एक जायज़ डर है कि
तब सबकुछ सचमुच ही
गढ़ा नहीं जा सकता
पत्थरों को तराश कर
एक पहचानी हुई सूरत
जेहन के बाहर नहीं निकाली जा सकती
अब सबको पता है कि वह
कौन सा खुफ़िया तंत्र है
जिसके सहारे हमारी नियति के सभी रहष्य
सरेनज़र होने से रोक दिए जाते हैं,
कि कुछ भी स्पष्ट नहीं होता
अंधेरी गलियों के सारे लैम्पपोस्ट
बुझा दिए जाते हैं
जब अभिव्यक्ति एक ग़ैरमाफीदार जुर्म
करार दी जा चुकी होती है
हिमालय सा सच साबुत
सिस्टम की परखनली के पैंदे में
झूठ की महीन सुराख से
निकाल दिया जाता है,
अवशिष्ट की तरह...
और फिर रचने के लिए
पर्दे होते हैं और
उनके पीछे पैदा किया गया शून्य
पगलाये कुत्ते सा भौंकता है,
अनसुना कर दिया जाता है.
हाथों को चाटने वाले
और विचारों को नेस्तनाबूद करने वाले
दीमकों की बाढ़ से
खौफ़ खाना जहाँ
आखरी उपाय बच गया हो
सृजना के गीत रूँधे गले से
गाए नहीं जाते...
फिर भी,
सूरत बदलने की उम्मीद
तो जेब में पड़ी है अभी...
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