बोल्शेविक क्रांति की याद में समाजवाद पर एक दिवसीय कार्यशाला और फ़िल्म प्रदर्शन
- विभोर मिश्रा
इंदौर, 7 नवम्बर 2013 .
“वो मौसम रूस के लिये सदी का सबसे सर्द मौसम था। जर्मनी से हर मोर्चे पर लगातार मिल रही हार, बिना बिजली, खाने और बग़ैर छत के लोग सिर्फ मरने के लिये जी रहे थे, और अंत में मर रहे थे। लाखों गरीब किसानों की मौत के साथ वो साल बीता।”
1916 इतिहास के पन्नों में कुछ इसी तरह दर्ज़ है. यही हालात ज़मीन बने 1917 के रूसी इंक़लाब की। मौका था अक्टूबर क्रांति की 96वीं वर्षगांठ का और जगह थी इंदौर में एमपीबीओए का दफ्तर।
7 नवम्बर को मनाये जाने वाले रूसी क्रांति दिवस को अक्टूबर क्रांति दिवस कहने पर अनेक लोगों को अचरज लगता है। दरअसल 1917 में रूस में जूलियन कैलेंडर प्रचलित था जिसके मुताबिक रूसी क्रांति 25 अक्टूबर को हुई थी। सारी दुनिया में प्रचलित मौजूदा ग्रेगोरियन कैलेंडर, जिसे हम लोग भी इस्तेमाल करते हैं, के मुताबिक उस दिन 7 नवम्बर की तारीख़ थी। इस दिन को दुनिया भर में सर्वहारा की ऐतिहासिक जीत के रूप में मनाया जाता है।
पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में पूँजीवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण नयी पीढ़ी के लोगों को सर्वहारा की इस महान क्रांति के इतिहास से वंचित रखा जा रहा है। यह कोई हज़ारों साल पहले की नहीं बल्कि सिर्फ़ 96 वर्ष पहले की ही घटना है जब आम लोगों ने पहले रूस को और फिर सारी दुनिया को हिलाकर रख दिया था। सन 1917 में हुई वह बोल्शेविक क्रांति दुनिया के अनेक देशों के इंकलाबियों के लिए प्रेरणा बनी। सन्दर्भ केन्द्र ने इंदौर में इस बार 7 नवम्बर 2013 को रूसी क्रांति की सालगिरह पर उस क्रांति के गौरवशाली इतिहास को सही परिप्रेक्ष्य में जानने-समझने को उत्सुक युवाओं के साथ पूरे दिन की एक कार्यशाला की, और रूस में हुई क्रांति के बारे में, क्रांति के बाद बने सोवियत संघ के बारे में, वहाँ हुए परिवर्तनों के बारे में विस्तार से जानने - समझने की कोशिश की। कार्यशाला में क्रांति को एक विज्ञान के रूप में समझने की कोशिश के साथ ही उन महान मज़दूरों, किसानों और इंकलाबियों को याद किया गया जिन्होंने दुनियाभर में इस यक़ीन को हमेशा के लिए पुख्ता किया कि यह दुनिया आम लोगों द्वारा बदली जा सकती है और पूंजीवाद कितना भी ताकतवर हो, वह भीतर से न केवल खुद खोखला होता है बल्कि मुनाफ़े की हवस में दुनिया को भी खोखला करता जाता है।
समाजवाद और पूँजीवाद क्या हैं? इस बुनियादी प्रश्न पर कॉमरेड जया मेहता के परिचयात्मक संक्षिप्त वक्तव्य के बाद रूसी क्रांति के पूर्व की परिस्थितियों का विवेचन किया गया जो 1917 की क्रांति का आधार बनीं। उन्होंने बाकुनिन के अराजकतावाद से लेकर पोपुलिस्ट नरोदनिकों के बारे में बताया जो ज़ार के शासन को राजनीतिक हत्याओं द्वारा ख़त्म करना चाहते थे लेकिन उसके बाद के समाज को लेकर स्पष्ट नहीं थे।
