गठरी...

25 मई (1) ३१ जुलाई (1) अण्णाभाऊ साठे जन्मशती वर्ष (1) अभिव्यक्ति की आज़ादी (3) अरुंधती रॉय (1) अरुण कुमार असफल (1) आदिवासी (2) आदिवासी महिला केंद्रित (1) आदिवासी संघर्ष (1) आधुनिक कविता (3) आलोचना (1) इंदौर (1) इंदौर प्रलेसं (9) इप्टा (4) इप्टा - इंदौर (1) इप्टा स्थापना दिवस (1) उपन्यास साहित्य (1) उर्दू में तरक्कीपसंद लेखन (1) उर्दू शायरी (1) ए. बी. बर्धन (1) एटक शताब्दी वर्ष (1) एम् एस सथ्यू (1) कम्युनिज़्म (1) कविता (40) कश्मीर (1) कहानी (7) कामरेड पानसरे (1) कार्ल मार्क्स (1) कार्ल मार्क्स की 200वीं जयंती (1) कालचिती (1) किताब (2) किसान (1) कॉम. विनीत तिवारी (6) कोरोना वायरस (1) क्यूबा (1) क्रांति (3) खगेन्द्र ठाकुर (1) गज़ल (5) गरम हवा (1) गुंजेश (1) गुंजेश कुमार मिश्रा (1) गौहर रज़ा (1) घाटशिला (3) घाटशिला इप्टा (2) चीन (1) जमशेदपुर (1) जल-जंगल-जमीन की लड़ाई (1) जान संस्कृति दिवस (1) जाहिद खान (2) जोश मलीहाबादी (1) जोशी-अधिकारी इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज (1) ज्योति मल्लिक (1) डॉ. कमला प्रसाद (3) डॉ. रसीद जहाँ (1) तरक्कीपसंद शायर (1) तहरीर चौक (1) ताजी कहानी (4) दलित (2) धूमिल (1) नज़्म (8) नागार्जुन (1) नागार्जुन शताब्दी वर्ष (1) नारी (3) निर्मला पुतुल (1) नूर जहीर (1) परिकथा (1) पहल (1) पहला कविता समय सम्मान (1) पाश (1) पूंजीवाद (1) पेरिस कम्यून (1) प्रकृति (3) प्रगतिशील मूल्य (2) प्रगतिशील लेखक संघ (4) प्रगतिशील साहित्य (3) प्रगतिशील सिनेमा (1) प्रलेस (2) प्रलेस घाटशिला इकाई (5) प्रलेस झारखंड राज्य सम्मेलन (1) प्रलेसं (12) प्रलेसं-घाटशिला (3) प्रेम (17) प्रेमचंद (1) प्रेमचन्द जयंती (1) प्रो. चमन लाल (1) प्रोफ. चमनलाल (1) फिदेल कास्त्रो (1) फेसबुक (1) फैज़ अहमद फैज़ (2) बंगला (1) बंगाली साहित्यकार (1) बेटी (1) बोल्शेविक क्रांति (1) भगत सिंह (1) भारत (1) भारतीय नारी संघर्ष (1) भाषा (3) भीष्म साहनी (3) मई दिवस (1) महादेव खेतान (1) महिला दिवस (1) महेश कटारे (1) मानवता (1) मार्क्सवाद (1) मिथिलेश प्रियदर्शी (1) मिस्र (1) मुक्तिबोध (1) मुक्तिबोध जन्मशती (1) युवा (17) युवा और राजनीति (1) रचना (6) रूसी क्रांति (1) रोहित वेमुला (1) लघु कथा (1) लेख (3) लैटिन अमेरिका (1) वर्षा (1) वसंत (1) वामपंथी आंदोलन (1) वामपंथी विचारधारा (1) विद्रोह (16) विनीत तिवारी (2) विभाजन पर फ़िल्में (1) विभूति भूषण बंदोपाध्याय (1) व्यंग्य (1) शमशेर बहादुर सिंह (3) शेखर (11) शेखर मल्लिक (3) समकालीन तीसरी दुनिया (1) समयांतर पत्रिका (1) समसामयिक (8) समाजवाद (2) सांप्रदायिकता (1) साम्प्रदायिकता (1) सावन (1) साहित्य (6) साहित्यिक वृतचित्र (1) सीपीआई (1) सोशल मीडिया (1) स्त्री (18) स्त्री विमर्श (1) स्मृति सभा (1) स्वास्थ्य सेवाओं का राष्ट्रीयकरण (1) हरिशंकर परसाई (2) हिंदी (42) हिंदी कविता (41) हिंदी साहित्य (78) हिंदी साहित्य में स्त्री-पुरुष (3) ह्यूगो (1)

शनिवार, 13 नवंबर 2021

अक्टूबर क्रांति की 104 वीं सालगिरह

 


अक्टूबर क्रांति ऐसी क्रांति थी जिसका प्रभाव पूरी दुनिया में हुआ था। मानव जाति ये समझने लगी थी कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुक्ति संभव है। इस दौरान शोषण के खिलाफ आवाज उठाई गई। इस अक्टूबर क्रांति को सोवियत क्रांति के नाम से भी जाना जाता है। इसकी सालगिरह पर हस्तक्षेप चैनल के अमलेन्दु के साथ विजय सिंह (दिल्ली विश्वविद्यालय प्राध्यापक और सम्पादक रेवॉल्यूशनरी डेमोक्रेसी), डॉ जया मेहता (वरिष्ठ अर्थशास्त्री) और प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय सचिव विनीत तिवारी ने अक्टूबर क्रांति को लेकर अपने विचार ७ नवंबर को आयोजित ऑनलाइन परिचर्चा में साझा किये। विजय सिंह ने कहा कि 104 साल पहले रूस की क्रांति हुई जिसका नाम था महान समाजवादी अक्टूबर क्रांति। जैसे  फ्रांस की क्रांति सिर्फ फ्रांस की क्रांति नहीं थी बल्कि पुरे यूरोप की क्रांति थी वैसे ही ये कहना गलत नहीं होगा कि रूस की क्रांति सिर्फ रूस की नहीं बल्कि पूरी दुनिया की क्रांति थी क्योकि इसका असर चीन, अमेरिका, अफ्रीका और एशिया में हुआ था। भले ही 1861 में रूस में गुलाम प्रथा के खिलाफ कानून बन गया था लेकिन उसके अवशेष बाकी थे। हकीकत में रूस में सामन्तवाद था और गुलामी भी थी। इस गुलामी के अवशेष 1917 तक रहे। फिर युद्ध हुआ। जिसके नतीजे में देश की आम जनता और मजदूरों ने बगावत की और फरवरी क्रांति हुई। इसके बाद बुर्जुआ सरकार सत्ता में आई और वो नहीं चाहती थी कि युद्ध खत्म हो। जिन कारणों से फरवरी क्रांति हुई वो अक्टूबर तक चली। अक्टूबर की क्रांति जन क्रांति थी। लेनिन के नेतृत्व में हुई इस जनक्रांति का मकसद था शांति,रोटी और जमीन। इसका आशय था कि समाज मे शांति हो, सभी को रोटी मिले और जमीन मिले। फिर बुर्जुआ सत्ता के खिलाफ लड़ाई हुई जो 1917 से 1920 तक चली और आखिरी में बोल्शेविक पार्टी जीती। बोल्शेविक पार्टी के जीतने का एक कारण था मजदूरों का उनकी पार्टी में होना। इसकी सफलताओं की तरफ देखा जाए तो क्रांति के बाद एक नया समाज बनाया गया जहाँ बेरोजगारी नहीं थी। सारी स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाएं मुफ्त थीं एवं औरतों को बराबरी के हक दिए गए। प्रतिनिधित्व करने के लिए भी औरतों को चुना गया था। ट्रांसपोर्ट बहुत सस्ता था। टेलीफोन मुफ्त थे। थोड़े समय बाद रूस पर अन्य सम्राज्यवादी देशों का हमला हुआ जो बहुत नुकसानदेय था लेकिन रूस ने खुद को अच्छे से संभाला। फिर नए तरीकों की समाजवादी प्लानिंग शुरू की गई। जिसका नतीजा ये हुआ कि धीरे-धीरे सभी उद्योगों से होने वाला मुनाफा जनता जी जिंदगी को बेहतर बनाने में इस्तेमाल किया जाने लगा। भविष्य में अक्टूबर क्रांति की विरासत की हिफाजत करना इसलिए जरूरी है क्योंकि अगर हम चाहते हैं कि समाज की शोषण से मुक्ति हो, मजदूरों और किसानों का शोषण खत्म हो और दलित वर्ग मुक्त किया जाए और औरतों को उनका समान हक मिले तो उस क्रांति के मूल्यों की हिफाजत जरूरी है। जातिवाद के अवशेष भी खतरनाक हो सकते हैं इसलिए इसे खत्म करना जरूरी है। पूंजीपति चाहते हैं कि लोग धर्म या किसी के भी नाम पर आपस में लड़ें ताकि लोग मुद्दे की बात भूल जायें। आज कोई समस्या अगर किसानों और मजदूरों की होती है तो वामपंथी पार्टियाँ बीच में आती हैं ताकि उससे जनता की वर्ग चेतना बढ़े। लोगों को ये मानना जरूरी है कि बिना संघर्ष किये कोई क्रांति नहीं हो सकती।

इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए जया मेहता ने कहा कि साम्राज्यवाद पूँजीवाद की उच्चतम अवस्था है। इसलिए उस समय क्रांति के लिए जर्मनी को ज्यादा उपयुक्त माना गया था क्योकि वहाँ लोग तैयार थे, वर्किंग क्लास मजबूत थी। तब लेनिन ने कहा कि हम जर्मनी में क्रांति का इंतजार नहीं सकते बल्कि हमें रूस में ही क्रांति की शुरुआत करनी चाहिए। रूस में पूंजीवाद कमजोर थी लेकिन फिर भी जरूरत थी कि क्रांति की शुरुआत वहीं से हो। इस शुरुआत के बाद बहुत सारे साम्राज्यवादी देशों की व्यवस्था बिगड़ी इसलिए उन्होंने रूस पर हमला किया था। रूस की क्रांति सफल होगी या नहीं, यह सवाल भी लोगों के मन में था इसलिए लोगों की नजर अब जर्मनी पर टिकी थी। थर्ड इंटरनेशनल की सेकेंड कांग्रेस जब हुई तब लेनिन ने ये कहा कि हम  विकसित देशों की तरफ न जाते हुए उपनिवेशों की तरफ जायें, हिंदुस्तान जैसे देशों की तरफ जाएँ। दूसरे विश्व युद्ध के बाद उपनिवेशों ने भी अपनी आजादी हासिल की थी। जब हमने आजादी हासिल की तब भी ये संभव था कि हम संविधान में समाजवाद को बढ़ावा दें और पूंजीवाद को खत्म करें। 

विनीत तिवारी ने अपना मत रखा और कहा कि सोवियत संघ के समय इतिहास में पहली बार ऐसा समाज बनाया गया था जिसमें मजदूरों का राज था। इस क्रांति से दुनिया के लोगों में ये उम्मीद जाग गई थी। लोगों ने जीना शुरू कर दिया था। मौत के इंतजार को ही जिंदगी मानने वाले लोगों की सोच बदलने लगी थी। जो लोग मालिकों से अपना ही शोषण करवाते थे उन सब के अंदर इंसान होने की ललक पैदा हुईं थी। ऐसी ही क्रांति की जरूरत हमें आज और ज्यादा है क्योंकि 70 साल से बनायी गई दीवार को गिराने की बहुत सी कोशिशें आज भी की जा रही हैं। कोरोना में यह सब देखने को मिला। जिसके दोहरे चेहरे थे सब सामने आए। बीमारी से लेकर उसकी वैक्सीन तक सब भ्रष्टाचार सामने आए। इसमें सिस्टम भी पीछे नहीं था। सोवियत संघ के समय जैसा समाज था, वैसे समाज की जरूरत आज है लेकिन आज के समाज की सब से बड़ी कमजोरी है एकता। जहाँ मजदूरों और किसानों में एकता नहीं है। अगर इन दोनों का साथ एक दूसरे को मिल जाये तो दोनों के बीच दूरियां खत्म हो जाएँगी और आंदोलन सिर्फ माँगो तक सीमित नहीं रहेगा बल्कि ऐसा समाज ही बन जाएगा जहाँ गैर बराबरी नहीं होगी। विनीत सोवियत संघ की क्रांति को याद करते हुए कहते हैं कि जिन दिन क्रांति हुई उसके अगले ही दिन दो कानून बनाये गए जिसमें पहला था जमीन के राष्ट्रीयकरण का और दूसरा था आत्म निर्णय यानि सेल्फ डिटरमिनेशन का। वर्तमान में देखा गया है कि सोवियत संघ के बारे में लोगों को भड़काया जाता है कि वहाँ तानाशाही थी और लोगों को अभिव्यक्ति की आजादी नहीं थी। लेकिन ये सच नहीं है। वहाँ सरकार लोगों की रोजी-रोटी, अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य देने के लिए जिम्मेदार थी। इसलिए वहाँ इन चीजों को प्राइवेट कंपनियों के हाथों में नहीं छोड़ा गया था। जबकि हम अगर अपने देश की आज की बात करें तो महामारी के दौरान प्राइवेट कंपनियों ने हर तरह से मुनाफा कमाया चाहे वो दवाइयाँ हों या वैक्सीन या अस्पताल। वैक्सीन की बात करें तो किसी भी कंपनी ने ये जिम्मेदारी नहीं ली है कि वैक्सीन लगाने के के बाद आपको कोविड नहीं होगा। जब वैक्सीन सर्टीफिकेट में प्रधानमंत्री का फोटो छापा है तो जो लोग वैक्सीन लगवाने के बाद भी कोविड से मरे हैं तो उनकी जिम्मेदारी भी प्रधानमंत्री को लेना चाहिए। अगर आपका सिस्टम राष्ट्रीयकरण में विश्वास रखता हैं तो आप प्रॉफिट की बात नहीं कर सकते। अक्टूबर क्रांति हमें सिखाती है कि जनता के हित में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार का राष्ट्रीयकरण सबसे ज़रूरी कदम हैं।

