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मंगलवार, 28 जुलाई 2020

यादों की बरात : जोश मलीहाबादी बा-कलम खुद

✍ ज़ाहिद खान

जोश मलीहाबादी का अदबी सरमाया जितना शानदार है, उतनी ही जानदार-ज़ोरदार उनकी ज़िंदगी थी. जोश साहब की ज़िंदगी में गर हमें दाखिल होना हो, तो सबसे बेहतर तरीका यही होगा कि हम उन्हीं की मार्फ़त उसे देखें-सुनें-जानें. जिस दिलचस्प अंदाज़ में उन्होंने ‘यादों की बरात’ में अपनी कहानी बयान की है, उस तरह का कहन देखने-सुनने को कम ही मिलता है. उर्दू में लिखी गई इस किताब का पहला एडिशन 1970 में आया था. तब से इसके कई एडिशन आ चुके हैं, लेकिन पाठकों की इसके जानिब मुहब्बत और बेताबी कम नहीं हुई है.

यादों की बरात’ की मक़बूलियत के मद्देनज़र, कई ज़बानों में इसके तजुर्मे हुए और हर ज़बान के पढ़ने वालों ने इसे पसंद किया. हिन्दी में भी सबसे पहले इसका अनुवाद हिन्दी-उर्दू ज़बान के मशहूर लेखक हंसराज रहबर ने किया. एक अरसे के बाद इसका एक और अनुवाद आया है. इस मर्तबा यह अनुवाद युवा लेखक-अनुवादक नाज़ ख़ान ने किया है. यों अनुवाद के बजाय इसे लिप्यंतरण कहें, तो ज्यादा बेहतर ! उर्दू ज़बान के लबो-लहज़े से ज़रा भी छेड़छाड़ न करते हुए उन्होंने ‘यादों की बरात’ का हिन्दी में जो तर्जुमा किया है, उसे पढ़कर उर्दू की लज़्ज़त आ जाती है. अच्छे अनुवाद की पहचान भी यही है कि मूल ज़बान का लहज़ा बरकरार रहे. वरना ‘मुताबिक’ को भी ‘अनुसार’ कर देने वाले अनुवादक पढ़ने वालों में खीझ ही पैदा करते हैं.

जोश मलीहाबादी ने यह किताब अपनी ज़िंदगी के आख़िरी वक़्त में लिखी थी. आज हम इस किताब के गद्य पर फ़िदा हैं, लेकिन शायर-ए-इंकलाब के लिए यह काम आसान नहीं था. ख़ुद किताब में उन्होंने यह बात तस्लीम की है कि अपने हालाते-ज़िंदगी क़लमबंद करने के सिलसिले में उन्हें छह बरस लगे और चौथे मसौदे में जाकर वे इसे मुकम्मल कर पाए. हांलाकि, चौथे मसौदे से भी वे पूरी तरह से मुतमईन नहीं थे. लेकिन जब किताब आई, तो उसने हंगामा कर दिया.

अपने बारे में इतनी ईमानदारी और साफ़गोई से शायद ही किसी ने इससे पहले लिखा हो. अपनी ज़िंदगी के बारे में वे पाठकों से कुछ छिपाते नहीं लगते. अपने इश्क के ब्योरे भी उन्होंने तफ़्सील से लिखे हैं. अलबत्ता ऐसे नामों का ख़ुलासा करने के वह ज़रूर बचते हैं, और तभी ये नाम उन्होंने ‘कोड वर्ड’ की तरह लिखे हैं – एस.एच., एन. जे., एम. बेगम, आर.कुमारी. 510 पन्नों की यह किताब पांच हिस्सों में बंटी हुई है. पहले हिस्से में जोश की ज़िंदगी के अहम वाक़ये शामिल हैं, तो दूसरे हिस्से में वे अपने ख़ानदान के बारे में बतलाते हैं.

किताब के सबसे दिलचस्प हिस्से वह हैं, जिनमें जोश अपने दोस्त, अपने दौर की अज़ीम हस्तियों और अपनी इश्कबाज़ियों का ख़ुलासा करते हैं. जिन दोस्तों, मसलन अबरार हसन खां ‘असर’ मलीहाबादी, मानी जायसी, ‘फ़ानी’ बदायूंनी, आग़ा शायर कजलबाश, वस्ल बिलगिरामी, कुंवर महेंन्द्र सिंह ‘बेदी’, जवाहरलाल नेहरू, सरोजिनी नायडू, सरदार दीवान सिंह ‘मफ्तूं’, ‘फिराक’ गोरखपुरी, ‘मजाज’ वगैरह का उन्होंने अपनी किताब में ज़िक्र किया है, ख़ुद की जात में वे मामूली हस्तियां नहीं हैं, लेकिन जिस अंदाज़ में जोश उन्हें याद करते हैं, वे कुछ और ख़ास हो जाते हैं. उनकी शख़्सियत और निखर जाती है. उन शख़्सियत को जानने-समझने के लिए दिल और भी तड़प उठता है.

किताब में सरोजनी नायडू का तआरुफ़ वह कुछ इस तरह से कराते हैं, ‘‘शायरी के ख़ुमार में मस्त, शायरों की हमदर्द, आज़ादी की दीवानी, लहज़े में मुहब्बत की शहनाई, बातों में अफ़सोस, मैदाने जंग में झांसी की रानी, अमन में आंख की ठंडक, आवाज़ में बला का जादू, गुफ़्तगू में मौसिक़ी, जैसे-मोतियों की बारिश, गोकुल के वन की मीठी बांसुरी और बुलबुले-हिन्दुस्तान, अगर यह दौर मर्दों में जवाहरलाल और औरतों में सरोजिनी की-सी हस्तियां न पैदा करता, तो पूरा हिन्दुस्तान बिना आंख का होकर रह जाता.’’ (पेज 367)

अक्सर यह सवाल पूछा जाता है कि जोश मलीहाबादी पाकिस्तान क्यों गए? और सिर्फ़ इस एक बिना पर कुछ अहमक उनकी वतनपरस्ती पर सवाल उठाने से भी बाज़ नहीं आते. वे पाकिस्तान क्यों गए? किताब के कुछ अध्याय ‘मुबारकबाद! कांटों का जंगल फिर’, ‘जाना, शाहजादा गुलफ़ाम का, चौथी तरफ और घिर जाना उसका आसेबों के घेरे में’, में जोश मलीहाबादी ने इस सवाल का तफ़्सील से जवाब दिया है. उनके क़रीबी दोस्त सैयद अबू तालिब साहब नकवी चाहते थे कि वे हिन्दुस्तान छोड़कर पाकिस्तान आ जाएं. जब भी जोश मुशायरा पढ़ने पाकिस्तान जाते, वे उनसे इस बात का इसरार करते. आख़िरकार उन्होंने जोश मलीहाबादी के दिल में यह बात बैठा ही दी कि हिन्दुस्तान में उनके बच्चों और उर्दू ज़बान का कोई मुस्तक़बिल नहीं है.