सन 1861 में रूस में ग़ुलाम किसानों को कथित आज़ादी देने वाले कानून से लेकर 1870 में पेरिस कम्यून से होते हुए लेनिन के भाई की नरोदनिक गुट के साथ ज़ार को बम से उड़ाने की साज़िश, गिरफ्तारी और हत्या के वाकये से होते हुए उन्नीसवीं सदी के अंत में नए मार्क्सवादी समूह के उभार के बारे में जानकारी दी। उन्होंने बताया कि 1900 के पहले तक लेनिन भी विभिन्न राजनीतिक विचारों वाले गुटों के हिस्सा थे। सन 1902 में उनके पर्चे "हमें क्या करना चाहिए" से खड़ी हुई बहस ने उनकी पार्टी के भीतर विभाजन कर दिया। लेनिन की पार्टी को ज़यादा वोट मिलने के कारण वह कहलायी बोल्शेविक और जिनके मत कम थे, वे कहलाये मेन्शेविक। सन 1903 से 1905 की असफल क्रांति से होते हुए पहले विश्वयुद्ध और फिर फरवरी 1917 की क्रांति और अक्टूबर में हुई समाजवादी क्रांति तक के इतिहास, उस समय के रूसी समाज और आर्थिक परिवर्तनों के बारे में विस्तार से बात हुई। चर्चा को संचालित करते हुए कॉमरेड विनीत तिवारी ने भागीदारों को उस वक़्त के मतभेदों और ट्राटस्की, प्लेखानोव, वेरा जासुलिश आदि क्रांतिकारियों और उनकी बहसों के मुद्दों को भी बताया।
पृष्ठभूमि स्पष्ट करने के बाद रूसी क्रांति के आंखोंदेखे गवाह रहे अमेरिकी पत्रकार जॉन रीड की किताब पर बनी फ़िल्म "वो दस दिन जब दुनिया हिल उठी" का प्रदर्शन किया गया। यह फ़िल्म विश्व के महान फ़िल्मकार आईजेन्स्टाइन के सहयोगी रहे ग्रिगोरी अलेक्सांद्रोव ने बनायी थी और इसमें पहले विश्व युद्ध और 1917 के दौर के कुछ ऑरिजिनल फुटेज का इस्तेमाल किया गया है। हिंदी में यह फ़िल्म सन्दर्भ केन्द्र द्वारा डब की गई है और अब तक इसके देश-विदेश में सैकड़ों प्रदर्शन हो चुके हैं। फ़िल्म में बताया गया कि सन 1861 में रूस से मज़दूर प्रथा खत्म होने के बाद लाखों किसान खेत छोडकर शहरों की ओर पलायन करने लगे, बद से बदतरी की ओर। चौड़ी सडकों और आलीशान इमारतों के चकाचौध भरे शहर के पीछे बसी बस्तियों में मज़दूरों की ज़िन्दगी किसी लिहाज़ से ग़ुलाम किसानों से बेहतर नहीं थी। ज़ार के खिलाफ आवाज़ उठना शुरु हो रही थी। और साथ ही क्रूर सशस्त्र दमन भी। इसी दौरान सन 1887 में एक युवा छात्र नेता को ज़ार के खिलाफ़ षड्यंत्र के आरोप में फांसी दे दी गयी. उसका नाम था अलेक्ज़ेंडर उल्यानोव. वह तब सत्रह के हुए व्लादिमिर उल्यानोविच ‘लेनिन’ का बड़ा भाई था। लेनिन ने बाद में मार्क्स को पढना शुरु किया और जाना कि ज़र को मरने से ज़यादा ज़रूरी इस व्यवस्था को बदलना है जो ज़र को असीमित शक्तियों का मालिक बनती है। ज़ारशाही के खिलाफ संघर्षरत लेनिन को पहली बार 1895 में गिरफ्तार किया गया. 1904 में जापान से मिली हार और सैंट पीटर्सबर्ग की भयानक सर्दियों के अगले साल पहली बडी हडताल हुई जिसमें 30 लाख से ज्यादा लोगों ने हिस्सा लिया. जिसे ज़ार द्वारा कुछ रियायत देने के वादे के साथ दबा दिया गया. बिगडते माहौल के बीच दूसरी हडताल साईबेरिया की सोना खदानों के मज़दूरों ने 1912 में और 1917 तक आते-आते ज़ारशाही के अंत के साथ ही क्रांति की कवायद तेज़ हो गयी. अक्टूबर 1917 में बोल्शेविक पार्टी ने लगभग बिना खून-खराबे के सत्ता हासिल की.
