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शनिवार, 23 अप्रैल 2011

कृष्णा सोबती के उपन्यासों में पुरुष पात्रों का चित्रण - गुंजेश

[गुंजेश उर्जावान युवा कथाकार हैं. फिलहाल महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्विद्यालय, वर्धा में जनसंचार की पढ़ाई कर रहे हैं. पिछले ३०-३१ मार्च २०११ को

जमशेदपुर में करीम सिटी कॉलेज में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा प्रायोजित सेमीनार- "महिला लेखिकोण के उपन्यासों में पुरुष" विषय पर उनके द्वारा पढ़ा गया परचा हम यहाँ साभार दे रहे हैं.]

‘कृष्णा सोबती के उपन्यासों में पुरुष पात्रों का चित्रण’, यही वह विषय है जो मैंने चुना है। मैं समझता हूँ कि कृष्णा सोबती और उनके उपन्यासों में पुरुष पात्रों पर बात शुरू करने से पहले एक बार हमें उन परिस्थितियों और परिदृश्यों को देख-समझ लेना चाहिए। जिसमें यह बहस चल रही है। इस समय पूरे विश्व में और खास तौर से एशियाई देशों में ‘स्त्रीवाद’ को जिस नज़रिये से देखा जा रहा है। ‘स्त्रीवाद’ के जिस पक्ष को पापुलर मीडिया के जरिये बार-बार दिखाया जा रहा है। यह बिलकुल ठीक समय है जब, उन सब के बारे में पड़ताल कर ली जानी चाहिए। अपने मूल रूप में ‘स्त्रीवाद’ एक मुक्तिगामी समाज कि परिकल्पना है जहां लैंगिक आधार पर किसी तरह का शोषण नहीं होगा। ‘स्त्रीवाद’ पहले एक दर्शन है फिर राजनीति, यह हमें समझना होगा। इसका उदेश्य पितृसत्ता को सिर के बल खड़ा करना है न की पुरुषों को। हाल के वर्षों में स्त्रियों का जो लेखन चर्चित रहा है और जिन लेखिकाओं पर खूब बहस हुई है उसमें जिस तरह के समाज का चित्रण है वह एक विक्षिप्त समाज लगता है। जिसमें ‘पुरुष’ का सारा ध्यान स्त्री की ‘योनिकता’ पर केन्द्रित है। एडवर्ड सईद ने हमें संशयवाद का अच्छा हथियार दिया है। मैं समझता हूँ हमें इस पूरे परिदृश्य पर संशय करना चाहिए, शक करना चाहिए, सवाल करने चाहिए। और सवालों के जबाब तो हमें ढूँढने ही होंगे जो जबाब हमें मिल रहे हैं उनपर भी हमें सवाल करने होंगे। लोकप्रियता की भी अपनी रजीनीति होती है। ‘स्त्रीवाद’ का लोकप्रिय पक्ष क्या है? मुक्त सेक्स! पितृसत्तात्मक समाज ‘स्त्रीवाद’ की आलोचना और व्याख्या दोनों ही इसी आधार पर करता है और ‘स्त्रीवाद’ के इसी पक्ष को प्रचारित भी करता है। शायद इसलिए जब हम हाल के वर्षों के चर्चित महिला लेखिकाओं के उपन्यासों पर नज़र डालें तो हम देखेंगे कि इनके अंतर्वस्तु उन्हीं व्याख्याओं को पुष्ट करते हैं जो पितृसत्तात्मक समाज ‘स्त्रीवाद’ के परिपेक्ष में करता है। मेरे कहने का उद्देश्य यह है कि आज ‘स्त्रीवाद’ के सामने दोहरे संकट हैं जहां उसे ‘पितृसत्ता’ के खिलाफ समानता कि लड़ाई लड़नी है वहीं तात्कालिक संदर्भों में उसे पितृसत्ता के नए-नए अवतारों और मुखौटों को पहचानने की ज़रूरत है। आज ‘स्त्रीवाद’ को जहां यह साबित करना है कि वह इस भूमंडलीकृत दौर में उस तथाकथित आधुनिकता का औज़ार नहीं है जहां स्त्रीमुक्ति का अर्थ ‘फ्री सेक्स’ है। साथ ही उसे अलग अलग जगहों पर तालिबानियों, खाप पंचायतों और बहुतेरे जड़तावादी संस्थानों से लोहा लेना है। वहीं उसे आधुनिकता की परिभाषा भी गढ़नी है जहां स्त्री समानता का अर्थ बहुआयामी