अपनी इस उलझन को लेकर वे मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के पास पहुंचे और इस बाबत उनसे राय मांगी. तो उनका जवाब था,‘‘नकवी ने यह सही कहा है कि नेहरू के बाद आपका यहां कोई पूछने वाला नहीं रहेगा. आप तो आप, ख़ुद मुझे कोई नहीं पूछेगा.’’ (पेज-196) फिर भी उन्होंने उनसे पंडित नेहरू से मिलकर अपना आख़िरी फ़ैसला लेने की बात की. नेहरू ने जब जोश की पूरी बात सुनी, तो वे बेहद दुःखी हुए और उन्होंने उनसे इस मसले पर सोचने के लिए दो दिन की मोहलत मांगी.

दो दिन के बाद जोश जब उनके पास पहुंचे, तो उन्होंने कहा,‘‘जोश साहब, मैंने आपके मामले का एक ऐसा अच्छा हल निकाल लिया है, जिसे आप भी पसंद करेंगे. क्यों साहब, यही बात है न कि आप अपने बच्चों की माली हालात व तहजीबी भविष्य को संवारने और उर्दू ज़बान की ख़िदमत करने के वास्ते पाकिस्तान जाना चाहते हैं?’’ मैंने कहा, ‘‘जी हां, इसके सिवा और कोई बात नहीं हैं.’’ उन्होंने कहा, ‘‘तो फिर आप ऐसा करें कि अपने बच्चों को पाकिस्तानी बना दें, लेकिन आप यहीं रहें और हर साल पूरे चार महीने आप पाकिस्तान में ठहर कर उर्दू की ख़िदमत कर आया करें. सरकारे-हिन्द आपको पूरी तनख़्वाह पर हर साल चार महीने की रुखसत दे दिया करेगी.’’ (पेज-196)

नेहरू का दिल बड़ा था, और वह अपने दोस्त और मुल्क के महबूब शायर को किसी क़ीमत पर खोना नहीं चाहते थे. लेकिन पाकिस्तान के हुक़्मरानों और वहां उनके चाहने वालों को यह बात बिल्कुल पसंद नहीं आई और उन्होंने जोश से एक मुल्क चुनने को कहा. और इस तरह से 1955 में जोश मलीहाबादी मजबूरी में पाकिस्तानी हो गए. जोश मलीहाबादी पाकिस्तान जरूर चले गए, मगर इस बात का पछतावा उन्हें ताउम्र रहा. जिस सुनहरे मुस्तक़बिल के वास्ते उन्होंने हिन्दुस्तान छोड़ा था, वह ख़्वाब चंद दिनों में ही टूट गया. उन्होंने पाकिस्तान में जिस पर भी एतबार किया, उससे उन्हें धोखा मिला. और उर्दू की जो हालत पाकिस्तान में है, वह भी सबको मालूम है.

लेकिन पाकिस्तान जाने का फ़ैसला ख़ुद जोश मलीहाबादी का था, लिहाज़ा वह ख़ामोश रहे. वहां घुट-घुट के जिये. पाकिस्तान में रहकर भी हिन्दुस्तान की मुहब्बत में डूबे रहे. चाहकर भी अपने पैदाइशी मुल्क़ को वह कभी नहीं भुला पाए. उनकी बाक़ी ज़िंदगी पाकिस्तान में निराशा और गुमनामी के हाल में बीती. ‘मेरे दौर की चंद अजीब हस्तियां’ किताब में जोश मलीबादी ने उन लोगों पर अपनी क़लम चलाई है, जो अपनी अजीबो-ग़रीब हरकतों और न भुलाई जाने वाली बातों की वजह से उन्हें ताउम्र याद रहे और जब वह क़लम लेकर बैठे, तो उनको पूरी शिद्दत और मज़ेदार ढंग से याद किया. जोश ने किसी क़िस्सागो की तरह इन हस्तियों का ख़ाका इस तरह खींचा है कि तस्वीरें आंखों के सामने तैरने लगती हैं. जैसे विलक्षण क़िरदार, वैसा ही उनका वर्णन. कई क़िरदार तो ऐसे हैं कि पढ़ने के बाद भी यक़ीन नहीं होता कि हाड़-मांस के ऐसे भी इंसान थे, जो अपनी ज़िद और अना के लिए क्या-क्या हरकतें नहीं करते थे!

‘यादों की बरात’ की ताक़त इसकी ज़बान है, जो कहीं-कहीं इतनी शायराना हो जाती है कि शायरी और नज़्म का ही मज़ा देती है. मिसाल के तौर पर सर्दी के मौसम की अक्कासी वे कुछ इस तरह से करते हैं, ‘‘आया मेरा कंवार, जाड़े का द्वार. अहा ! जाड़ा-चंपई, शरबती, गुलाबी जाड़ा-कुंदन-सी दमकती अंगीठियों का गुलज़ार, लचके-पट्टे की रज़ाइयों में लिपटा हुआ दिलदार, दिल का सुरूर, आंखों का नूर, धुंधलके का राग, ढलती शाम का सुहाग, जुलेखा का ख़्वाब, युसुफ का शबाब, मुस्लिम का क़ुरान, हिन्दू की गीता और सुबह को सोने का जाल, रात को चांदनी का थाल.’’ (पेज -49)

यह तो एक बानगी भर है, वरना पूरी किताब इस तरह के लाजवाब जुमलों से भरी पड़ी है. किताब पढ़ते हुए कभी दिल मस्ती से झूम उठता है, तो कभी लबों पर आहिस्ता से मुस्कान आ जाती है. ‘यादों की बरात’ को पढ़ते हुए, यह एहसास होता है कि जैसे हम भी जोश मलीहाबादी के साथ इस बरात में शरीक हो गए हों. हिन्दोस्तान के उस गुज़रे दौर, जब मुल्क़ की आज़ादी की जद्दोजहद अपने चरम पर थी, तमाम हिन्दुस्तानी कद्रें जब अपने पूरे शबाब पर थीं, इन सब बातों को अच्छी तरह से जानने-समझने के लिए, इस किताब को पढ़ने से उम्दा कुछ नहीं हो सकता.