फ़िल्म के उपरांत हुई चर्चा में भागीदारों के सवालों का जवाब देते हुए कॉमरेड जया मेहता, कॉमरेड विनीत तिवारी और कॉमरेड अभय नेमा ने रूसी क्रांति के बाद बनी रूस के भीतर की गृहयुद्ध की परिस्थियों, एक पिछड़े और सामंती देश में समाजवादी क्रांति करने की मुश्किलों, लेनिन द्वारा अपनाई गयी नयी आर्थिक नीति (नेप), कृषि से सरप्लस का उद्योगों के भीतर स्थानांतरण, संपत्ति के सामाजिकीकरण, एक नए मनुष्य के निर्माण की कोशिश, वैश्विक आर्थिक मंदी, फ़ासीवाद के उभार और दूसरे विश्वयुद्ध की परिस्थितियों से लेकर सोवियत संघ के विघटन के कारणों व् मौजूदा हालात पर भी बात की। सवाल-जवाब के दौरान हिंसा से समाजवाद का सम्बन्ध जोड़ने वाले पूंजीवादी मीडिया की साज़िशों और सर्वहारा की तानाशाही का अर्थ भी स्पष्ट किया गया और रूसी क्रांति का दुनिया के बाकी देशों के लिए महत्त्व भी रेखांकित किया गया।
कॉमरेड जया मेहता ने पूर्व समाजवादी देशों की योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था और उससे सामाजिक सम्बन्धों में होने वाले बदलावों के बारे में विस्तार से बताया। समाजवादी जर्मनी और बर्लिन की दीवार टूटने के बाद एकीकरण से पूंजीवादी चंगुल में आये जर्मनी - दोनों के फर्क को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि समाजवाद में उपभोक्ता वस्तुएं ज़यादा नहीं थीं लेकिन ज़रूरी चीज़ें सभी के लिए थीं। नब्बे फीसदी से ज़यादा औरतें रोज़गार में थीं। उन्हें सम्मान, सुरक्षा और रोज़गार देना ही नहीं , बल्कि उनके बच्चों को पौष्टिक खाना, अच्छी शिक्षा, खेल के अवसर देना, बुज़ुर्गों की देखभाल करना भी राज्य की ज़िम्मेदारी थी। यह स्थिति पूंजीवाद कभी नहीं कर सकता क्योंकि उसका निज़ाम ही शोषण के आधार पर चलता है। लेकिन जो समर्थ हैं, उन्हें लगता है कि हम पूंजीवादी व्यवस्था में ज़यादा कमाएंगे और ज़यादा सुख से रहेंगे क्योंकि हमारे पास अधिक योग्यता है, तो वे पूंजीवाद के प्रति आकृष्ट होते हैं। इस आकर्षण को ज़बरदस्ती नहीं रोका जा सकता। इसीलिये लेनिन ने अंतरराष्ट्रीयतावाद की बात की थी ताकि पूरी दुनिया के लोगों में समाजवादी मानसिकता का निर्माण हो सके।
कॉमरेड अभय नेमा ने अपनी पुस्तक लेनिन का अंश सुनाते हुए सोवियत संघ की उपलब्धियों की चर्चा की और बताया कि वहाँ शोषितों के पक्ष में 1917 की क्रांति के तुरंत बाद इतनी चीज़ें हुई थीं जिनके लिए हम आज भी लड़ रहे हैं और किसी पूंजीवादी देश में ऐसे प्रगतिशील कार्यक्रमों को लागू करने का माद्दा नहीं है।
