जब भी ढूंढोगे मुझे
वक्त की किसी पिछवाड़े वाली,
काई लगी, चीकट... भरभराई सी दीवार पर एक
गुमनाम इश्तिहार सा
पीछे छूट गयी गयी किसी तारिख की मानिंद
मिलूँगा मैं...!
और तुम्हें चकित कर दूँगा...
कोई राह चलता, ऐन उसी वक्त गुजरेगा वहाँ से और
तुम्हारी उम्मीद के खिलाफ, तुमसे पूछेगा,
इस शख्स को जानते थे क्या ?
वह ताड़ चुका होगा, तुम्हारी कोशिश...
तुम्हारे लगातार झपकती पलकों की बेचैनी से !
तुम्हें ठिठका हुआ देखकर मेरे अक्स के सामने
बिलकुल काठ की तरह... कि तुम भी उस समय मेरे साथ
स्थिर अवस्था में होगे...
सिर्फ एक फर्क होगा कि तुम्हारे भीतर सांस उतरती होगी...
और तुम्हारा मांस कुछ गर्म होगा !
तुम सोचोगे, शायद...
यह आदमी ठीक अंदाज़ा लगा सकता है ! और जिरह कर सकता है !
यद्यपि मेरी स्मृतियाँ
तुम्हारे किसी समकालीन मकसद में नत्थी नहीं की जा सकेंगी
फिर भी यह तुम्हारा जाती मसला होगा कि
तुम उस दीवार के पास खड़े होकर मुझे याद करो...
और जब याद करते हुए टोके जाओ...
तो यह याद रहे -
तुम झटके से टाल सकने का अधिकार...
अपने पास सुरक्षित रखना !
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