रविवार, 19 जुलाई 2020

स्वास्थ्य का मुद्दा अस्पतालों और डॉक्टरों का ही नहीं, राजनीति का मुद्दा है


कोविड 19 के सन्दर्भ में स्वास्थ्य सेवाओं के राष्ट्रीयकरण पर हुई वेबिनार 

           - राहुल भाईजी 

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की मध्यप्रदेश इकाई द्वारा "भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के राष्ट्रीयकरण" विषय पर एक वेबिनार का आयोजन किया गया। वेबिनार का संयोजन जोशी अधिकारी इंस्टीट्यूट आफ सोशल स्टडीज द्वारा किया गया। वेबिनार में डॉ अभय शुक्ला (पुणे) राष्ट्रीय सहसंयोजक, जन स्वास्थ्य अभियान, ने अपनी बात रखते हुए कहा कि वर्ष 1986-87 में भारत की सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं निजी क्षेत्र की तुलना में ज्यादा थी, और 1000 मरीज में 400 मरीज ही  निजी स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ लेते थे। तब से 2020 तक स्थितियां बिल्कुल विपरीत हो गई हैं।  अब बमुश्किल 40 फ़ीसदी  लोग सार्वजानिक स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठाते हैं और शेष 60 फ़ीसदी को निजी क्षेत्र के अस्पतालों की शरण लेना पड़ती है। डॉ. अभय शुक्ल ने कहा कि  स्वास्थ्य पर खर्च के मामले में भारत दुनिया के कई मुल्कों के मुक़ाबले में सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया है। भारत में प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर शासन द्वारा खर्च 19 अमेरिकी डॉलर  प्रति वर्ष किया जाता है जो फिलीपींस,  इंडोनेशिया और अफ्रीका जैसे देशों की तुलना में 3 से 4 गुना कम है, वहीं दूसरी ओर समाजवादी देश क्यूबा प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष  883 अमेरिकी डॉलर का खर्च अपने नागरिकों के स्वास्थ्य पर करके सबसे ऊंचे स्तर पर है। वर्ष 2019-20 में भारत में रूपये 1765 प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर औसतन खर्च किया जा रहा था, यानि मात्र रूपये 3.50 प्रति व्यक्ति प्रतिदिन का खर्च। उन्होंने कहा कि सरकार ने जैसे-जैसे सरकारी स्वास्थ्य खर्चों में कटौती करने के साथ ही स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण को नीतिगत बढ़ावा दिया। देश के कुछ राज्य तो  सिर्फ निजी स्वास्थ्य सेवाओं के हवाले कर दिए गए हैं। जिसके चलते सामान्य स्वास्थ्य सेवाएं खुले बाजार की व्यवस्था में लूट का माध्यम बन गई हैं। स्वास्थ्य सेवाओं पर बढ़ गए लोगों के निजी खर्च का नतीजा ये हुआ है कि देश में प्रतिवर्ष लगभग 5.5 करोड़ लोग गरीबी की खाई में गिरते जा रहे हैं।  वर्ष 2005 से 2015 के बीच निजी स्वास्थ्य सेवाओं का व्यापार औसतन तीन गुना बड़ गया। देश के शीर्ष 78 डॉक्टर्स ने एक सर्वे में बताया कि मुनाफाखोरी की चाहत ने निजी संस्थाओं को गैर तार्किक और अनुचित तरीके अपनाने की छूट भी ली जिससे निजी क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवाएं बेहद मॅहगी हुई हैं। बहुराष्ट्रीय पूंजी भी इस क्षेत्र में अपनी भागीदारी बड़ाकर देश की जनता को लूटने तेजी से पांव पसार रही हैं। इस तरह सामान्य स्वास्थ्य सेवाएं सरकार द्वारा कारपोरेट घरानों को सौंप दी गईं और चुनी हुई लोकतान्त्रिक सरकारों ने ही देश की जनता को लुटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र को दवा, उपकरण और स्वास्थ्य बीमा के माध्यम से देशवासियों को दोनों हाथों से लूटने की आजादी दे दी गई। हाल ही के कोविड महामारी के रोगियों से बड़ी निजी अस्पतालों द्वारा प्रतिदिन का  रुपये 1 लाख  से 4-5  लाख तक का खर्च वसूला जा रहा है। देश के लगभग सभी प्रदेशों में जिला और विकासखंड स्तर पर मौजूद अस्पताल संसाधन विहीन हैं, पर्याप्त स्टाफ, डॉक्टर्स नहीं हैं, जिससे कोरोना से मरने वालों की संख्या बढ़ रही है। सरकार को निजी क्षेत्रों के अस्पतालों में इलाज की कीमतों पर नियंत्रण के लिए सही तरीका इस्तेमाल करना चाहिए ताकि सभी को जीने के अधिकार से वंचित न किया जा सके। साथ ही सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को सुविधा  युक्त बनाने प्रति व्यक्ति का खर्च बढ़ाने चाहिए तो कोरोना महामारी से लड़ा जाना संभव होगा। ताकि उनकी रोजमर्रा की आम स्वास्थ्य से जुड़ी जरूरत पूरी हो सके। इसे मैं राष्ट्रीयकारन नहीं बल्कि सामाजिकीकरण कहना चाहूँगा। 

इंडियन डॉक्टर फॉर पीस एंड डेमोक्रेसी (आइडीपीडी) के वरिष्ठ उपाध्यक्ष डॉक्टर अरुण मित्रा (लुधियाना) ने कहा कि स्वास्थ्य और शिक्षा हमारा संवैधानिक अधिकार है जिसे देश प्रत्येक देशवासी को सहजता से उपलब्ध होना चाहिए। देश की सरकार ने आवश्यक स्वास्थ्य सुविधाएं, जन स्वास्थ्य विभाग बनाने के बजाय मुनाफा कमाने वाली कंपनियों को खुली छूट दे रही हैं। सरकार को देश में विकेन्द्रित स्वास्थ्य सेवाएँ सहज रूप से उपलब्ध कराना चाहिए एवं साथ ही निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवाओं का राष्ट्रीयकरण बेहद आवश्यक हो गया है। जैसा कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था जो आज भी देश की अर्थव्यवस्था के लिए जीवनदायिनी बनकर उभरे हैं, उतना ही महत्वपूर्ण देश के नागरिकों का स्वास्थ्य है। समय की आवश्यकता है कि सभी निजी स्वास्थ्य सेवाओं का राष्ट्रीयकरण हो। उन्होंने बताया कि किस तरह उनके संगठन द्वारा राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं का मुआयना करते हुए पाया गया कि सरकारी नीतियों की खामी के चलते निजी अस्पतालों में एक बहुत बड़े तबके के इलाज ना कर पाने से  उन्हें मौत का सामना करना पड़ता है। देश के राजनीतिक दलों द्वारा स्वास्थ्य एवं शिक्षा  पर कोई ध्यान ना देने से देश की शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं चरमरा गई है। वेबीनार को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा आयोजित किये जाने पर उन्होंने खुशी जाहिर की और कहा कि यह बहुत अच्छी बात है कि किसी राजनीतिक दल ने स्वाथ्य सेवाओं को राजनीतिक मुद्दे की तरह देखा है।  स्वास्थ्य सेवाएँ कैसी हों, यह एक राजनीतिक सवाल है और जैसी राजनीती देश पर शासन करेगी, वैसा ही हाल स्वास्थ्य सेवाओं का होगा। उन्होंने यह भी कहा कि स्वास्थ्य का सवाल केवल अस्पतालों और डॉक्टरों से जुड़ा हुआ नहीं है. इसमें बड़ी भूमिका दवा कंपनियों की भी है।  आपको हैरत होगी कि उदारीकरण के दौर में सरकारी क्षेत्र की दवा निर्माण करने वाली कम्पनियाँ बंद कर दी गईं। स्वास्थ्य का सवाल बुनियादी रूप से साफ़ पानी मुहैया करने, उचित सीवेरज व्यवस्था उपलब्ध कराने और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने से जुड़ा है।  हमें समाज ऐसा बनाना चाहिए जहाँ लोग ावाल तो बीमार पड़ें ही नहीं और अगर किसी वजह से कोई बीमार पड़े तो उसे ये फ़िक्र न हो कि पैसे कहाँ से आएंगे या डॉक्टर सही इलाज कर रहा है या लूट रहा है। इसके लिए हम सरकार से आइडीपीडी की ओर से राष्ट्रीय स्वास्थ्य आयोग बनाने की मांग करते आ रहे हैं। 

