीर ने शुरूआत में जो यात्राएं कीं, रशीद जहां भी उनके साथ गईं. उन दिनों अदब के जितने बड़े मर्कज़ थे – लखनऊ, इलाहाबाद, पंजाब, लाहौर – सभी जगहों पर लोगों का संगठन की विचारधारा से तआरुफ़ कराया, और नामवर लेखकों को साथ लिया.

25 अगस्त, 1905 को अलीगढ़ में पैदा हुई डॉ. रशीद जहां को तरक्क़ीपसंदी, रौशनख़्याली और इंसानी की आज़ादी के हक़ूक की समझ विरसे में मिली थी. उनके वालिद शैख अब्दुल्ला औरतों की तालीम के बड़े हामी थे. मां वहीद जहां बेगम भी हर क़दम अपने खाविंद के साथ रहतीं. ऐसे माहौल में रशीद जहां की तर्बीयत हुई और इसका असर ताउम्र बना रहा. रशीद जहां ने इस बारे में लिखा है, ‘‘हमने तो जब से होश संभाला, हमारा तो तालीमे-निस्वां का ओढ़ना है और तालीमे-निस्वां का बिछौना.’’

तालीम के साथ-साथ चौदह साल की उम्र से ही मुल्क की आज़ादी के लिए चल रही तहरीकों में उन्होंने दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी थी. शुरूआत में वह महात्मा गांधी से मुतास्सिर हुईं और बाक़ायदा खादी भी पहनी, लेकिन बाद में इस नतीजे पर पहुंचीं कि मार्क्सवादी विचारधारा ही मुल्क के लिए मुफ़ीद है. कांग्रेस में भी एक ऐसा धड़ा था, जो समाजवाद में यक़ीन रखता था. जवाहरलाल नेहरू इस धड़े की नुमाइंदगी करते थे. ऐसी सियासी सरगर्मियों के बीच उनकी तालीम चलती रही. लखनऊ में ‘इज़बेला थाबर्न कॉलेज’ में पढ़ाई के दौरान साइंस की किताबों के साथ उन्होंने तमाम विषयों की किताबें पढ़ीं. ख़ास तौर से अदब उन्हें बहुत भाता. पढ़ते-पढ़ते वह लिखने भी लगीं.

1923 में अठारह साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली कहानी ‘सलमा’ लिखी. यह कहानी अंग्रेज़ी में थी, बाद में उर्दू में भी छपी. कहानी मुस्लिम औरतों के हालात पर सवाल उठाती है, परिवार और समाज में उसकी हालत का सच सामने लेकर आती है. कहानी सिर्फ़ औरत के हालात पर तज़किरा नहीं है, बल्कि वह अपने हालात से बग़ावत भी करती है. 1924 से 1929 तक दिल्ली के ‘लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज’ में रशीद जहां ने एम.बी.बी.एस. किया. इस दरमियान दीगर गतिविधियों से वह बिल्कुल कटी रहीं. लेकिन जैसे ही उनकी पढ़ाई पूरी हुई, फिर अदब और सियासत की ओर लौट आईं.

उनकी ज़िंदगी में नया बदलाव तब आया, जब उनकी मुलाक़ात सज्जाद ज़हीर, महमूदुज़्ज़फर और अहमद अली से हुई. सज्जाद ज़हीर उन दिनों लंदन में तालीम ले रहे थे. छुट्टियों में लखनऊ आए हुए थे. रशीद जहां भी उस वक़्त लखनऊ के एक अस्पताल में नौकरी कर रही थीं. पहली ही मुलाक़ात में सज्जाद जहीर के तरक्कीपसंद ख़्यालों से बेहद मुतास्सिर हुईं और उनके साथ जुड़ गईं. सज्जाद ज़हीर के दिल में महमूदुज़्ज़फर और रशीद जहां के लिए एक ख़ास जगह थी. वह उनके विचारों की बहुत क़द्र करते थे. प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के दरमियान इन लोगों के बीच जो लंबे-लंबे बहस-मुवाहिसे हुए, उसने रशीद जहां को एक नया नज़रिया भी दिया. कहानी संग्रह ‘अंगारे’ का जब प्रारुप बना, तो रशीद जहां ने भी इस में अपनी एक कहानी ‘दिल्ली की सैर’ और एक एकांकी ‘पर्दे के पीछे’ शामिल करने की रज़ामंदी दे दी.