है। दरअसल दोष महिला लेखिकाओं का उतना नहीं है जितना आलोचना दृष्टि का है। आचार्य शुक्ल ने हिन्दी के प्रारंभिक आलोचना के संदर्भ मे कहा भी है कि “उसका स्वरूप प्रायः रूढ़िगत (कन्वेंशनल) रहा”1 आज भी हिन्दी आलोचना उससे बहुत बाहर नहीं आ पाई है। हिन्दी के पुरुषवादी आलोचकों ने ज़्यादातर महिला लेखन को ‘महज़ देह’ विमर्श तक समेट कर रख दिया है और जहां भी यह लेखन गहरे विमर्शों में गया है उसे ‘पश्चमी फेमिनिज़्म’ का ‘बौद्धिक विलाप’ कह कर उसका माखौल उड़ाया है।
इसलिए हमें लोकप्रियता के पैमानों को परखना होगा और ‘स्त्री’ लेखन को देखने समझने की नई दृष्टि अपनानी होगी। ‘नारीवादी’ लेखन को हमें नारीवादी आलोचना दृष्टि से देखना होगा। तभी हम समझ पाएंगे कि वहाँ ‘देह’ सिर्फ ‘देह’ नहीं है, वह एक प्रतीक है। और देह कि आज़ादी पितृसत्ता से आज़ादी है। हमें महिला लेखन को किसी तरह के आरक्षण देने कि ज़रूरत नहीं है पर यह तो हमें समझना ही होगा कि “पुरुष प्रधान समाजों में सदियों से महिलाओं का दमन और शोषण होता रहा है।....इसलिए तमाम महिला रचनाकारों ने इसी ‘एंग्जाइटी आफ आथरशिप’ के मानसिक फ्रेम में रचना कर्म को अंजाम दिया है”।2 हमें यह समझना होगा कि “स्त्री लेखिकाएं समाज में स्त्री के लिए स्वीकृत भूमिकाओं पर लिखकर अपने लिए ‘स्पेस’ निर्मित करने कि कोशिश करती है पर पुरुष जब उन्हीं विषयों पर लिखता है तो उससे स्त्री के लिए ‘स्पेस’ निर्मित नहीं होता बल्कि ‘स्पेस’ छिनता है”।3 हमें महिला लेखन को किसी सहनुभूति के नज़रिये से देखने कि ज़रूरत नहीं है, बल्कि इन्हें भी सहज जीवन की उस अभिव्यक्ति के रूप में पढ़ा जाना चाहिए जिसमें हम बाँकी लेखकों को पढ़ते हैं। कृष्णा सोबती का पूरा लेखन इसी का आग्रह करता है।
कृष्णा सोबती ‘स्पेस’ बनाने वालों में अग्रणी हैं। सोबती इसका दावा नहीं करतीं हैं उनका मानना है कि दावा करने का अधिकार सिर्फ दार्शनिकों के पास होता है।4 वह ‘नारीवाद’ को समग्रता में समझती हैं और उसे मानवतावाद के निकट लेजाकर अपने उपन्यासों में दर्ज़ करती हैं। सोबती ने उपन्यासों में पुरुष पात्रों का चित्रण उपन्यास के देश-काल के हिसाब से किया है। और वे पुरुष पात्र कहीं भी बहुत ‘लाउड’ नहीं हैं। वे पुरुष पात्र वर्षों से चली आ रही स्थापित पितृसत्ता के वारिस हैं। ‘डार से बिछुड़ी’5 कृष्णा सोबती की पहली रचना मानी जाती है। उपन्यास की कहानी वैसे तो नायिका पाशो के इर्दगिर्द ही बुनी-बसी है लेकिन कहानी की पूरी डोर पुरुष पात्र ही थामे हैं। पाशो एक ऐसी नायिका है जो सिर्फ ‘करने को’ मजबूर है, यह मजबूरी उपन्यास के पुरुष पात्र पैदा करते हैं। महिला लेखन में पुरुषों के चरित्र चित्रण को समझने के लिए हमें उपन्यास में महिला पात्रों के संवादों को समझना होगा। ‘डार से बिछुड़ी’ उपन्यास की कहानी फ्लैश बैक में आत्मकथात्मक शैली में चलती है।
“जिएँ ! जागें ! सब जिये जागें !
अच्छे, बुरे, अपने, पराये- जो भी मेरे कुछ लगते थे सब जीएँ !
घड़ी भर पहले चाहती थी कि कहूँ सब मर-खप जाएँ। न कोई जिए न जागे। मैं मरूँ तो सबको तो सबको ले मरूँ ! इस अभागी के ही जीने के लेख बिसर गए तो कोई और क्यों जिए? क्यों जागे? पर कौन होती थी मैं अपने दुर्भाग्य से हरी-भरी बेलों को जला देने वाली !”5