डॉक्टर माया वालेचा गुजरात  के भरूच में एक सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यकर्ता हैं और समाज के गिरते मानवीय मूल्यों और सामाजिक संबंधों को बेहतर बनाने के लिए काम कर रही है। वेबिनार में अपना वक्तव्य रखते हुए उन्होंने कहा कि आज देश की जो स्थिति है उसके पीछे एक वजह राजनीतिक दलों की राजनीतिक इच्छाशक्ति का बेहद कमजोर होना भी है। कोविड महामारी में देश की गरीब जनता, मेहनत करने वाले श्रमिक केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा उपेक्षित हुए हैं। प्रवासी मजदूरों को हजारों किलोमीटर पैदल चलना पड़ा, परंतु रास्ते में स्वास्थ्य केंद्रों के अभाव के चलते कईयों को अपनी जान गवाना पड़ी, जिनमें महिलाओं की दुर्गति किसी से छिपी नहीं है। नीति निर्माताओं ने ऐसे हालात में निजी स्वास्थ्य सेवाओं की कोई जवाबदारी तय नहीं की। देश की बहुमत आबादी को सरकार द्वारा प्रदत्त स्वास्थ्य सेवाओं का कोई लाभ नहीं मिल पा रहा है। कोरोना से बचाव कराने वाले स्वास्थ्य कर्मी, स्वयं की सुरक्षा सामग्री के अभाव में काम करने को मजबूर किए गए। सफाईकर्मियों को जान जोखिम में डालकर काम करने को मजबूर किया गया, स्वास्थ्य कर्मियों को समय पर उनकी तनख्वाह नहीं मिल पाई जिसके चलते कोरोना मरीज उपेक्षा का शिकार होते रहे, परंतु सरकार उनकी समस्याओं की अनदेखी करती रही है। वे कहती हैं कि देश में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति भयावह है। जिसे एक चेतनशील राजनीति समाधान से बेहतर किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोविड-19 को अपने व्यापारिक उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करने में बिल गेट्स और मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन, जो दुनिया में वैक्सीन के क्षेत्र में काम करने वाला सबसे बड़ा कॉर्पोरेट है, कोविड की वैक्सीन बनाकर मुनाफे की होड़ में हैं। स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का राष्ट्रीयकरण किये बिना, या जिसे सामाजिकीकरण भी कहा जा सकता है, इन सेवाओं को उन्नत नहीं किया जा सकता लेकिन साथ ही राजनीतिक हल की भी बेहद आवश्यकता है। 

कार्यक्रम के संयोजक विनीत तिवारी ने कहा कि बेशक स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे सवाल राजनीतिक सवाल हैं इसीलिए हम देख सकते हैं कि जहाँ भी सरकारें जनता के लिए फिक्रमंद हैं, वहाँ कोविड 19 का कहर कम टूटा है।  क्यूबा और वेनेज़ुएला जैसे देशों की स्वास्थ्य सुविधाएँ दुनिया में श्रेष्ठ मानी जाती हैं। उन्होंने यह भी कहा कि बिल गेट्स और मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन जब अपने बनाये वैक्सीन का प्रयोग करेगी तब भी गरीब एशियाई और अफ़्रीकी देशों की जनता को ही उनके कहर का शिकार होना पड़ेगा। उन्होंने यह कहा कि  भारत और अमेरिका में एक स्वास्थ्य सम्बन्धी आपदा का इस्तेमाल अपनी राजनीतिक स्थित्ति को मजबूत करने और आपदा का डर दिखाकर लोगों से विरोध और प्रतिरोध के सभी तरीकों को छीन ेने में किया जा रहा है।  वरवर राव के सन्दर्भ से उन्होंने कोविड 19 की आड़ में सर्कार द्वारा किये जा रहे राजनीतिक दमन को रेखांकित किया और कहा कि राजनीतिक दलों को अनेक मोरचीन पर लड़ना होगा।  सभी वक्ताओं का आभार मानते हुए कहा कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी शिक्षा एवं स्वास्थ्य के सवालों पर सही मायनों में एक ऐसा राजनीतिक दल है जो शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के खिलाफ शुरू से ही रहा है और अपना विरोध दर्ज कराया है। यही वजह है कि आज इस वेबिनार का आयोजन किया गया। मप्र इकाई के पार्टी राज्य सचिव कामरेड अरविंद श्रीवास्तव ने स्वास्थ्य सेवाओं का संज्ञान लेते हुए वक्ताओं के प्रभावशाली  वक्तव्य और प्रस्तुति के लिए धन्यवाद दिया और कहा कि स्वास्थ्य सेवाओं के राष्ट्रीयकरण के मसले पर  प्रदेश के अन्य संगठनों से बात करने के बाद आंदोलनात्मक कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे और स्वास्थ्यकर्मियों को संगठित करके प्रदेश ही नही बल्कि देश की जनता के सामने इस लड़ाई को मजबूत करने का आव्हान किया जाएगा।
वेबिनार हिंदी में था अतः मध्य प्रदेश के साथ ही दिल्ली, गुजरात, बंगाल, पंजाब एवं अन्य हिंदीभाषी राज्यों के उत्सुक और रुचिवान लोग शरीक हुए और सवाल जवाब का दौर भी हुआ। 
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गुरुवार, 16 जुलाई 2020

निर्देशक एमएस सथ्यू और उनकी ऑल टाइम ग्रेट फिल्म ‘गर्म हवा’

