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मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011

औरत की भाषा


औरत के पास यों तो कई भाषाएँ होती हैं...
उसकी पहली और पुख्ता भाषा - प्रेम - है...
मगर जो अपने आप में लगभग
बेज़ुबान होती है...!
इतनी खामोश कि जिसे सिर्फ सुना नहीं जा सकता...!
औरत कहती नहीं कि
उसकी भाषा के बाहर
कहीं भी
कोई भी
उससे अलग रह सकता है ! मगर यह सच है...

वह आदमी जिसे वह अपना समझती है
अपनी भाषा से उसे पहले पहल बांधती है,
जो नहीं बंधता, वह उसका नहीं होता...
इसमें कुछ भी अनर्गल नहीं होता क्योंकि,
आदमी की आँखें जहाँ काम करती हैं, छिछला सा...
उसी जगह औरत, भाषा गढती है, उसे करीने से रखती और
आँखों की मानने के बजाय सबसे पहले एक अंदरूनी भाषा ईजाद करती है...
जिससे वह थाह सके सामने वाले को, बेध सके या
बाँध सके उसे, जिसके सम्मोहन से वह खुद बंधना चाहती है...
औरत यह जादू जानती है...
इस जादू को जीवन भर मांजती है...
इस तरह वह पुरुष से अलग हो जाती है...

प्रेम को परखने का गुर उसके पास होता है,
जो उसके सामने भाषा की परखनली से छन कर आता है...

औरत अपनी भाषा का इस्तेमाल
बहुत सध कर करती है !
जबकि वह भी कभी-कभी सिर्फ औरत होती है, खालिस औरत तो,
अपनी भाषा के पैंतरों से खुद को सुरक्षित भी करती है...
और गैर-औरतों का भ्रम भी तोडती है...
भाषा उसकी ताकत है, जिसमें वह शत्रु का ध्वंस,
और अपने प्रिय को दुलार, एक ही प्रतिबद्धता से कर सकती है !.

'प्रेम' जैसी भाषा की सारी शब्दावली
और व्याकरण --
पूछना औरत से,
और हो सके तो सीखना
कि कैसे हो जाती है,
भाषा उसके पास
एक कला, एक कवच और एक कटार !

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