यह पाशो, जो उपन्यास कि नायिका है, के संवाद हैं। यह कृष्णा सोबती का ही नज़रिया है जो ‘मर-खप’ जाने को अंतिम विकल्प नहीं मानती है। पाशो एक युवती है। जिसकी विधवा माँ “शेखों के घर जा चढ़ी” है। जिसकी वजह से अपने ननिहाल में पाशो भी संदेहास्पद हो गई है। यह संदेह उस पितृसत्ता का है जिसके प्रतिनिधि के रूप में पहले पाशो के मामा हैं। फिर आगे चल कर शेख, पाशो के पति लखपत दिवान, बरकत दिवान, लाला और उनके तीनों बेटे, और फिर पाशो का नया भाई (वीर)। यदि इन सभी पात्रों का विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि ये सभी पात्र अलग-अलग समयों में पितृसत्ता के प्रतिनिधि के रूप में उभरे हैं। पाशो एक से बचती है तो दूसरे में फँसती है। जब वह ननिहाल छोड़ शेखों के यहाँ जाती है तो वहाँ पुरुषों का असल चरित्र सामने आता है। शेख पाशो को अपनी बेटी के रूप में स्वीकार तो करते हैं उसे खूब मान भी देते हैं लेकिन उनके पास यह साहस नहीं है कि वह खुल कर इसका इकरार कर सकें, पाशो तो फिर भी लड़की थी, शेखों कि ऐसी क्या मजबूरी रही होगी? यह वही मजबूरी है जिसे कृष्णा सोबती अपने उपन्यासों में बार-बार उठाती हैं। यह पितृसत्तात्मक समाज में रहने की मजबूरी है। जिसकी शिकार महिलाएं तो हैं ही लेकिन पुरुष भी जाने-अनजाने इसके शिकार हैं। इसलिए इस उपन्यास के पुरुष पात्र इकहरे नहीं हैं। उपन्यास में एक तरफ शेख, शेख का बेटा, दिवान लखपत हैं तो दूसरी तरफ पाशो के मामा, दिवान बरकत, लाला और उनके तीनों बेटे हैं। लाला जो पाशो की कीमत चुका कर उसे अपने घर लाते हैं वो खुद अपने घर में उपेक्षित हैं। कृष्णा सोबती अतिरेक में जाने से बचतीं हैं कम से कम कहानी कहने के सिलसिले में तो ज़रूर। इसलिए उनकी लिखी कहानी किसी और दुनिया की कहानी नहीं लगती।
कृष्णा सोबती के सबसे ज़्यादा चर्चित उपन्यासों में ‘मित्रो मरजानी’6 है। इस उपन्यास में चार प्रमुख पुरुष पात्र हैं। मित्रो (समित्रावन्ती) के ससुर गुरदास, मित्रो का पति सरदारी लाल, सरदारी लाल का बड़ा भाई बनवारी लाल और सरदारी का छोटा भाई गुलजारी लाल। इस उपन्यास को ज़्यादा तर आलोचकों ने मित्रो के ‘बोल्ड संवाद’ के लिए सराहा है। ज़रा याद कीजिये प्रेमचंद के ‘गबन’ को। “गबन की केन्द्रीय समस्या है स्त्री की पितृसत्ता और पूंजीवादी मूल्यों के खिलाफ संघर्ष। प्रेमचंद ने जालपा और अन्य स्त्री पात्रों के जरिये इसी ओर ध्यान खींचा है”।7 प्रेमचंद ने गहनों के माध्यम से गबन में स्त्री मानसिकता में आए परिवर्तन को दिखाया है। मध्यमवर्गीय स्त्रियों को गहनों से बड़ा लगाव होता है। ‘मित्रो मरजानी’ में भी कृष्णा सोबती ने गहनों और पैसों के माध्यम पितृसत्ता के दो रूप दिखाएँ हैं। एक तरफ जहां गुलजारी लाल अपने भाइयों के नाम पर कर्ज़ लेकर अपनी पत्नी के लिए गहने बनवाता है वहीं अपने पति कि नपुंसकता पर सवाल करने वाली (और अगर इसे प्रतिकार्थों में लें तो यह सवाल पूरी परिवार व्यवस्था पर है जहां पुरुषों की मांग पूर्ति ही सर्वोपरी है) मित्रो अपनी जमा पूंजी परिवार के मान को बचाने के लिए अपने पति सरदारी लाल को सौंप देती है। सवाल हो सकता है कि इसमें पुरुषों का चरित्र कहाँ दिखता है? मैंने पहले भी कहाँ है और उसे फिर