-जाहिद खान

हिन्दी सिनेमा में बहुत कम ऐसे निर्देशक रहे हैं, जिन्होंने अपनी
सिर्फ एक फिल्म से फिल्मी दुनिया में ऐसी गहरी छाप छोड़ी कि आज भी उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती। निर्देशक मैसूर श्रीनिवास सथ्यू यानी एमएस सथ्यू ऐसा ही एक नाम और साल 1973 में आई उनकी फिल्म ‘गर्म हवा’, ऐसी ही एक कभी न भूलने वाली फिल्म है। एमएस सथ्यू की इकलौती यही फिल्म, उनको भारतीय सिनेमा में बड़े फिल्मकारों की कतार में खड़ा करती है। ‘गर्म हवा’ को रिलीज हुए, आधी सदी होने को आई, मगर यह फिल्म आज भी अपने विषय और संवादों की वजह से हमारे मन को उद्वेलित, आंदोलित करती है। मुल्क के अंदर आजादी के शुरुआती सालों में हिंदोस्तानी मुसलमानों की जो मनःस्थिति थी, वह इस फिल्म में बखूबी उभरकर सामने आई है। फिल्म न सिर्फ मुसलमानों के मन के अंदर झांकती है, बल्कि बंटवारे से हिंदोस्तानी समाज के बुनियादी ढांचे में जो बदलाव आए, उसकी भी सम्यक पड़ताल करती है। निर्देशक एमएस सथ्यू ने बड़े ही हुनरमंदी और बारीकता से उस दौर के पूरे परिवेश को फिल्माया है। ‘गर्म हवा’, एमएस सथ्यू की पहली हिन्दी फिल्म थी। इससे पहले उन्होंने फिल्म निर्माता-निर्देशक चेतन आनंद के सहायक निर्देशक के तौर पर फिल्म हकीकत में काम किया था। इस फिल्म के वे कला निर्देशक भी थे। जिसके लिए साल 1964 में उन्हें ‘फिल्मफेयर’ पुरस्कार का तमगा मिला।
रंगमंच और सिनेमा में एनिमेशन आर्टिस्ट, असिस्टेंट डायरेक्टर (चेतन आनंद), निर्देशन (फिल्म और नाटक), मेकअप आर्टिस्ट, आर्ट डायरेक्टर, प्ले डिजाइनर, लाइट डिजाइनर, लिरिक्स एक्सपर्ट, इप्टा के प्रमुख संरक्षक, स्क्रिप्ट राइटर, निर्माता जैसी अनेक भूमिकाएं एक साथ निभाने वाले एमएस सथ्यू की पैदाइश देश के दक्षिणी प्रदेश कर्नाटक के मैसूर की है। एक कट्टरपंथी ब्राह्मण परिवार में 6 जुलाई, 1930 को जन्मे एमएस सथ्यू को उनके परिवार वाले वैज्ञानिक बनाना चाहते थे, लेकिन सथ्यू ने अपने पिता की मर्ज़ी के खिलाफ़ बीए की पढ़ाई पूरी की और उसके बाद बाद सिनेमा और थियेटर में अपने भविष्य की तलाश में मुंबई रवाना हो गए। मुंबई रवाना होने से पहले उन्होंने तीन साल कथकली डांस सीखा। कुछ जगह इसका परफॉर्म भी किया। मशहूर नृत्य निर्देशक उदय शंकर की फिल्म ’कल्पना’ में काम किया। जो मुल्क की पहली बैले फ़िल्म थी, लेकिन उन्हें आत्म संतुष्टि नहीं मिली। यही वजह थी कि वे सपनों की नगरी मुंबई पहुंचे। बहरहाल काम की तलाश में छह महीने तक इधर-उधर भटकते रहे। फिर उनकी मुलाकात ख्वाजा अहमद अब्बास और हबीब तनवीर से हुई। भारतीय जन नाट्य संघ यानी ‘इप्टा’ उस वक्त मुल्क में उरूज पर था, सथ्यू भी इससे जुड़ गए। हिंदी-उर्दू जबानों पर उनका अधिकार नहीं था, लिहाजा उन्होंने पर्दे के पीछे काम करने का रास्ता चुना। इप्टा के उस सुनहरे दौर में उन्होंने उसके लिए कई अच्छे नाटकों का निर्देशन किया। जिनमे ‘आखिरी शमा’, ‘रोशोमन’, ‘बकरी’, ‘गिरिजा के सपने’, ‘मोटेराम का सत्याग्रह’ और ‘सफ़ेद कुंडली’ के नाम शामिल हैं। ‘इप्टा’ से एमएस सथ्यू को ना सिर्फ एक वैचारिक चेतना मिली, बल्कि आगे चलकर उनकी जो अखिल भारतीय पहचान बनी, उसमें भी इप्टा का अहम योगदान है।
  इप्टा के अलावा एमएस सथ्यू ने हिंदुस्तानी थिएटर, नाट्य निर्देशक हबीब तनवीर के ओखला रंगमंच, कन्नड़ भारती और दिल्ली के अन्य समूहों की प्रस्तुतियों के लिए थिएटर में सेट डिजाइन करने समेत एक डिजाइनर और निर्देशक के तौर पर भी काम किया। हिंदी, उर्दू और कन्नड़ में 15 से अधिक वृत्तचित्र और 8 फीचर फिल्मों के अलावा उन्होंने कई विज्ञापन फिल्में भी कीं। गरम हवा, चिथेगू चिंथे, कन्नेश्वरा रामा, बाढ़, सूखा, ग़ालिब, कोट्टा, इज्जोडू एमएस सथ्यू द्वारा निर्देशित फीचर फिल्में हैं। लेकिन उन्हें पहचान ‘गर्म हवा’ से ही मिली। फिल्म बनने का किस्सा भी अजब है, जो उन्हीं की जबानी ‘‘मैं ’कहां कहां से गुज़र गया’ की स्क्रिप्ट लेकर फिल्म फाइनेंस कारपोरेशन से लोन लेने गया। मगर चेयरमैन बीके करंजिया ने कहा कि हीरो निगेटिव है। उसके बाद अफसानानिगार राजिंदर सिंह बेदी, इस्मत चुगताई आदि दोस्तों से बात हुई। नतीजा, ’गर्म हवा’ की स्क्रिप्ट बनी और करंजिया साहब ने उसे पसंद कर ली।’’ इस तरह फिल्म ‘गर्म हवा’ के बनने की शुरूआत हुई। मौजूदा पीढ़ी को यह सुनकर तआज्जुब होगा कि ‘फिल्म फाइनेंस कॉर्पोरेशन’ ने इस फिल्म को बनाने के लिए एमएस सथ्यू को सिर्फ ढाई लाख रुपए दिए थे। दोस्तों से कुछ और पैसों का इंतजाम कर, उन्होंने जैसे-तैसे फिल्म पूरी की। फिल्म की ज्यादातर शूटिंग रीयल लोकेशन यानी आगरा और फतेहपुर सीकरी में की गई। ताकि फिल्म बनाने में कम खर्च हो। फिल्म के ज्यादातर कलाकार रंगमंच से जुड़े हुए थे, लिहाजा फिल्म में रीटेक तो कम हुए ही, पूरी फिल्म में कम से कम सोलह ऐसे सीन हैं, जिनमें एक भी कट नहीं है। यह सुनकर भी लोग शायद ही यकीन करें कि फिल्म महज 42 दिन में बन कर तैयार हो गई थी।