- पायल फ्रांसिस


बुधवार, 6 जनवरी 2021

सिंघु और टीकरी बॉर्डर पर किसानों के साथ चार दिन

 


        इप्टा, प्रलेस और केंद्रीय पंजाबी लेखक सभा की राष्ट्रीय समितियों ने आह्वान किया था कि लेखक और कलाकार नया साल  1जनवरी 2021 को  सिंघु बॉर्डर दिल्ली पर आंदोलनरत किसानों के साथ मनाएं।प्रलेस और केंद्रीय पंजाबी लेखक सभा के राष्ट्रीय महासचिव सुखदेव सिंह सिरसा,इप्टा पंजाब के अद्यक्ष और महासचिव साथी संजीवन और साथी इंद्रजीत सिंह रूपोवाली,इप्टा चंडीगढ़ के अद्यक्ष और महामंत्री साथी बलकार सिद्धू और साथी के एन एस सेखों के साथ तमाम कलाकार लेखक 31 दिसंबर 2020 को ही सिंघु बॉर्डर पहुंच चुके हैं।कड़ाके की ठंड में अलाव के आस पास पूरी रात कार्यक्रम चले हैं।2021 के नए साल के दिन यह सभी साथी देश भर से आने वाले लेखकों और कलाकारों के स्वागत के लिए तैयार हैं।आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन के राष्ट्रीय महासचिव,इप्टा की राष्ट्रीय समिति के सदस्य युवा साथी यहां आंदोलन के पहले दिन से डटे हैं,वे अपने तमाम साथियों के साथ मोंगा से तमाम बाधाओं को पार करके ट्रैक्टर से किसानो के साथ यहां पहुंचे हैं। 1 जनवरी 2021 को सुवह 11 बजे हिंदी के जाने माने कथाकार शिवमूर्ति,इप्टा लखनऊ के अद्यक्ष,ट्रेड यूनियन नेता और रंगकर्मी राजेश श्रीवास्तव,इप्टा की राष्ट्रीय समिति के सदस्य विनोद कोष्टी,दिल्ली इप्टा के पदाधिकारी,युवा रंगकर्मी,रजनीश और वर्षा के साथ हम सिंघु बॉर्डर पर चल रहे लाखों किसानों के धरने में पहुंचे हैं।जिस सड़क पर लगभग 15 किलोमीटर तक किसानों का नया बसेरा है,कहीं टेंट लगे हैं,कहीं ट्रेक्टर ट्रालियों को बांसों के सहारे त्रिपालों से ढक कर शयन कक्ष बना लिए गए हैं।घुसते ही एक बड़ा सा मंच बना है,मंच पर दिए जाने वाले भाषण या कार्यक्रम पूरे धरना स्थल पर सुने जा सकते हैं।लगभग 10 किलोमीटर तक लाउडस्पीकर का संजाल बिछा है।दूर तक देखने के लिए मंच पर बड़ी स्क्रीन की भी व्यवस्था है।हर थोड़ी थोड़ी दूरी पर लंगर की,चायपान और जलपान की व्यवस्था है।आंदोलन को उत्सव में बदलने का एक नया मुहावरा गढ़ लिया गया है।किसान अपने हल से बड़े बड़े हर्फ़ों में इतिहास की एक नई इबारत लिख रहा है।घुसते ही एक बुजुर्ग से पूछता हूँ,"आप यहां किसलिए आये हैं?पंजाबी में जबाब मिलता है"खेतां दी मिट्टी को दिल्ली के माथे पे लगान वास्ते"यह किसान की शायरी है वे उद्घोष कर रहे हैं"खेतों की मिट्टी को दिल्ली के मस्तक पर लगाएं गे/मरम्मत करेंगे हम देश के बिगड़े मुक़द्दर की।" किसने देश का मुक़द्दर बिगाड़ा है?मै पूछता हूँ।जबाब दूसरा नौजवान देता है।"अरे आपको दिखता नही,देश का भाग्य विधाता विकास के ख़्याली रथ पर सवार है,उसके एक हाथ मे धर्म का चाबुक हैऔर दूसरे में पूंजी की तलवार है। इस रथ को खींच कौन रहा है?मैं फिर पूछता हूं।"बदकिस्मती तो यही है कि इस ख़्याली रथ को  देश का किसान और मजदूर खींच रहा है,लेकिन अब और नही,अब किसान जाग गया है,मजदूरों,आदिवासियों,छात्र,बेरोजगार नौजवानों,महिलाओं और इस रथ को खींचने में जुटे सभी लोगों के जागने का वक़्त है।मेरे आमीन कहने से पहले फोन की घंटी बज गई है,प्रगतिशील लेखक संघ और पंजाबी के सबसे बड़े अंतरराष्ट्रीय लेखक संगठन केंद्रीय पंजाबी लेखक सभा के राष्ट्रीय महासचिव सुखदेव सिंह सिरसा पूछ रहे हैं"आप लोग कहाँ पहुंचे हैं?सीधे मुख्य मंच पर आइये।मुख्य मंच तक पहुंचने के रास्ते को सिर्फ एक नौजवान साथी ने एक डंडे से रोक रखा है,11.30 बजे से शहीद किसानों को श्रद्धांजलि का कार्यक्रम चल रहा है।12 बजे से 2 बजे तक इसी मंच पर इप्टा,प्रलेस और केंद्रीय पंजाबी लेखक सभा का कार्यक्रम है। 12 बजते ही सिरसा जी के साथ मैं मंच पर पहुंच गया हूँ,बाकी लोगों को नीचे रोक दिया गया है।मैं बार बार कहता हूँ,हिंन्दी के जाने माने कथाकार शिवमूर्ति हमारे साथ हैं,उन्हें बुलाइये।मंच संचालक की ओर से बहुत विनम्रता से समझाया जाता है"मंच कमजोर है,एक एक कर के आते जाइये और बोल कर नीचे उतर जाइये।मंच से सुखदेव सिंह सिरसा,प्रो दीपक मलिक, संजीवन, शिवमूर्ति के अलावा पंजाबी के कई लेखकों ने संबोधित किया है,कई ने कविताएं सुनाई हैं,इस बीच सतीश कुमार और धर्मानंद लखेड़ा के नेतृत्व में उत्तराखंड इप्टा का दल आ पहुंचा है। वे कल मसूरी से पानीपत पहुंचे और रास्ते भर किसानों के बीच कार्यक्रम पेश करते आये हैं।यहां उन्होंने शलभ श्रीराम सिंह का सदाबहार इंकलाबी गीत"नफ़स नफ़स कदम कदम" पेश किया है,इप्टा के सारे कलाकार और श्रोता भी उनके साथ गा रहे हैं"घिरे हैं हम सवाल से हमे जबाब चाहिए"।उनके कार्यक्रम की समाप्ति के साथ दिलीप रघुवंशी के नेतृत्व में आगरा इप्टा की टीम भी पहुंच गई है, साज मिलाने का भी समय नही है,आनन फानन में वे राजेन्द रघुवंशी के भगतसिंह को समर्पित गीत को प्रस्तुत करते हैं"फांसी का फंदा चूम कर मरना सिखा दिया,मरना सिखा दिया अरे जीना सिखा दिया।"किसान की त्रासदी पर इप्टा के गीतकार और गायक भगवान स्वरूप योगेंद्र ने एक मार्मिक गीत  प्रस्तुत किया है"चली है आंधी खुदगार्जियों की गजब का तूफान आ रहा है/बुरा हाल है किसानों का अब जो सबकी भूख मिटा रहा है"।वे आगे और गाना चाहते हैं लेकिन समय का दबाव है,मंच पर मिनेट मिनेट के कार्यक्रम निर्धारित हैं।दिल्ली इप्टा की वर्षा और विनोद के व्यंग्य गीत"बाबा तेरी बातें सब समझे है जनता।"के साथ मुख्य मंच का कार्यक्रम समाप्त हो गया है। इस बीच साथी पीयूष सिंह के नेतृत्व में  पटना इप्टा के साथी भी आ पहुंचे हैं।सारे लेखक कलाकार जुलूस ले कर एक साथ उस ओर बढ़ रहे हैं जहां आल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन और इप्टा मोगा का टेंट है,जाहिर है अब भोजन का वक्त है।इस बीच कई पंजाबी चैनल्स और सोशल मीडिया चैनल्स के लोग कलाकारों और लेखकों का इंटरव्यू ले रहे हैं,छोटे बच्चों नौजवानों में इप्टा के झंडों और पोस्टर्स के साथ फोटो खिंचाने की होड़ है।इस आपाधापी में सब तितर बितर हो गए हैं।अलग अलग लंगरों में लोगों ने खाना खा लिया है,हमे पंगत में बैठ कर खाना खिलाया गया और पत्तल उठाने पर देर तक मीठी तकरार होती रही।उनकी परंपरा के अनुसार झूठी  पत्तल वे ही उठाएंगे और इप्टा की परंपरा के अनुसार हमारी ज़िद कि खाने वाले ही उठाएंगे,आखिर हमारा अनुरोध मान लिया गया।सिख धर्म इस बात में अनूठा है कि पंगत में बैठने, लंगर में खाने में कोई भेदभाव नही है हालांकि हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था का सामाजिक स्तर पर प्रभाव वहां भी पड़ा है।यहां इस बीच खेत मजदूर यूनियन के कुछ साथियों के साथ इप्टा की राष्ट्रीय समिति के सदस्य,राज्य सभा सांसद बिनोय विश्वम भी आ पहुंचे हैं। इस कैम्प के सामने ही आगरा, पटना,दिल्ली और पंजाब इप्टा ने जनगीत प्रस्तुत करने शुरू कर दिए हैं।आगरा इप्टा के ब्रज भाषा के गीत "लूलू तोहि पांच बरस नही भूलूँ।"पर तो सैकड़ों लोग नाचने लगे हैं। दिलीप रघुवंशी ने जोगीरा शुरू किया तो पटना के साथियों ने पीयूष द्वारा  समसामयिक  विषयों पर   लिखित जोगीरा का गायन अपने ही अंदाज़ में किया। जैसे- बनारस के घाट पर मिला एक इंसान , मैंने पूछा नाम तो बोला, मोदी हूँ महान, झोला लिए खड़ा था, बेचने देश चला था ...