दिल्ली की सैर’ छोटी सी कहानी है. कहानी की मुख्य किरदार मलिका का अपने शौहर के साथ दिल्ली की सैर पर न जाने का एलान बग़ावत का छोटा सा इशारा है, हालांकि उस दौर के समाज में यह भी बड़ी बात थी. ‘पर्दे के पीछे’ में पितृसत्तात्मक सोच के ख़िलाफ़ वह और ज्यादा मुखर और आक्रामक हैं. दो महिला क़िरदारों ‘मोहम्मदी बेगम’ और ‘आफ़ताब बेगम’ के आपस के संवाद के जरिए उन्होंने जो कहा, वह उनकी हिम्मत साबित करने और अच्छे-अच्छों के होश उड़ा देने वाला था – ‘‘हर साल हमल, हर साल बच्चा, जोड़ों में दर्द, सूखी छाती, शरीर में थकावट और घर में दिन-रात बीमार बच्चों का कोहराम. लेकिन शौहर को उसका कच्चा गोश्त हर समय चाहिए. नहीं तो वह दूसरी शादी कर लेगा. बच्चा जनते-जनते जिस्म बाहर झुक गया है और डॉक्टरी कराई गई है कि मियां को नई बीबी का लुत्फ मिल सके.’’

कई आलोचक मानते हैं कि ‘अंगारे’ ही वह किताब थी, जिसने प्रगतिशील लेखक संघ का आधार तैयार किया. अंग्रेज़ी हुकूमत के किताब पर पाबंदी लगाने के बाद भी इसके चारों लेखक न तो झुके और न ही इसके लिए उन्होंने कोई माफ़ी मांगी. उलटे इन चारों लेखकों ने अपनी ओर से एक संयुक्त प्रेस वक्तव्य जारी किया, जो उस वक्त इलाहाबाद से निकलने वाले अंग्रेज़ी दैनिक ‘लीडर’ में छपा. वक्तव्य का मजमून इस तरह से था, ‘‘इस किताब के लेखक इस संबंध में किसी प्रकार की क्षमायाचना के इच्छुक नहीं हैं. वे इसे वक्त के सिपुर्द करते हैं. वे किताब के प्रकाशन के परिणामों से बिल्कुल भयभीत नहीं हैं और इसके प्रसार तथा इसी तरह की दूसरी कोशिशों के प्रसार का समर्थन करते हैं. वे कुल रूप में समूची मानवता और विशेष रूप से भारतीय अवाम के लिए महत्वपूर्ण उद्देश्यों के सिलसिले में, आलोचना की आज़ादी तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का खुला समर्थन करते हैं…किताब का या उसके लेखकों का जो भी हस्र हो, हमें यकीन है कि दूसरे लिखने वाले हिम्मत न हारेंगे. हमारा व्यावहारिक प्रस्ताव यह है कि फ़ौरी तौर पर ‘प्रोग्रेसिव राइटर्स लीग’ का गठन किया जाए. जो समय-समय पर इस तरह की रचनाएं अंग्रेज़ी व अन्य भाषाओं में प्रकाशित करे. हम उन तमाम लोगों से जो हमारे विचार से सहमत हों, अपील करते हैं कि वह हमसे राब्ता क़ायम करें और अहमद अली से ख़तो किताबत करें…’’