फिल्म पूरी हो गई, तो सेंसर से लेकर रिलीज तक के लिए संकट आन खड़ा हुआ। सेंसर बोर्ड ने इसे पास करने से यह कहकर इंकार कर दिया कि फिल्म की रिलीज से मुल्क में सांप्रदायिक तनाव बढ़ सकता है। ‘सेंसर बोर्ड’ से फिल्म पास नहीं हुई, तो एमएस सथ्यू ने उस वक्त की प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी से संपर्क किया। सथ्यू ने राजीव गांधी और संजय गांधी को ‘क्राफ्ट’ पढ़ाया था। लिहाजा उनसे उनके पारिवारिक संबंध थे। एक इंटरव्यू में खुद एमएस सथ्यू ने इस पूरे वाकये को कुछ इस अंदाज में बयां किया है, ‘‘उनकी सूचना पर इंदिराजी ने फिल्म देखने की इच्छा व्यक्त की। जिसे तमाम झंझटों के बावजूद उन्होंने दिल्ली ले जाकर दिखाया। इंदिराजी के अनुरोध पर सत्ता व विपक्ष के सांसदों को भी दिखाया और इस तरह सूचना-प्रसारण मंत्री इंद्र कुमार गुजराल के कहने पर सेंसर सर्टिफिकेट तो मिल गया, लेकिन बाल ठाकरे ने अड़ंगा खड़ा कर दिया। अतः प्रीमियर स्थल ‘रीगल थियेटर’ के सामने स्थित ‘पृथ्वी थियेटर’ में शिव सेना वालों को भी फिल्म शो दिखाया गया, जिससे वे सहमत हो सके।’’ बावजूद इसके फिल्म ‘गर्म हवा’ के लिए अभी और भी आजमाईशें बाकी थीं। अब छोटे बजट की इस फिल्म में, जिसमें कोई बड़ा सितारा मौजूद नहीं था, इसकी रिलीज के लिए कोई फिल्म वितरक तैयार नहीं हुआ। सथ्यू ने बेंगलुरु के एक फिल्म वितरक से संपर्क किया। जिसने इसे सबसे पहले बेंगलुरु में साल 1974 में रिलीज किया। फिल्म की तारीफ सुनकर, बाद में दूसरे हिंदी फिल्म वितरकों ने भी इसे अपने-अपने क्षेत्रों में रिलीज किया।
‘गर्म हवा’ ने बॉक्स ऑफिस पर तो कोई कमाल नहीं दिखाया, लेकिन फिल्म क्रिटिक द्वारा यह फिल्म खूब पसंद की गई। साल 1974 में फ्रांस के मशहूर ‘कांस फिल्म फेस्टिवल’ में गोल्डन पॉम के लिए इस फिल्म का नॉमिनेशन हुआ। भारत की ओर से यह फिल्म ‘ऑस्कर’ के लिए भी नामित हुई। राष्ट्रीय एकता-अखंडता के लिए इसे सर्वोत्तम फीचर फिल्म का ‘नरगिस दत्त राष्ट्रीय पुरस्कार’ मिला। यही नहीं फिल्म को तीन ‘फिल्म फेयर अवार्ड्स’ भी मिले। जिसमें बेस्ट डायलॉग कैफी आज़मी, बेस्ट स्क्रीन प्ले अवार्ड शमा ज़ैदी व कैफी आज़मी और बेस्ट स्टोरी अवार्ड इस्मत चुगताई की झोली में गए। इसी फिल्म के बाद एमएस सथ्यू को साल 1975 में भारत सरकार ने ‘पद्मश्री’ सम्मान से भी सम्मानित किया। साल 1994 में रंगमंच और कला के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए ‘संगीत नाटक अकादमी अवार्ड’ से नवाजा गया। साल 2005 में ‘इंडिया टाईम्स मूवीज’ ने जब बॉलीवुड की सर्वकालिक बेहतरीन 25 फिल्में चुनी, तो उसमें उन्होंने ‘गर्म हवा’ को भी रखा। एक अकेली फिल्म से इतना सब कुछ हासिल हो जाना, कोई छोटी बात नहीं। वह भी जब यह निर्देशक की पहली ही फिल्म हो। एमएस सथ्यू ने ‘गर्म हवा’ के बाद और भी कई फिल्में बनाईं, लेकिन उन फिल्मों को वह शोहरत और चर्चा नहीं मिली, जो ‘गर्म हवा’ को हासिल हुई थी। सिर्फ साल 1984 में आई उनकी फिल्म ‘सूखा’ थोड़ा-बहुत चर्चा में रही। जिसे श्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार और बेस्ट फिल्म का ‘फिल्म फेयर क्रिटिक्स अवार्ड’ हासिल हुआ।
अब बात भारतीय सिनेमा की क्लासिक फिल्म ‘गर्म हवा’ की। फिल्म में ऐसा क्या है ?, जो इसे सर्वकालिक महान फिल्मों की श्रेणी में रखा जाता है। खुद एमएस सथ्यू की नजर में ‘‘फिल्म की सादगी और पटकथा ही उसकी खासियत है।’’ जिन लोगों ने यह फिल्म देखी है, वे जानते हैं कि उनकी यह बात सौ फीसद सही भी है। साल 1947 में हमें आजादी देश के बंटवारे के रूप में मिली। देश हिंदुस्तान और पाकिस्तान दो हिस्सों में बंट गया। बड़े पैमाने पर लोगों का एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में पलायन हुआ। हिंदोस्तानी मुसलमानों के सामने बंटवारे के बाद, जो सबसे बड़ा संकट पेश आया, वह उनकी पहचान को लेकर था। आजाद हिंदोस्तान में उनकी पहचान क्या होगी ? गोया कि यह वही सवाल था, जो आजादी से पहले भी उनके दिमाग को मथ रहा था। भारत के बंटवारे के बाद जिन मुसलमानों ने पाकिस्तान की बजाय हिंदोस्तान को अपना मुल्क चुना और यहीं रहने का फैसला किया, उन्हें ही इसकी सबसे ज्यादा कीमत चुकानी पड़ी। देखते ही देखते वे अपने मुल्क में पराए हो गए। मानो बंटवारे के कसूरवार, सिर्फ वे ही हों। आजादी को मिले सात दशक से ज्यादा गुजर गए, मगर हिंदोस्तानी मुसलमान आज भी कमोबेश उन्हीं सवालों से दो-चार है। पहचान का संकट और पराएपन का दंश आज भी उनके पूरे अस्तित्व को झिंझोड़ कर रख देता है। यही वजह है कि ‘गर्म हवा’ आज भी अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए है। फिल्म जब रिलीज हुई, तब तो इसकी प्रासंगिकता थी ही, मौजूदा हालात में इसकी और भी ज्यादा प्रासंगिकता बढ़ गई है। फिल्म का शीर्षक ‘गर्म हवा’ एक रुपक है, साम्प्रदायिकता का रुपक ! यह साम्प्रदायिकता की गर्म हवा आज भी हमारे मुल्क पर फन फैलाए बैठी है। यह गर्म हवा जहां-जहां चलती है, वहां-वहां हरे-भरे पेड़ों को झुलसा कर रख देती है। फिल्म के एक सीन में सलीम मिर्जा और तांगेवाले के बीच का अर्थवान संवाद है,‘‘कैसे हरे भरे दरख्त कट जा रहे हैं, इस गर्म हवा में।’’