दुहराना ज़रूरी समझता हूँ कि महिला लेखिकाओं के पुरुष पात्रों को समझने के लिए हमें महिला पात्रों के संवादों और पुरुष पात्रों के प्रति उनके रुख का विश्लेषण करना होगा। सिमोन द बोआ ने लिखा है- ‘वन इज़ नाट बार्न आ वुमेन, वन बिकम्स वन’, नारी जन्म से नारी नहीं होती वह बनाई जाती है। कृष्णा सोबती ने मित्रो के पति सरदारी लाल को नपुंसक पात्र के रूप में रख कर इस प्राकृतिक जैविक अंतर को कम कर, पितृसत्ता की उस ताकत को खत्म किया है। सरदारी लाल के पास वह ताकत नहीं है जिससे वह मित्रो की योनिकता पर कब्जा कर सके। मित्रो के ससुर गुरुदास के इस सवाल का हमे विश्लेषण करना चाहिए जो उन्होंने अपने बेटों से किया है – ‘आप ही उघाड़ोगे और आप ही कहोगे नंगे हो?’6 बेटों ने मित्रो की चरित्र पर शक किया है, घर में बड़े-जेठों के सामने अदालत लगी है और ‘गुरुदास ने मँझली बहू (मित्रो) की ओर ताका तो वह उन्हें छोटे से घूँघट वाली कोई छोटी गुड़िया दिखी!’ गुरुदास अपने बेटों को समझाते हैं –“ बरखुरदार, जवानी के जोश में बात का बतंगड़ ना बनाओ’।6 इस पूरे प्रसंग में कृष्णा सोबती ने पितृसत्ता के पूरे चरित्र को पितृसत्ता के अंतर्गत पुरुषों की वास्तविक स्थिति को स्पष्ट किया है और बेहतरीन तरीके से किया है। यह कोई एकांगी दृष्टि नहीं है। सोबती चीजों को समग्रता में देख रही हैं और उसे दर्ज़ कर रही हैं।
“ बात बिगड़ते देख, बनवारी लाल उठ बापू के पास आ झुका- दिल दिमाग कायम रखो बाबू, यह समय हेर-फेर करने का नहीं करने का नहीं। जिसे समझाना हो समझाओ, जिसे ताड़ना हो ताड़ो”।6
गुरुदास समझदार हैं वो स्पष्ट नज़रों से चीजों को देख रहे हैं। इसलिए यहाँ उनकी भी वही स्थिति हो गई जो मित्रो की है। मित्रो से सवाल है कि उसके पति ने जो उस पर शक किया है, वह सच है या झूठ? मित्रो टका सा जबाब देती है ‘सच भी है और झूठ भी’ आगे मित्रो कहती है-
‘सोने सी अपनी अपनी देह झूर-झुरकर जला लूँ या गुलजारी देवर कि घरवाली की न्याई सुई-सिलाई के पीछे जान खपा लूँ? सच तो यूं, जेठ जी कि दिन-दुनिया बिसरा मैं मनुक्ख कि जात से हँस- खेल लेती हूँ। झूठ यूं कि खसम का दिया राजपाट छोड़ मैं कोठे पर तो नहीं जा बैठी?’
मित्रो के जबाब को सुन –
‘गुरुदास लेटे-लेटे उठ बैठे। बहू कि जगह लड़कों को डांटकर कहा- बोधे जवान कहीं के! तिल का ताड़ करके तरीमत के मुंह लगते हो? कभी दम खम आजमाना हो तो गली गलियारे में जूत-पैजार कर लिया करो!’
तो ऐसे हैं मित्रो मरजानी के पुरुष पात्र सामाजिक यथार्थ के रंगों में रंगे रचे। सोबती समझती है एक आज़ादी का मतलब सिर्फ एक जगह भर से या विशेष स्थितियों से निकल जाना भर नहीं है इसलिए मित्रो अपनी माँ के उस प्रस्ताव को ठुकरा देती है जिसमें वह उसे अपने मायके में ही रहने को कहती है।
सोबती कम लिखने को ही अपना परिचय मानती हैं और कहती हैं कि एक जालिम सी तटस्थता दिल दिमाग पर कब्जा किए रहती है। कृष्णा सोबती के उपन्यासों में यह दिखता है वह किसी पूर्वाग्रह से नहीं लिखती इस लिए ‘दिलो-दानिश’7 के वकील कृपानारायाण को पढ़ते हुए वह हमें बहुत ‘चतुर बेचारा’ सा लगता है।