सिंघु बॉर्डर के अलग अलग कैम्प में जाकर रात्रि 12 बजे तक गीतों का गायन चलता रहा। 

दूसरे दिन यानी 2 जनवरी को सुवह 10 बजे रिमझिम बरसात के बीच दिल्ली इप्टा के साथी विनोद कोष्टी,वर्षा और रजनीश,प्रख्यात लेखक शिवमूर्ति और राजेश श्रीवास्तव के साथ हम टिकरी बॉर्डर पर थे।बरसात के कारण यहां संयुक्त मंच से कार्यक्रम रुके हुए थे लेकिन हम जैसे ही वहां पहुंचे,पंजाब इप्टा के नौजवानों का एक दल वहां आ पहुंचा। एक ओर गीतों का सिलसिला शुरू हुआ तो दूसरी ओर कई स्थानीय चैनल्स पर इंटरव्यू का भी।शिवमूर्ति जी के एक पुराने मित्र भी यहां आ पहुंचे थे। दोपहर 1 बजे आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन के महासचिव,गायक,रंगकर्मी साथी विक्की माहेश्वरी के साथ पटना इप्टा की टीम भी यहां आ पहुंची।बिहार इप्टा के गीत"हल ही है औज़ार हमारा,हल से ही हल निकलेगा" के साथ यहां मुख्य मंच का कार्यक्रम शुरू हुआ।  जीवन यदु के लिखे इस गीत को बेहद सराहा गया। गौहर रज़ा की नज़्म किसान ( तुम किसानों को सड़कों पे ले आए हो, अब ये सैलाब है, और सैलाब तिनकों से रुकते नही...), गोरख पाण्डे की रचना पर आधारित गीत, किसानों की आवे पालतानिया, हिले रे झकझोर दुनिया, पंजाब से उठल है तुफनियाँ, हरियाणा से उठल है लहरिया , झकझोर  दुनिया, ये वक़्त की आवाज़ है, मिल के चलो,  जब तक रोटी के प्रश्नों पर पड़ा रहेगा भारी पत्थर, तू ज़िन्दा है तो ज़िन्दगी की जीत पर यकीन कर जैसे कई गीत गाये गए।

पुनः रात्रि में सिंघु बॉर्डर पर विभिन्न कैम्प में घूम घूम कर मध्य रात्रि तक अपने गीतों दे किसानों  का हौसला अफजाई की । किसान साथियों  में भगतसिंह के प्रति जज़्बे को देखते हुए फाँसी का झूला झूल गया, मस्ताना भगतसिंह... , सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल मे है के साथ साथ "लंगर के पिज़्ज़े तो दिख गए, दिसम्बर की ठंड तुम्हे दिखे नही" जैसे अन्य गीतों का भी गायन किया गया,।

तीसरे दिन यानि 3 जनवरी को भी  पटना इप्टा के साथियों ने  सिंघु बॉर्डर पर  सुबह से ही  दिन भर  गीतों की प्रस्तुतियों से  किसान आंदोलन में अपना समर्थन व्यक्त किया। नए कृषि कानून वापस होने की उम्मीद के साथ  इप्टा और प्रलेस के कलाकारों और लेखकों ने वहां अपनी कला,गीत और कविताओं से जितना दिया उससे ज्यादा लिया।वहां से लिया लड़ने का हौसला,आंदोलन को उत्सव में बदलने का सलीका।दिल्ली की सीमाओं पर किसान इंसानियत की पाठशाला चला रहे हैं,संविधान का पुनर्पाठ कर रहे हैं,बिना राजनैतिक नारों के संघर्ष की नई इबारत लिख रहे हैं।लौटने पर एक लेखक मित्र ने पूछा"इस आंदोलन की परिणति क्या होगी?"मैं ने वही दोहरा दिया जो 1857 में ग़ालिब ने कहा था"आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक।