अपनी तमाम मसरूफियत के बाद भी वह लगातार लिखती रहीं. 1937 में उनका पहला कहानी संग्रह ‘औरत’ छपा. शुरूआती कहानियों कच्चापन ज़रूर नज़र आता है, कहीं-कहीं कोरी भावुकता और नारेबाजी दिखाई देती है, लेकिन जैसे-जैसे ज़िंदगी में नए तजुर्बे होते गए, विचारों में स्थायित्व आया और उनकी कहानी संवरने लगती हैं. बाद में उन्होंने ‘चोर’, ‘वह’, ‘आसिफजहां की बहू’, ‘इस्तखारा’, ‘छिद्दा की मां’, ‘इफ़तारी’, ‘मुजरिम कौन’, ‘मर्द-औरत’, ‘सिफ़र’, ‘ग़रीबों का भगवान’, ‘वह जल गई’, जैसी उम्दा कहानियां लिखीं. उनके अफ़सानों में एक भाव स्थायी है – वह है बग़ावत. बग़ावत – रूढ़ियों से, औरत-मर्द के बीच ग़ैर बराबरी से, सामंती मूल्यों से, अंग्रेज़ी हुकूमत के अत्याचार और शोषण से. रशीद जहां के अफ़साने हों या नाटक, दोनों के महिला क़िरदार काफी मुखर हैं. नाटक ‘औरत’ की नायिका अपने मौलवी शौहर से तेवर के साथ कहती है,‘‘ज़रा संभल कर मैं कहती हूं, बैठ जाओ, अगर अपनी इज़्ज़त की ख़ैर चाहते हो. अगर इस बार तुमने हाथ उठाया, तो मैं ज़िम्मेदार नहीं.’’

उर्दू के आलोचक क़मर रईस का रशीद जहां के अफ़सानों पर ख़्याल है,‘‘तरक्क़ीपसंद अदीबों में प्रेमचंद के बाद रशीद जहां तन्हा थीं, जिन्होंने उर्दू अफ़सानों में समाजी और इंक़लाबी हक़ीकत निगारी की रवायत को मुस्तहकम बनाने की सई की.’’ हाजरा बेग़म लिखती हैं, ‘‘रशीद जहां का कारनामा यह है कि उन्होंने अपनी चन्द कहानियों से अपने बाद लिखने वाली बीसियों लड़कियों और औरतों के दिमाग़ों को मुतास्सिर किया. इस्मत चुगताई, रजिया सज्जाद ज़हीर, सिद्दीका बेगम और न जाने कितनी मुसन्निफा थीं, जिन्होंने रशीद जहां के अफ़सानों, रशीद जहां की ज़िंन्दगी और मशहूरकुन शख़्सियत को मशाले-राह समझा और अपनी तहरीर से उर्दू अदब को नई बुलन्दियों पर पहुंचाया.’’

काग़ज़ी है पैरहन’ में इस्मत चुगताई लिखती हैं, ‘‘ग़ौर से अपनी कहानियों के बारे में सोचती हूं, तो मालूम होता है कि मैंने सिर्फ़ उनकी (रशीद जहां) बेबाक़ी और साफ़गोई को गिरफ़्त में लिया है. उनकी भरपूर समाजी शख़्सियत मेरे क़ाबू न आई. मुझे रोती-बिसूरती, हराम के बच्चे जनती, मातम करती हुई निस्वानियत से हमेशा नफ़रत थी. ख़ामख्वाह की वफ़ा और जुमला खूबियां जो मशरिकी औरतों का जेवर समझी जाती थीं, मुझे लानत महसूस होती है. जज्बातियत से मुझे हमेशा कोफ़्त रही है. इश्क में महबूब की जान को लागू हो जाना, ख़ुदकुशी करना और वावेला करना मेरे मजहब में जायज़ नहीं. यह सब मैंने रशीदा आपा से सीखा है. और मुझे यक़ीन है कि रशीदा आपा जैसी लड़कियां, सौ लड़कियों पर भारी पड़ सकती हैं.’’ चुगताई की यह बात सही भी है. रशीद जहां की बेमिसाल शख़्सियत का औरतों पर ही नहीं, बल्कि कई बड़े रचनाकारों पर भी गहऱा असर पड़ा. प्रेमचंद और यशपाल जैसे बड़े लेखक उनके मुरीद थे. आलोचकों का तो यहां तक मानना है कि प्रेमचंद के ‘गोदान’ में ‘मालती’ और यशपाल के ‘दादा कामरेड’ में ‘शैल’ का क़िरदार रशीद जहां की शख़्सियत से मेल खाता है.