‘‘जो उखड़ा नहीं, वह सूख जाएगा।’’ एक तरफ ये गर्म हवा फिजा को जहरीला बनाए हुए है, तो दूसरी ओर सलीम मिर्जा जैसे लोग भी हैं, जो भले ही खड़े-खड़े सूख जाएं, मगर उखड़ने को तैयार नहीं। कट जाएंगे, मगर झुकने को तैयार नहीं।
फिल्म ‘गर्म हवा’ की शुरुआत रेलवे स्टेशन से होती है, जहां फिल्म का हीरो सलीम मिर्जा अपनी बड़ी आपा को छोड़ने आया है। एक-एक कर उसके सभी रिश्तेदार, हमेशा के लिए पाकिस्तान जा रहे हैं। सलीम मिर्जा के रिश्तेदारों को लगता है कि बंटवारे के बाद अब उनके हित हिंदोस्तान में सुरक्षित नहीं। बेहतर मुस्तकबिल की आस में वे अपनी सरजमीं से दूर जा रहे हैं। पर सलीम मिर्जा इन सब बातों से जरा सा भी इत्तेफाक नहीं रखते। वे अपनी जन्मभूमि और कर्मभूमि को ही अपना मुल्क मानते हैं। बदलते हालातों में भी उनका यकीन जरा सा भी नहीं डगमगाता। अपने इस यकीन पर वे जिंदा हैं, ‘‘गांधीजी की कुर्बानी रायगा नहीं जाएगी, चार दिन के अंदर सब ठीक हो जाएगा।’’ बहरहाल पहले उनकी बड़ी बहिन, फिर भाई और उसके बाद उनका जिगर का टुकड़ा बड़ा बेटा भी हिंदोस्तान छोड़, पाकिस्तान चला जाता है। पर वे तब भी हिम्मत नहीं हारते। हर हाल में वे खुश हैं। जबकि एक-एक कर, दुःखों का पहाड़ उन पर टूटता जा रहा है। अपने उनसे जुदा हुए तो हुए, साम्प्रदायिक दंगों की आग में उनके जूते का कारखाना जलकर तबाह हो जाता है। पुरखों की हवेली पर कस्टोडियन का कब्जा हो जाता है। और तो और खुफिया महकमा उन पर पाकिस्तानी जासूस होने का इल्जाम भी लगा देता है, जिसमें वे बाद में बाइज्जत बरी होते हैं। इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी सलीम मिर्जा को आस है कि एक दिन सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा। जिंदगानी के संघर्ष में वे उस वक्त पूरी तरह टूट जाते हैं, जब उनकी जान से प्यारी बेटी आमना खुदकुशी कर लेती है।
बेटी आमना की खुदकुशी के बाद, वे फैसला कर लेते हैं कि अब हिंदोस्तान नहीं रुकेंगे। अपने परिवार को लेकर पाकिस्तान चले जाएंगे। अब आखिर, यहां बचा ही क्या है ! पर फिल्म यहां खत्म नहीं होती, बल्कि यहां से वह फिर एक नई करवट लेती है। फिल्म के आखिरी सीन में सलीम मिर्जा अपना मुल्क छोड़कर, उसी तांगे से स्टेशन जा रहे हैं, जिस तांगे से उन्होंने अपनों को पाकिस्तान के लिए स्टेशन छोड़ा था। तांगा रास्ते में अचानक एक जुलूस देखकर ठिठक जाता है। जुलूस मजदूर, कामगारों और बेरोजगार नौजवानों का है, जो ‘‘काम पाना हमारा मूल अधिकार !’’ की तख्तियां को लिए नारेबाजी करता हुआ आगे जा रहा है। सिंकदर अपने अब्बा से आंखों ही आंखों में कुछ पूछता है। सलीम मिर्जा, जो अब तक सिंकदर की तरक्कीपसंद बातों को हवा में उड़ा दिया करते थे, कहते हैं ‘‘जाओ बेटा, अब मैं तुम्हें नहीं रोकूंगा। इंसान कब तक अकेला जी सकता है ?’’ सिकंदर, जुलूस की भीड़ में शामिल हो जाता है। सलीम मिर्जा इस जुलूस को देखते-देखते यकायक खुद भी खड़े हो जाते हैं और अपनी बेगम से कहते हैं,‘‘मैं भी अकेली जिंदगी की घुटन से तंग आ चुका हूं। तांगा वापिस ले लो।’’ यह कहकर वे भी उस भीड़ में शामिल हो जाते हैं, जो अपने हकों के लिए संघर्ष कर रही है। बेहतर भविष्य का सपना और उसके लिए एकजुट संघर्ष का पैगाम देकर, यह फिल्म अपने अंजाम तक पहुंचती है।
एक लिहाज से देखें तो यह फिल्म का सकारात्मक अंत है। जो एक विचारवान निर्देशक के ही बूते की बात है। और यह सब इसलिए मुमकिन हुआ कि इस फिल्म से जो टीम जुड़ी हुई थी, उनमें से ज्यादातर लोग तरक्कीपसंद और वामपंथी आंदोलन से निकले थे। फिल्म उर्दू की मशहूर लेखिका इस्मत चुगताई की कहानी पर आधारित है। इस कहानी को और विस्तार दिया, शायर कैफी आजमी ने। एमएस सथ्यू की पत्नी रंगमंच की एक और मशहूर हस्ती शमा जैदी ने कैफी के साथ मिलकर इस फिल्म की पटकथा लिखी। संवाद जो इस फिल्म की पूरी जान हैं, उन्हें भी कैफी ने ही लिखा और उन्हें एक नई अर्थवत्ता प्रदान की। गर्म हवा के संवाद इतने चुटीले हैं कि फिल्म में कई जगह यह संवाद ही, अभिनय से बड़ा काम कर जाते हैं। मसलन‘‘अपने यहां एक चीज मजहब से भी बड़ी है, और वह है रिश्वत।’’