मंगलवार, 29 सितंबर 2020

मज़दूर-किसान मिलकर बचाएँगे लुटेरों से हिंदुस्तान

 कॉमरेड बर्धन की याद में भारत के मज़दूर आंदोलन का विहंगावलोकन 

इंदौर। मज़दूर आंदोलन समाज के विकास के क्रम पर बहुत महत्त्वपूर्ण असर डालता है। हर तरह के शोषण के ख़िलाफ़ मज़दूर आंदोलन को अगुआ दस्ते की भूमिका में रहना चाहिए। जनपक्षीय और इंसानियत के मूल्यों वाली राजनीति और समाजवादी लक्ष्य के लिए मज़दूर आंदोलन को कभी कामयाबी हासिल होती है तो कभी शिकस्त भी लेकिन गलतियों से सीखकर आगे बढ़ना मज़दूर आंदोलन का बुनियादी लक्षण होता है। भारत में मज़दूर आंदोलन ने देश का इतिहास गढ़ने में अहम् भूमिका निभाई है और देश के मज़दूर आंदोलन को आगे बढ़ाने में कॉमरेड ए. बी. बर्धन की अहम् भूमिका रही है।  उन्होंने केवल एक ट्रेड यूनियन नेता के रूप में ही नहीं, बल्कि देश को फासीवादी राजनीति के कुचक्र से बचाने वाले एक कुशल राजनीतिज्ञ की भी भूमिका निभाई और ऐसा जीवन जिया जो हर कम्युनिस्ट के लिए एक मिसाल है। 

ये विचार विद्वान वक्ताओं ने साम्यवादी नेता कॉमरेड ए. बी. बर्धन के 95वें जन्म दिवस तथा श्रम संगठन ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन काँग्रेस (


एटक) की स्थापना के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में जोशी-अधिकारी इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज द्वारा 25 और 26 सितम्बर को आयोजित ज़ूम मीटिंग में व्यक्त किये। कार्यक्रम का विषय था "भारत के मजदूर आंदोलन की विरासत और आज के संघर्ष"। देश-विदेश से ज़ूम मीटिंग में शामिल बड़ी तादाद में उपस्थित श्रोताओं को संबोधित करते हुए आयोजन के अध्यक्ष सीपीआई के महासचिव कॉमरेड डी. राजा ने कहा कि कॉमरेड बर्धन महान श्रमिक नेता थे। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे कुशल वक्ता, लेखक और विचारक थे। उन्होंने देश में संप्रदायवाद और फासीवादी ताकतों को पहचाना और उनसे लड़े। कॉमरेड बर्धन ने स्वतंत्रता संग्राम में भी भागीदारी की थी। सन 1920 में एटक की स्थापना के बाद 1936 में कॉमरेड पी. सी. जोशी के प्रयासों से अखिल भारतीय किसान सभा, ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन आदि अनेक आनुषंगिक संगठनों का गठन किया गया। कॉमरेड बर्धन अपने विद्यार्थी दिनों से ही एआईएसएफ के साथ जुड़ गए थे और आज़ादी के आंदोलन में भागीदारी कर रहे थे। मज़दूरों के नेता के रूप में उन्होंने देश को नवउदारवाद के ख़तरों से आगाह किया, और मज़दूरों के संघर्ष को नेतृत्व दिया। कॉमरेड बर्धन ने भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा की राजनीति को बेनकाब किया था। जिस नवउदारवाद और साम्प्रदायिकता के खिलाफ कॉमरेड बर्धन ने अपने जीवन के अंतिम समय तक संघर्ष किया, वर्तमान मोदी सरकार उसी नवउदारवाद और साम्प्रदायिकता की नीतियों को अपनाकर देश के सामाजिक ताने-बाने और अर्थतंत्र को तबाह कर रही है। सुरक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश से देश की सुरक्षा भी खतरे में है। वर्तमान सरकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडे पर काम कर रही है। आज एक देश, एक संस्कृति, एक टैक्स, एक पार्टी, एक नेता की मांग के बहाने लोकतंत्र को समाप्त किया जा रहा है। लिबरल डेमोक्रेसी के सामने अतिवादी दक्षिण पंथ बड़ी चुनौती बना हुआ है जिसके ख़िलाफ़ कॉमरेड बर्धन जीवन भर लड़े। वे एटक और सीपीआई के महासचिव बने। उन्होंने पार्टी का कार्यक्रम लिखा था। वे केवल सीपीआई के ही नहीं पूरे वाम आंदोलन के मार्गदर्शक थे।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व महासचिव कॉमरेड सुधाक


र रेड्डी ने कहा कि कॉमरेड बर्धन ने अपना राजनीतिक जीवन महाराष्ट्र के नागपुर से लाल बावटा (झंडा) की यूनियनों के नेतृत्व से प्रारंभ किया। यूपीए सरकार में न्यूनतम कार्यक्रम को अमल करवाने में कॉमरेड बर्धन की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। यह कार्यक्रम समाज के सभी तबक़ों की भलाई सोचकर बनाया गया था और अनेक कल्याणकारी नीतियाँ उस दौरान बनीं। कॉमरेड बर्धन की दिलचस्पी और चिंता का एक विषय आदिवासी समाज भी था। उन्होंने उनकी समस्याओं का गहन अध्ययन किया और आदिवासी महासभा का गठन किया। उन्होंने सीपीएम के महासचिव कॉमरेड हरकिशन सिंह सुरजीत के साथ वाम दलों में आपसी समन्वय एवं संयुक्त कार्यवाही के लिए भी काम किया। वे बेहद मितव्ययी थे। उनका जीवन सादगीपूर्ण था। जब उन्हें पहली बार विदेश यात्रा पर जाने का अवसर मिला तब उनके पास एक सूट भी नहीं था। वहाँ की ठंड से बचने के लिए वे अपने साथी का सूट पहनकर गए थे। वहाँ से भी उन्होंने खरीदी के नाम पर केवल कुछ पुस्तकें ही खरीदी थीं। देश के कई राजनीतिक दलों के नेता कॉमरेड बर्धन से मिलते थे। पार्टी के काम, और लिखने-पढ़ने से समय निकालकर वे कभी-कभी क्रिकेट कमेन्ट्री सुनते तथा उन सांस्कृतिक आयोजनों में भी शिरकत करते थे जहाँ उन्हें आमंत्रित किया जाता था। वैचारिक मतभिन्नता के बावजूद कॉमरेड बर्धन ने नक्सलवादियों के एनकाउंटर एवं हत्या पर भी न्यायालय का ध्यान आकृष्ट करवाया था। कोई भी कॉमरेड अपनी छोटी-बड़ी ज़रूरतों के लिए उनके पास पहुँचता तो वे कुछ न कुछ हल निकालते थे। 