‘महरी है, महाराज है, बर्तन-भांडे को लड़का है। कपड़ों के लिए धोबन है घर चलाने में अब कौन सा कम बाँकी है जो हमें आपकी मदद के लिए करना चाहिए’।7 इन पंक्तियों को सुन कर क्या महसूस होता है फिक्र और फक्र दोनों ही न! ‘दिलो-दानिश’ में कृष्णा सोबती ने दिल्ली के समग्र ज़िंदगी के बीच से इंसानी रिश्तों के एक ऐसे पहलू को उठाया है जिसका गहरा ताल्लुक मध्ययुग की सामंती जीवन-पद्धति से है”।8 लेकिन इसमें वकील साहब का कोई दोष नहीं दिखता। यह जीवन पद्धति तो उन्हें विरासत में अपने पुरखों से मिली है, जिनके नक्शे कदम पर चलना वकील साहब की ज़िम्मेदारी है।
“ख़ुद अपना फैसला भी इश्क़ में काफी नहीं होता/ उसे भी कैसे कर गुज़रें/ जो दिल में ठान लेते हैं”9 फिराक साहब के इस शेर के साथ वकील साहब की यह स्वीकारोक्ति सुनिए ‘बानो, खुदा जनता है, हमारा बस चलता तो हम इस घर को हवेली में बदल देते पर बिरदरी की अपनी मर्यादा है’।7 वैसे वकील साहब को यह घमंड भी है कि ‘आखिर को हम मर्द हैं’ 7 साथ ही महकबानो के लिए, जिसे वकील साहब ने रख रखा है, यह अफसोस भी कि ‘इस औरत का कसूर सिर्फ इतना भर है कि यह हमारी बीवी ना थी’।7 पितृसत्तात्मक समाजों के अगर मुख्य गुण तलाशे जाएँ तो एक गुण यह निकलेगा कि ये समाज बहुत गणितीय प्रेम करते हैं। अगर कोई इस ढांचे को तोड़ने का प्रयास करता है तो खाप और तालिबान जैसी सस्थाएं जो करती है हम सब उसके गवाह हैं। ‘दिलो-दानिश’ में भी पितृसत्ता के इन्हीं गुणों को वकील कृपनरायाण के जरिये, कृष्णा सोबती खोलती हैं। ‘यह बात दीगर है कि मर्द ‘वही जीती’ कहकर अपनी हर स्वीकार भले ही कर ले, पर वह उसे अपनी तौहीन समझता है। जिसे न वह भूल पाता है न झेल पता है। यह उसकी नज़र में ऐसा गुनाह है जिसे माफ भी नहीं किया जा सकता’।8 आख़िर में महकबानों और चुन्ना का खुद को कृपानारायण की जायदाद से अलग करना ही कृष्णा सोबती के लेखन की खास पहचान है। जहां कोई गुस्सा नहीं, कोई श्राप नहीं है एक मौन प्रतिरोध है और प्रतिरोध का लहराता हुआ परचम है।
अंशु मालवीय की एक कविता का शीर्षक है ‘आश्वस्ति’10। उसकी कुछ पंक्तियाँ हैं
“कि दोस्त के बिना नास्तिक नहीं हुआ जा सकता
समाज में असुरक्षा है बहुत,
आदमी के डर ने बनाया है ईश्वर
और उसके साहस ने बनाई है दोस्ती”9
पितृसत्तात्मक समाज और परिवार रूपी संस्था लगातार ही ‘धर्म’ और ‘ईश्वर’ कि दुहाई देता नज़र आता है। यही वो शब्द हैं जिनसे वह अपने दमनात्मक कार्यों को वेलेडिटी दिलाता है। एक डरी हुई स्त्री तो इन धार्मिक भावनाओं के सहारे समाज के शोषणों को झेल जाती है पर वह स्त्री क्या करे जो मुक्ति कि चेतना से जीती है वह किसे अपना दोस्त बनाये? क्या दोस्त बनाने की इच्छा ही मुक्ति की ओर पहला कदम नहीं है? ऐसी इच्छा रखने वाली स्त्रियों के साथ पुरुष वर्ग (ध्यान दें पितृसत्ता का नहीं )का क्या रुख रहता है? इन्हीं बिन्दुओं पर केन्द्रित कृष्ण सोबती के दो और उपन्यास हैं- ‘समय सरगम’11 और ‘सूरजमुखी अंधेरे के’12। सोबती के हर उनयस में जीवन छलकता है और ‘समय सरगम’ में तो कई धुनों में बजता भी है। आरण्या और ईशान इस उपन्यास के दो मुख्य पात्र हैं और दोनों ही सम पर हैं। अलग-अलग कारणों से ही सही पर दोनों का परिवार आरण्या और ईशान से अलग हो चुका है। दोनों जीवन के सेवा निवृत हिस्से को जी रहे हैं। इस उपन्यास की खास बात यह है कि पहली बार सोबती के उपन्यासों