‘‘नई-नई आजादी मिली है, सब इसका अपने ढंग से मतलब निकाल रहे हैं।’’
फिल्म के मुख्य किरदार सलीम मिर्जा का रोल निभाया है, बलराज साहनी ने। उनके बिना इस फिल्म की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। बलराज साहनी की यह आखिरी फिल्म थी। ‘धरती के लाल’, ‘दो बीघा जमीन’, ‘काबुलीवाला’, ‘हकीकत’, ‘लाजवंती’ और ‘वक्त’ जैसी कई फिल्मों में बलराज साहनी का अभिनय देखने के काबिल है। ‘गर्म हवा’ में भी उन्होंने जो अभिनय किया, वह मील का पत्थर है। अपने चेहरे के हाव-भाव से ही, वे फिल्म में बहुत कुछ कह देते हैं। ‘गर्म हवा’ में उनके ऐसे कई सीन हैं, जो भुलाए नहीं भूलते। फिल्म में एक सीन है, जब सलीम मिर्जा की जवान बेटी आमना खुदकुशी कर लेती है। इस सीन में बलराज साहनी ने जो रियेक्ट किया, वह लाजवाब है। अपनी मृत बेटी को देखकर, वह बिल्कुल अवाक् रह जाते हैं। उनके मुंह से न तो एक शब्द निकलता है और न ही आंखों से आंसू। निर्देशक यहीं सीन खत्म कर देता है। बलराज साहनी ही नहीं फिल्म में और जितने भी कलाकार हैं, उन्होंने भी इसमें गजब का काम किया है। सलीम मिर्जा की बेगम के रोल में मशहूर रंगकर्मी शौकत आजमी, तो उनकी मां के रोल में बदर बेगम खूब जमी हैं। मशहूर चरित्र अभिनेता एके हंगल का जिक्र किए बिना इस फिल्म की बात पूरी नहीं हो सकती। एके हंगल ने फिल्म में कराची से भागे एक सिंधी व्यापारी अजमानी साहब की भूमिका निभाई है। अजमानी साहब भी पाकिस्तान से अपने सीने में वही जख्म लेकर आए हैं, जो सलीम मिर्जा को हिंदोस्तान में मिल रहे हैं। बावजूद इसके उनके मन में मुसलमानों के खिलाफ बिल्कुल भी बदले की भावना नहीं है। सलीम मिर्जा के दर्द को यदि कोई सबसे ज्यादा समझता है, तो वह अजमानी साहब हैं। अजमानी साहब के किरदार को एके हंगल ने बड़े ही संजीदगी और सादगी से निभाया है। सिकंदर मिर्जा के रोल में फारुख शेख, हलीम मिर्जा-दीनानाथ जुत्शी, शमशाद-जलाल आगा, बेदार मिर्जा-अबू शिवानी, आमना-गीता काक भी खूब जमे हैं।
फिल्म में निर्देशक एमएस सथ्यू ने कैफी आजमी की नज्म का बहुत बढ़िया इस्तेमाल किया है। कैफी की यह बेहतरीन नज्मों में से एक है। नज्म साम्प्रदायिकता पर है और फिल्म में बिल्कुल सटीक बैठती है। नज्म दो हिस्सों में है। नज्म का पहला हिस्सा फिल्म की शुरूआत में शीर्षक के दौरान पार्श्व में गूंजता है,‘‘तक्सीम हुआ मुल्क, तो दिल हुआ टुकड़े-टुकड़े/हर सीने में तूफां यहां भी था, वहां भी/हर घर में चिता जलती थी, लहराते थे शोले/हर घर में शमशान वहां भी था, यहां भी/गीता की न कोई सुनता, न कुरान की/हैरान इंसान यहां भी था और वहां भी।’’ नज्म का बाकी हिस्सा फिल्म के अंत में आता है, ‘‘जो दूर से करते हैं नजारा/उनके लिए तूफान वहां भी है, यहां भी/धारे में जो मिल जाओगे, बन जाओगे धारा/यह वक्त का एलान यहां भी है, वहां भी।’’ बंटवारे की त्रासदी और उसके बाद एक सकारात्मक संदेश, गोयाकि फिल्म का पूरा परिदृश्य नज्म में उभरकर सामने आ जाता है।
हिंदी सिनेमा इतिहास में ‘गर्म हवा’ ऐसी पहली फिल्म है, जो बंटवारे के बाद के भारतीय समाज की सूक्ष्मता से पड़ताल करती है। फिल्म का विषय जितना नाजुक है, निर्देशक एमएस सथ्यू और पटकथा लेखक कैफी आजमी ने उतना ही उसे कुशलता से हैंडल किया है। जरा सा भी लाउड हुए बिना, उन्होंने साम्प्रदायिकता की नब्ज पर अपनी अंगुली रखी है। ‘गर्म हवा’ में ऐसे कई सीन हैं, जो विवादित हो सकते थे, लेकिन एमएस सथ्यू की निर्देशकीय सूझ-बूझ का ही नतीजा है कि यह सीन जरा सा भी लाउड नहीं लगते। बड़े ही संवेदनशीलता और सावधानी से उन्होंने इन सीनों को फिल्माया है। फिल्म का कथानक और इससे भी बढ़कर सकारात्मक अंत, फिल्म को एक नई अर्थवत्ता प्रदान करता है। विभाजन से पैदा हुए सवाल और इन सबके बीच सांस लेता मुस्लिम समाज। विस्थापन का दर्द और कराहती मानवता। उस हंगामाखेज दौर का मानो एक जीवंत दस्तावेज है, ‘गर्म हवा’। भारतीय सिनेमा का जब-जब इतिहास लिखा जाएगा, उसमें फिल्म ‘गर्म हवा’ का नाम जरूर शामिल होगा। अपनी इस अकेली फिल्म से निर्देशक एम एस सथ्यू भारतीय सिनेमा में अमर रहेंगे। एमएस सथ्यू ने अपनी जिंदगानी के 90 साल पूरे कर लिए हैं। वे आज भी रंगमंच और इप्टा में उसी जोश-ओ खरोश के साथ सरगर्म हैं, जैसे कि शुरूआत में थे। इतनी उम्र के बाद भी न तो उनके जज्बे में कोई कमी आई है और न ही कमिटमेंट में। यही सब बातें हैं जो निर्देशक एमएस सथ्यू और उनकी फिल्म ‘गर्म हवा’ को ऑल टाइम ग्रेट बनाती हैं।

                                            (लेखक जानेमाने पत्रकार हैं और मध्य प्रदेश प्रलेस से जुड़े हैं)  
महल कॉलोनी, शिवपुरी मप्र
                                              मोबाईल  94254 89944
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