एटक की महासचिव कॉमरेड अमरजीत कौर ने अपने संबोधन में देश के श्रम आंदोलन के इतिहास तथा उनमें एटक की भूमिका की विस्तृत जानकारी दी। उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि इस वक्त देश के मजदूर वर्ग के सामने जो चुनौतियाँ है उसे उन्हें मिली विरासत के नज़रिये से देखना होगा। एटक श्रमिक वर्ग के संघर्षों की उपज है। सन 1820 एवं 40 के बीच सारी दुनिया में आंदोलन हो रहे थे। सन 1823 में देश में हड़ताल हुई थी। हालाँकि उस का इतिहास नहीं मिलता है। लेकिन 1827 की हड़ताल का इतिहास है, जब कलकत्ता के श्रमिकों ने अपनी माँगों को लेकर हड़ताल की थी। ऐसी ही जानकारी 1862 में हड़ताल की भी है। रेलवे, टैक्सी चालक आदि कई श्रम संगठन अपनी माँगों को लेकर संघर्ष कर रहे थे। सन 1866 में साठ यूनियनों की एक बैठक में काम के घंटे तय किए गए। यह विषय वर्तमान में प्रासंगिक है जब देश के शासक काम के घंटों को बढ़ाकर श्रमिक वर्ग का शोषण करने पर उतारू हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आई एल ओ) में भी एटक की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। उस काल में मज़दूर संगठन देश के अन्य आन्दोलनों को भी समर्थन देते थे जब संचार साधन भी पर्याप्त नहीं थे। वर्तमान में हड़ताल के अधिकारों को छीना जा रहा है। उस वक्त हड़तालें बिना यूनियनों के भी होती थी। जाति आधारित संगठन भी मजदूरों के लिए लड़ रहे थे। सन 1884 में साप्ताहिक अवकाश, भोजन का समय देने बच्चों से श्रम न करवाना आदि माँगों को लेकर कई आंदोलन हुए। सन 1890 में मुंबई में 10,000 श्रमिकों की रैली निकली थी। इस रैली में मजदूरों की उपस्थिति को उस काल में देश की जनसंख्या के मान से समझा जा सकता है। देश में श्रमिक आंदोलन विस्तार को देखते हुए यह महत्त्वपूर्ण घटना थी। भारत के तत्कालीन राजनीतिक संघर्षों में श्रम संगठनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। सन 1899 में कोलकाता में अनेक श्रम संगठन बने विशेषकर जहाजरानी क्षेत्र में श्रमिकों की बेहद मजबूत यूनियन थी। बीसवीं सदी में श्रम संगठन बनाने की प्रक्रिया तेज होती गई। श्रमिकों के आंदोलन देश की आजादी के आंदोलनों को प्रभावित कर रहे थे। काँग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में 50 हजार श्रमिकों ने पहुँच कर आयोजकों  से माँग की थी कि पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित किया जाए। नेताओं को समझ में आ रहा था कि श्रमिक वर्ग के ये आंदोलन देश की दशा और दिशा को बदल सकते है।

 जब अंग्रेज़ों द्वारा बंगाल का विभाजन किया गया तब उसके विरोध में हुए राष्ट्रव्यापी आंदोलनों में मजदूर संगठनों ने भी शिरकत की और हड़ताल कर बंग-भंग का विरोध किया। इन आंदोलनों में किसान भी शामिल होते थे। श्रम संगठनों ने लोकमान्य तिलक की गिरफ्तारी और उन्हें मिली सजा के विरोध में भी हड़ताल की। सन 1908 में तिलक को अंग्रेज़ सरकार द्वारा 6 वर्ष की कारावास की सजा दी गई थी, उसके विरोध में मज़दूरों ने देश में 6 दिन तक हड़ताल की। विशेषकर सूती वस्त्र उद्योग में यह हड़ताल हुई। सन 1861 में फैक्ट्री एक्ट बना 1911 में इस अधिनियम में परिवर्तन हुआ। सन 1917 में रूस में हुई क्रांति ने दुनिया के मजदूरों को प्रभावित किया। भारत भी इससे अछूता नहीं था। रूसी क्रांति के नायक कॉमरेड लेनिन ने भारत की आज़ादी को समर्थन दिया, जिससे देश के स्वतंत्रता संग्राम को बल मिला। 31 अक्टूबर 1920 को श्रम संगठन एटक का गठन हुआ जिसके प्रथम महासचिव लाला लाजपत राय बनाए गए। बाद में एटक के कई अधिवेशनों में जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस के अलावा वी. वी. गिरी, सरोजिनी नायडू, चितरंजन दास आदि शिरकत करते रहे। 1919 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आई एल ओ) में देश के मज़दूर वर्ग का नेतृत्व करने का अवसर मिला। सन 1921 में एटक का जो संविधान स्वीकार किया गया था उसी संविधान के कई लक्ष्यों को भारत के संविधान में भी शामिल किया गया। वर्तमान में बड़ी कुर्बानियों के पश्चात मिले श्रम अधिकारों को छीना जा रहा है। किसान आंदोलन को कुचलने के लिए भाजपा के गुंडों द्वारा किसानों को पीटा जा रहा है। ब्रिटिश काल में किसानों आदिवासियों को प्रताड़ित किया गया जिसके चलते उन्हें शहरों में रोज़गार के लिए पलायन करना पड़ा था, आज वैसी ही परिस्थितियाँ बन रही है। सरकार मज़दूरों, किसानों-आदिवासियों को कॉर्पोरेट का गुलाम बनाए रखना चाहती है। मज़दूर वर्ग की ज़िम्मेदारी है कि वह देश की आज़ादी को बचाने के लिए आगे आए। यह विरासत का ही सबक है कि आज किसान और मज़दूर एक दूसरे के संघर्षों को समर्थन दे रहे है।


कॉमरेड अमरजीत कौर ने कहा कि दुनिया में मानव अधिकार का आंदोलन श्रम संगठनों ने ही प्रारम्भ किया था। मज़दूरों ने कहा कि हम भी इंसान है, हमें भी आराम चाहिए, काम के घंटे, परिवार के साथ बिताने का समय मिलना चाहिए, बच्चों से मज़दूरी नहीं करवाई जा सकती। मज़दूर वर्ग ने मानव सभ्यता को बहुत कुछ दिया है। उन्नीसवीं सदी में मार्क्स ने कहा था कि शोषण की बेड़ियों को तोड़ा जा सकता है। बीसवीं सदी में लेनिन ने उसे सच साबित करके दिखा दिया। औपनिवेशिक गुलामी के विरोध में क्रांतिकारियों ने तर्कपूर्ण कुर्बानियां दी थी। यह नहीं भूला जा सकता कि भगत सिंह और उनके साथियों ने पार्लियामेंट में जब बम फेंका था उस दौरान उनके द्वारा फेंके गए पर्चों में अंग्रेज़ों द्वारा मज़दूरों के विरूद्ध लाए गए ट्रेड डिस्प्यूट बिल का विरोध किया गया था। आज मज़दूरों के साथ कौन खड़ा है इसे पहचानने की जरूरत है। श्रम आंदोलनों के संघर्षों और कुर्बानियों के बाद मिले अधिकार को हम किसी भी कीमत पर छिनने नहीं देंगे। आज़ादी के आंदोलन के दौरान ही यह समझ भी बनी थी कि देश के समस्त प्राकृतिक संसाधन देशवासियों की सम्पत्ति है। इनका उपयोग देशवासियों को अच्छा जीवन बिताने के लिए किया जाएगा। लंबी बहस के बाद सार्वजनिक क्षेत्र के माध्यम से विकास का खाका तैयार किया गया। आज की सरकार उन्हीं संसाधनों को बेच रही है। सभी जानते है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसकी राजनीतिक शाख जनसंघ, भाजपा का देश की आजादी के संघर्ष में कोई भूमिका नहीं थी। संघ के तत्कालीन नेताओं ने तो कहा था कि अंग्रज़ों से उनकी लड़ाई नहीं है। वे तो मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्टों का विरोध करते हैं।