उर्दू अदब में आज हमें जो स्त्री यथार्थ दिखलाई देता है, उसमें रशीद जहां का बड़ा योगदान शामिल है. डॉ. मुल्कराज आनंद से लेकर डॉ. क़मर रईस तक इसमें उनकी महत्वपूर्ण भूमिका मानते थे. प्रोफेसर नूरुल हसन ने रशीद जहां को पहली ऐसी मुस्लिम लेखिका कहा है,‘‘जिन्होंने पहली बार औरत और मजहब के सवाल पर बिना किसी झिझक के अपने ख़्याल बयां किए.’’ सच तो यह है कि रशीद जहां ने अपने अफ़सानों में सिर्फ़ औरत के हालात का ही तजकिरा नहीं किया, बल्कि सामंती और मजहबी बेड़ियों से आज़ादी की पुरज़ोर पैरवी की.

रशीद जहां ने कहानी, एकांकी और नाटक लिखने के अलावा पत्रकारिता भी की. प्रगतिशील लेखक संघ के अंग्रेजी मुख्य पत्र ‘द इंडियन लिट्रेचर’ और सियासी मासिक मैग्ज़ीन ‘चिंगारी’ के संपादन में उन्होंने न सिर्फ सहयोग किया, बल्कि इसमें रचनात्मक अवदान भी किया. किसानों, मजदूरों और कामगारों के अधिकारों के लिए सरकार से मुठभेड़ में वह पीछे नहीं रहतीं. 1948 में रेलवे यूनियन की एक ऐसी ही हड़ताल में शिरकत लेने की वजह से रशीद जहां गिरफ्तार हुईं. कैंसर की मरीज थीं, इसके बावजूद जेल में उन्होंने 16 दिन की लंबी भूख हड़ताल की. जहां कहीं भी नाइंसाफी या जुल्म होता, वह उसका विरोध करतीं. अपनी सेहत से बेपरवाह होकर उन्होंने लगातार काम किया. जिसका नतीजा यह निकला कि उनकी बीमारी और भी बढ़ गई. इस बार उन्हें इलाज के लिए सोवियत संघ भेजा गया. लेकिन 29 जुलाई, 1952 को बीमारी से जूझते हुए मास्को में उनका इंतिकाल हो गया.

तरक्क़ीपसंद तहरीक के लिए रशीद जहां और महमूदुज़्ज़फर का जिस तरह का समर्पण था, उसके बारे में ‘रौशनाई’ में सज्जाद ज़हीर लिखते हैं,‘‘उन दोनों ने अपनी ख़ुदी को भुलाकर इंसानियत को अपनी ज़िन्दगी का मकसद बना लिया था.’’ इस बात की गवाही यह है कि प्रगतिशील आंदोलन और सामाजिक कार्यों में अपनी मसरूफ़ियात के चलते बाद रशीद जहां ने न सिर्फ़ अपनी डॉक्टरी की नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया, बल्कि महमूदुज़्ज़फर के साथ शादी इस शर्त पर की कि वे बच्चे पैदा नहीं करेंगे, क्योंकि इससे उनके सामाजिक कामों में रुकावट आ सकती है.

(लेखक ख्यात स्वतंत्र पत्रकार हैं. प्रगतिशील आंदोलन और इसकी शख्सियतों पर उनकी किताबें शाया हो चुकी हैं. प्रलेस, म.प्र. से जुड़े प्रतिबद्ध साथी हैं.)  

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