में द्वंद, ‘डिबेट’ के रूप में सामने आया है। ईशान, किन्हीं ‘शून्यता’ के बहाने से यह स्वीकार करते हैं कि ‘... सम्पूर्ण पुरुष नहीं हो सकते अगर स्त्री की तरह प्यार करना न सीखो’। बदले में आरण्या का भी मौन उत्तर है ‘स्त्रियाँ तो चाहती ही हैं वह पुरुषों की तरह प्यार करना सीखें। उतना ही जितना करना ज़रूरी हो। अपने को उसकी आसक्ति में विलीन न कर दे’। गौर करने वाली बात यह है कि आरण्या के इस खामोश जबाब को ‘डिकोड’ ईशान कर रहे हैं। आगे का विवरण भी देखें ‘दोनों लंबे क्षण तक एक-दूसरे को तकते चले कि आरण्या हँसी। सृष्टि के दो मन, स्त्री पुरुष अलग-अलग दिशाओं से एक ही बिन्दु को देख रहे हैं। देख रहे हैं कि मानवीय होने के एक-से अधिकारों को पा सकें। जी सकें’। 1989 के ज़माने में, बारबारा एहनरिक न्यूयार्क टाइम्स जैसे अखबारों में लंबे लेख लिख रही थीं जिसके मसायल यही थे कि क्या पुरुष ‘स्त्रियायेन’ हो रहे है? ‘पुरुषों के स्त्रियायेन’ होने से एहनरिक का तात्पर्य पुरुषों में आए स्वभावगत बदलाव से था/है। कृष्णा सोबती स्वयं ‘समय सरगम’ के बारे में कहतीं हैं ‘1999 कि अंतिम और 2000 कि प्रथम कृति’। समय के साथ भारतीय मध्यम वर्ग में जो बदलाव आये हैं और सोबती ने जिन्हें रेखांकित किया है वह है पुरुषों में भी पितृसत्ता के खिलाफ एक अकुलाहट। इस अकुलाहट ने, रचनाकाल और रचना की पृष्ठभूमि के अनुसार, सोबती के हर उपन्यास में जगह पाई है। ‘समय सरगम’ में भी यह दिखता है बल्कि अकुलाहट से कहीं ज़्यादा बदला हुआ समाज दिखता है। ईशान का खाना बनाने में दिलचस्पी लेना और आरण्या का ‘अपने को उससे कुछ दूर ही’ रखना। फिर ईशान का कहना –‘मैं अपना सब काम हाथ से करना पसंद करता हूँ और संतोष पाता हूँ!’11 आरण्या जबाब देती है और यह एक व्यंग भी है पुराने पुरुषों पर ‘सचमुच में आधुनिक हैं। नहीं तो प्राचीन भारतीय गृहस्थों कि तरह- सब कुछ दूसरे करें। आपके एक काम में दस जुटे हों तो आपका रुतबा सुरक्षित है’।11
‘समय सरगम’ पर बात शुरू करने से पहले मैंने एक सवाल आप लोगों के सामने रखा था कि मुक्तिगामी चेतना में जीने वाली ‘स्त्री’ किसे अपना दोस्त माने’? प्रसंगवस उपन्यास में जबाब की ओर एक इशारा ज़रूर मिलता है जब ‘आरण्या मैत्री भाव से बोली- मैं अपने आप को उम्र में उतना बड़ा महसूस नहीं करती जितना आप मान रहे हैं। मेरे आसपास मेरा परिवार नहीं फैला हुआ कि मैं अपने में माँ, नानी, दादी, कि बूढ़ी छवि ही देखने लगूँ। ईशान, मुझे मेरा अपनापन निरंतरता का अहसास देता है’।
यहाँ जो ‘संवाद’ स्त्री-पुरुष के बीच ‘परिवार’ को लेकर है। यह संवाद ही कृष्णा सोबती की असल कला है। कृष्णा सोबती समझ रहीं हैं कि समाज बादल रहा है और कई मायनों में पुरुषों ने पितृसत्ता के वर्चस्व से खुद को स्वतंत्र किया है और जहां नहीं किया है वहाँ वह ‘मैं नहीं कहता सब कहते हैं’12, ‘मैं नहीं कहता दुनिया कहती है’12 ‘शास्त्रों में भी यही लिखा है’7 की डिफ़ेंडिंग स्थिति में है। और यथार्थ भी यही है। हम यानि पुरुष बदले हैं। यह सही है कि यह बदलाव मानसिक स्तर पर कम और भौतिक स्तर पर ज़्यादा हुआ है, पर बदलाव हुआ है और स्त्री मुक्ति के आंदोलन में यह एक बड़ी सफलता है। और कृष्णा सोबती इसी सफलता की इतिहासकार हैं।