वर्तमान में संसद में मज़दूर विरोधी बिल पारित किए गए है। सरकार झूठा प्रचार कर रही है कि वह असंगठित मज़दूरों के लिए है। वर्ष 2015 से इन बिलों पर विचार होता रहा था। सरकार द्वारा संसद में जो प्रस्ताव रखे गए वे 2015 के नहीं थे। उन्हें बदल दिया गया। सांसदों को भी नहीं बताया गया। इन बिलों से हड़ताल के अधिकार समाप्त हो जाएंगे। श्रम संगठन बनाना मुश्किल कर दिया गया है। सामाजिक सुरक्षा को समाप्त कर दिया गया है। वर्ष 2009 में असंगठित मज़दूरों के लिए बनाए कानूनों को समाप्त कर दिया गया है। इन सब के विरूद्ध चलने वाले हर आंदोलन के साथ खड़े रहने की ज़रूरत है। अन्याय के विरुद्ध हम पहले भी लड़े थे अब भी लडेंगे। जिस समय संसद में कोविड महामारी, प्रवासी मजदूरों, बिगड़ती अर्थव्यवस्था पर विचार होना चाहिए था। उस समय सरकार पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए मज़दूरों, किसानों के विरूद्ध काम कर रही है।


प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय सचिव विनीत तिवारी ने कॉमरेड बर्धन के साथ और उनके सान्निध्य में गुजरे समय को याद करते हुए कई संस्मरण सुनाए। उन्होंने बताया कि वे अपने पास अधिक सामान नहीं रखते थे। कॉमरेड बर्धन, जोशी-अधिकारी इंस्टिट्यूट द्वारा दिसंबर 2015 में आयोजित परिसंवाद में शामिल हुए। वह उनकी अंतिम बैठक थी। देश में असहिष्णुता के खिलाफ उस वक्त चल रहे आंदोलन के संदर्भ में बैठक में कॉमरेड बर्धन ने बताया कि फासीवादी ताकतें पहला हमला इतिहास पर ही करेगी। इस परिसंवाद में उन्होंने विख्यात इतिहासकार इरफान हबीब को भी बुलाया। दो दिन की इस बैठक में कई महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार हुआ। कॉमरेड बर्धन सदैव सुनने पर जोर देते थे। उनका मानना था कि अच्छा श्रोता बनना नेतृत्व का गुण है। वे कॉमरेड गोविंद पानसरे की हत्या पर बहुत दुखी थे।


भारतीय जन नाट्य संघ इप्टा के महासचिव राकेश ने कॉमरेड बर्धन के साथ अपने 4 दशकों से अधिक संबंधों का जिक्र करते हुए बताया कि इप्टा के पुनर्गठन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। सन 1984 में इप्टा की पहली बैठक कॉमरेड बर्धन की अध्यक्षता में ही हुई थी। आगरा के पहले सम्मेलन में भी वे शामिल हुए। कॉमरेड बर्धन ने इप्टा आंदोलन को वृहद स्वरूप देते हुए उसे देश की सांस्कृतिक से जोड़ा।


आयोजन के प्रारंभ में संस्था के निदेशक प्रोफेसर अजय पटनायक ने आयोजन की रूपरेखा प्रस्तुत की। कार्यक्रम में मनीष श्रीवास्तव ने भी कुछ संस्मरण सुनाए। आयोजन की समन्वयक जया मेहता ने संचालन करते हुए कहा कि आज जब देश के मजदूर और किसान काले कानूनों के विरूद्ध संघर्षरत हैं ऐसे समय में कॉमरेड बर्धन को याद करने का मतलब उनसे सही समझ और प्रेरणा हासिल करके मज़दूर वर्ग के संघर्ष को और तेज़ करना है।  एटक के 75 वर्ष पूरे होने पर कॉमरेड बर्धन द्वारा 1995  में लिखी गई किताब से जया मेहता ने कुछ महत्त्वपूर्ण अंश पढ़कर सुनाया और कहा कि जब मैंने इस महत्त्वपूर्ण किताब के अनुपलब्ध हो जाने पर कॉमरेड बर्धन से इसके पुनर्प्रकाशन का आग्रह  किया तो उन्होंने कहा कि 1995 से अब तक देश के मज़दूर आंदोलन में बहुत उतार-चढ़ाव और बदलाव आये है इसलिए इसमें काफी नई चीज़ें जोड़े जाने की ज़रूरत है| कॉमरेड अमरजीत कौर ने कहा कि आज कॉमरेड बर्धन को याद करते हुए हम जोशी-अधिकारी इंस्टिट्यूट और एटक की ओर से हम यह निश्चय करते है कि उनकी उस किताब को आधार बनाकर भारत के मजदूर आंदोलन के इतिहास को मौजूदा दौर तक अद्यतन करके प्रकाशित करेंगे।   

अंत में धन्यवाद देते हुए विनीत तिवारी ने बताया कि दो दिन के इस आयोजन में देश के 20 राज्यों से ज़ूम पर 200 श्रोता सम्मिलित हुए और फेसबुक पर इसे 13000 लोगों ने देखा। इसके अलावा अमेरिका, बांग्लादेश एवं अबू धाबी से भी अनेक प्रबुद्धजनों ने आयोजन में शिरकत की।  

- हरनाम सिंह 

बुधवार, 9 सितंबर 2020

अवतार सिंह संधू ‘पाश’ की 70 वीं जयंती पर विशेष

09 सितंबर, 2020

पाश : मेरे पिता - विंकल संधू

(मूल अंग्रेजी से अनुवाद - शेखर मल्लिक)

 

हम दोनों का साथ का सफ़र झटके से और क्रूरता से खत्म कर दिया गया. बुधवार, 23 मार्च, 1988 को, खालिस्तानियों के एक समूह ने मेरे पिता की हत्या कर दी. लेकिन, वे कभी पाश के अस्तित्व के सबसे महत्वपूर्ण हिस्से: उनका विश्वास, विचारधारा और चेतना को छू भी नहीं सके. विंकल संधू (पाश की बेटी) 

विंकल संधू 


बत्तीस साल बाद
, मेरे पिता लोगों के दिलों में रहते हैं और उन्हें प्रेरित करते हैं, बहसों को सुलगाते हैं, विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में शामिल हैं और अक्सर अनुसंधानकर्ताओं की पीएचडी का विषय हैं । आज भी, उनकी कविता युवाओं के जीवन को बदलती है और लडकों और लडकियों को उनके नक्शेकदम पर चलने के लिए प्रेरित करती है । यह कहने की जरूरत नहीं, मुझे इस क्रांतिकारी, ताकतवर, प्रभावशाली, प्रगतिशील और साहसी कवि की बेटी होने का गर्व है ।

मेरा जन्म जनवरी 1981 में तलवंडी सलेम (जालंधर) के एक छोटे से गाँव में हुआ था । वह ऐसा समय था, जब लोग बेटी के जन्म पर आँसू बहाते थे । लेकिन एक मेरे पिता थे - मेरे इस दुनिया में आने का जश्न मनाते, हमारे गाँव में सब को मिठाई बांटते और स्पीकर पर ज़ोर से संगीत बजाते ! उनकी खुशी पर कई लोग हैरान थे, लेकिन सिर्फ वही एक बेटी के जन्म की खूबसूरती, निष्कपटता और मूल्य को और वह एक परिवार में क्या लाती है, इस बात को, समझते थे ।

