बेटी - १
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बेटी -
अंतत: एक परछाई होती है तुम्हारी,
जो अँधेरे में भी
छायाभास की तरह साथ बनी रहती है...
एक भरोसे का शमियाना बनकर
तुम्हें ढांपती, धुप, धूल, बारिश से बचाती हुई
अपनी कोशिश के आखरी सिरे तक !
एकदम पास, एकदम सजग !
इस निष्कर्ष पर यह उम्र लायी है मुझे
कि इसके हर क्षण पर बेटी की अंतरंगता
नमक की तरह जिंदगी का स्वाद कायम करती रही है !
बेटी,
जिसकी अनुपस्थिति में
दीवार के पास वाली मेज का मेजपोश
बदरंग लगता है
या अपनी रसोई से
चाय की महक उठती भी है तो
अजनबी सी लगती है...
पता नहीं चलता कि
चेहरे की दाढ़ी बढ़ गई है इतनी ज्यादा,
और बगीचे में बेली के पौधों में
पानी डालना भी एक नियम हुआ करता है गर्मियों में !
ज़मीन हिल सकती है,
सारी दीवारें भरभरा सकती हैं
मगर बेटी वह ठोस स्तंभ है जिसके पास का कोना
सबसे सुरक्षित बना रहता है हमेशा
क्या तुम मुझसे असहमत हो सकते ?
सुनो, बेटी जाने क्यों
इतनी-इतनी ज्यादा जिम्मेदार हुआ करती हैं
कि बे-फ़िक्री से
जिंदगी का सारा बोसीदापन
सोख लेती है,
सिर्फ एक लाड भारी मुस्कान देकर
सिर्फ एक बार लाड से
तुम्हें पुकार कर - "बाप्पा !"
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बेटी - २
उसके नन्हें कोमल से हाथ
जिसकी कनिष्ठ ऊँगली थामे मैं सैर को जाया करता था...
कब मुझे कंधे से सहारा देने वाले हो गए,
मैंने जाना नहीं...
नहीं गौर करता रह सका
उसकी बढती हुई उम्र से
ज्यादा नैसर्गिकतावश गढ़ती हुई उसकी परिपक्वता,
जो एक ठेठ वास्तविकता थी...!
मैंने अपनी तमाम व्यस्तताओं से अभिशप्त
नहीं था उसके पास तब उतनी देर, कि जितने में जान सकूँ
यह तथ्य कि,
तब वह ठीक अपनी माँ कि तरह,
किसी अँधेरे में रोने के लिए कोई वाजिब कोना
तलाशने के बजाय
अंधेरों से लड़ने के वास्ते
योजनायें बनाया करती थी...
और हर चोट पर मुस्कान का लेप
चढ़ाये रहती थी...
मैं कितना बेखबर था, किसी आश्वस्ति के मारे !
या मैं नहीं सुन सका भी,
उसकी हरेक हंसी के पीछे मेरी उदासियाँ माँजकर
मुझे खुशी से चमकता देखने का आग्रह...
बेटी, जो सबसे विलक्षण भेंट की तरह
मेरे सामने उपस्थित रही है...
मैं उसके 'होने' को फिर
ठीक-ठीक कैसे बयान करूँ ?
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बेटी - ३
मुझसे कहने लगती है
"बाबा, आपके पास बैठती हूँ तो
एक ताकत, एक तसल्ली
किसी करिश्में की मानिंद
मेरे वजूद में पैवस्त हो जाती है
और मुझे लगता है
मैं जीत सकती हूँ
हर चुनौती, चाहे वह लैंगिक हो या व्यावहारिक !
कि मैं सुरक्षित हूँ अब...
मैं ज्यादा हँसने लगती हूँ
मैं बक-बक करती ही जाती हूँ...
मैं खिल-खिल हँसती हूँ और आप
हमेशा की तरह, माँ के जैसे नहीं टोकते
न बुआ की तरह आँखें तरेर कर धमकाते हैं कि -
बस बहुत हो गया,
जवान हो रही हो,
होश करो !!!
बाबा, मैं वापस बच्ची ही तो हो जाती हूँ
जो माँ की डांट से घबरा कर
आपकी गोद में आ बैठती थी
और बैठे-बैठे चुपके से सो जाया करती थी !
आज भी
कई दफा मन करता है कि
जब कोई मुझे कोई तकलीफ दे
(और जिसे मैं आपके सिवा किसी से साझा करती भी नहीं,
आप जानते हो न बाबा, आप ही मेरे 'बेस्ट-फ्रेंड' रहे हो !)
तो आपके सिरहाने आ बैठूं और
देर तक अपनी उलझनें और
दर्द की सलवटें
आपकी नर्म बातों और गर्म दुलार से
सीधी करती रहूँ...
बाबा, आप मुझे हमेशा मेरा बचपन देते हो...!
यह सबसे सुखद है..."
और जब बेटी इतना कह मेरे कंधे पर
बच्ची की तरह अपना गाल दिए बैठ जाती है
तो, मैं भी हँसते-हँसते कह जाता हूँ,
"हाँ बेटी, यह मेरे लिए भी तो उतना ही सुखद है...!"
कुछ बातें जो रह जाती हैं कभी मन में, अनकही- अनसुनी... शब्दों के माध्यम से रखी जा सकती हैं,बरक्स... मेरे-तेरे मन की कई बातें... कई सारे अनुभव, कई सारे स्पंदन, कई सारे घाव और मरहम... व्यक्त होते हैं शब्दों के माध्यम से... मेरा मुझी से है साक्षात्कार, शब्दों के माध्यम से... तू भी मेरे मनमीत, है साकार... शब्दों के माध्यम से...
गठरी...
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मंगलवार, 23 अगस्त 2011
बेटी - तीन कवितायेँ
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