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संदर्भ ग्रंथ
1. जैन निर्मला, हिन्दी आलोचना की बीसवीं सदी, 1992 राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।

2. जैन निर्मला, कथा प्रसंग यथा प्रसंग, (वर्ष 2000) वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।

3. सिंह सुधा, ज्ञान का स्त्रीवादी पाठ, वर्ष 2008 ग्रंथ शिल्पी, नई दिल्ली।

4. सोबती कृष्णा, सोबती एक सोहबत, प्रथम संस्करण वर्ष 1989, राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली।

5. सोबती कृष्णा, डार से बिछुड़ी, प्रथम संस्करण 1958, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली।

6. सोबती कृष्णा, मित्रो मरजानी, प्रथम संस्करण1967, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली।

7. सोबती कृष्णा, दिलो-दानिश, प्रथम संस्करण 1993, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली।

8. जैन निर्मला, कथा प्रसंग यथा प्रसंग, (वर्ष 2000) वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।

9. गोरखपुरी फिराक, बज़्में ज़िंदगी: रंगे शायरी, वर्ष 2004 भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली।

10. मालवीय अंशु, दक्खिन टोला, प्रथम संस्करण 2002, इतिहास बोध प्रकाशन, इलाहाबाद।

11. सोबती कृष्णा, समय सरगम, प्रथम संस्करण 2000, राजकमल प्रकाशन।
12. सोबती कृष्णा ,सूरजमुखी अंधेरे के, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।की
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