मैं सात साल की थी, जब वह त्रासदी घटी थी । पहली कक्षा में पढ़ने वाली मैं, मुझे यह महसूस नहीं हुआ कि यह पंजाब के लिए कितना बड़ा नुकसान है । मुझे सिर्फ इतना पता था कि मैं कभी भी अपने पिता की बाहों में दौड़कर नहीं जा पाऊंगी, या उनकी आवाज सुन सकूंगी, हम आपस में अपनी उपलब्धियां साझा कर सकेंगे, या उनके द्वारा दुलारी जा सकूंगी । धीरे-धीरे, यादें फीकी पड़ती गईं । 

ज्यों-ज्यों मैं बड़ी होती गयीमेरे परिवार ने मुझे उन्हें समझने में मदद की । वे कौन थे, एक पिता के रूप में, ज्यादा तो एक लेखक के रूप में । मेरी चाची पम्मी और राजिंदरअजीत और सुच्चा चाचा लोगमेरी माँमेरी दादी और मेरे पिता के कुछ सबसे करीबी दोस्तों - सुरिंदर धनजलचमन लालसुखविंदर कंबोज और अमरजीत चंदनउनमें से कुछ हैं – ने मुझे बताया कि मेरे पिता कैसे थे और आज मैं महसूस करती हूँ कि भले ही वे हमारे साथ नहीं हैमैं उन्हें जानती हूँ । मैं अपने दादा मेजर सोहन सिंह संधू की हमेशा कर्ज़दार हूँजो मेरे पिता के बारे में बताने के लिए मेरे लिए सबसे अच्छे स्त्रोत थे । पापा की मृत्यु के बादवही मेरे लिए पिता की तरह थे ।

पिछले तीन दशकों में, दुनिया भर से मेरे पास लोग आए हैं, यह बताने कि वे मेरे पिता को कितना प्यार और आदर करते है । कहने की जरूरत नहीं कि, इससे मैं बहुत गर्व महसूस करती हूँ, कृतज्ञता से अवाक और उनके सभी उदगारों से स्तब्ध होती हूँ । जब भी मैं तलवंडी सलेम वापस जाती हूँ, तो मुझे हमारे घर में रहने, खेतों को देखने और महसूस करने, जिन खेतों से वे इतना प्यार करते थे, और साधारण ‘पिंडका (ग्राम्य) जीवन जीने, जिसके बारे में उन्होंने लिखा था, में बहुत खुशी मिलती है । मैं इन क्षणों को उनके पोते-पोतियों के साथ बाँटने के लिए उतावली हूँ।

दुनिया भर में जितने भी कविता उत्सवों में मैंने जब भी भाग लिया है, उनमें पाश के लिए एक समर्पित खंड रहता है, और हमेशा एक प्रशंसक, उनमें यकीन करने वाला या उत्साही आदमी मिलता है जो उनकी कविता से जुड़ना चाहता है और उसके नक्शेकदम पर चलना चाहता है । अंतर्राष्ट्रीय पाश मेमोरियल ट्रस्ट जैसे संगठनों और दुनिया भर के रेडियो और टीवी चैनलों ने पाश की कविता को जिंदा रखने में मदद की है।

पाश: नन्हीं विंकल के साथ 

जैसे-जैसे साल बीतते गये, मैंने अपने बच्चों, अरमान और अनायत को उनके दादा के बारे में बताते हुए अपने दादाजी की जगह ले ली, और सुनिश्चित करती हूँ कि वे जानें कि वे वास्तव में कौन थे, उनका महत्व, और वह दुनिया के पढ़ने और अनुभव करने के लिए कितनी ताकतवर कविता पीछे छोड़ गए हैं

यदि वे आज जीवित होते, तो मुझे लगता है कि मेरा परिवार बहुत अलग जीवन जी रहा होता, लेकिन मैं उनके शब्दों और विचारधारा के अनुसार जीने की पूरी कोशिश करती हूँ ।

मेरे पिता की कुछ कविताओं ने मुझे अपने जीवन के कुछ सबसे कठिन फैसलों में राह दिखाई है और मैं हमेशा उनकी कृतज्ञ रहूँगी । उन्होंने मुझे उस महिला के रूप में भी तराशा है, जो मैं आज हूँ । उन्होंने मुझे और मेरी माँ को अपने शब्दों के जरिए जीते जाने की शक्ति दी है ।

मेरे लिविंग रूम में उनका चित्र उनकी कविता “सब तों खतरनाक” के ठीक बगल में टंगा हुआ है । मुझे लगता है कि वह हमें रोज देखते हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि हम किसी को अपने ख्वाबों को नष्ट नहीं करने देंगे । जब हाल ही में एक दुर्गम लगती चुनौती का सामना करना पड़ा, तो इस कविता ने मुझे आगे बढ़ने को सहारा दिया, जैसे मेरे पंखों के तले की हवा बनकर.

उसके नन्हें हाथों को केक काटने में कठनाई हो रही थी. वह मोमबत्तियों को देख दंग रह गयी थी, पहले जलाई और फिर फूंक मारकर बुझा दिया. विंकल एक साल की हुई थी. अड़तीस सर्दियों पहले, पाश ने अपनी बेटी के पहले जन्मदिन पर डायरी में लिखा था. कुछ महीनों बाद, वे खुशी मना रहे थे जिस तरह वह अचानक नये शब्दों को पकड़ने लगी थी. पाश ने इसे उसका मानव भाषा पर पकड़ हासिल करना कहा था.

पाश की कविता राहत और ताकत देती है, आगे जाने की उम्मीद और उर्जा देती है और अगली पीढ़ी को अपना खुद का रास्ता तलाशने के लिए राह दिखाती है. ऐसी ताकतवर और तरक्कीपसंद कविता को स्वीकार  करना, उसका उत्सव मनाना और उसे जिया जाना चाहिए, और ऐसा हुआ है ।

----------------------- 

अवतार सिंह संधू ‘पाश’

जन्म: 9 सितंबर, 1950 । जन्म-स्थान: तलवंडी सलेम नामक गाँव, तहसील नकोदर, जिला जालंधर (पंजाब)। 20 वीं सदी के आठवें और नवें दशक में उभरे पंजाबी के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कवि । नक्सलवाड़ी आन्दोलन से प्रभावित पाश अपनी प्रतिरोध की कविता के लिए जाने जाते हैं. उनकी कविताओं के संग्रह हैं – “लौह कथा” (1970), “उड्डदे बाजाँ मगर” (1974), “साडे समियाँ विच” (1978), लड़ांगे साथी (1988), खिल्लरे होए वर्के. देश – विदेश की अनेक भाषाओँ में पाश की कविताओं का अनुवाद हुआ है. युवा वर्ग के चहेते क्रांतिकारी कवि हैं. 23 मार्च, 1988 को मात्र 38 साल की उम्र में खालिस्तानी अलगाववादियों द्वारा उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी. 

                                


Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...