अंत में क्यूबा, वेनेज़ुएला, निकारागुआ, बोलीविया, इक्वेडोर, नेपाल आदि देशों से होते हुए बात हिंदुस्तान तक आयी। सवाल उठा कि क्या हिंदुस्तान जैसे देश में रूस जैसी क्रांति हो सकती है? वक्ताओं ने जवाब में कहा कि हिंदुस्तान में हिंदुस्तान के किस्म की ही क्रांति होगी, न रूस जैसी और न चीन या क्यूबा जैसी। लेकिन क्रांति ज़रूर हो सकती है। जब रूस कि जनता ने रूस के भीतर क्रांति की तो कौन सोचता था कि रूस जैसे पिछड़े, अनपढ़ और गरीब लोगों के देश में क्रांति हो सकती है। हो सकती है तो कितने दिन टिक सकती है। लेकिन क्रांति रूस के लोगों ने मुमकिन की और उसे आगे भी बढ़ाया। रूस की क्रांति यही सिखाती है कि जब तक दुनिया के किसी भी हिस्से में पूँजीवाद, शोषण और गैर बराबरी है तब तक वहाँ क्रांति ज़रूर हो सकती है, और उसे मुमकिन करना क्रांतिकारी शक्तियों की ज़िम्मेदारी है।
इस कार्यशाला में भागीदारी की पंखुडी मिश्रा, सारिका श्रीवास्तव, जया मेहता, आस्था तिवारी, समीक्षा दुबे, रुचिता श्रीवास्तव, अभय नेमा, विभोर मिश्रा, हेमंत चौहान, केसरी सिह, तौफीक़ होमी, राज लोगरे, सुरेश डूडवे, सुरेश सोनी और विनीत तिवारी ने। रूसी क्रांति की याद से उपजी ऊर्जा और वैचारिक ऊष्मा से भरे प्रतिभागियों ने चाहा कि वे दुनिया के बाकी देशों में हुई क्रांतियों के बारे में भी जानने-समझने और सोचने के लिए जल्द फिर मिलेंगे।
सम्पर्क- 09755555293
- विभोर मिश्रा
इंदौर, 7 नवम्बर 2013 .
“वो मौसम रूस के लिये सदी का सबसे सर्द मौसम था। जर्मनी से हर मोर्चे पर लगातार मिल रही हार, बिना बिजली, खाने और बग़ैर छत के लोग सिर्फ मरने के लिये जी रहे थे, और अंत में मर रहे थे। लाखों गरीब किसानों की मौत के साथ वो साल बीता।”
1916 इतिहास के पन्नों में कुछ इसी तरह दर्ज़ है. यही हालात ज़मीन बने 1917 के रूसी इंक़लाब की। मौका था अक्टूबर क्रांति की 96वीं वर्षगांठ का और जगह थी इंदौर में एमपीबीओए का दफ्तर।
7 नवम्बर को मनाये जाने वाले रूसी क्रांति दिवस को अक्टूबर क्रांति दिवस कहने पर अनेक लोगों को अचरज लगता है। दरअसल 1917 में रूस में जूलियन कैलेंडर प्रचलित था जिसके मुताबिक रूसी क्रांति 25 अक्टूबर को हुई थी। सारी दुनिया में प्रचलित मौजूदा ग्रेगोरियन कैलेंडर, जिसे हम लोग भी इस्तेमाल करते हैं, के मुताबिक उस दिन 7 नवम्बर की तारीख़ थी। इस दिन को दुनिया भर में सर्वहारा की ऐतिहासिक जीत के रूप में मनाया जाता है।
पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में पूँजीवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण नयी पीढ़ी के लोगों को सर्वहारा की इस महान क्रांति के इतिहास से वंचित रखा जा रहा है। यह कोई हज़ारों साल पहले की नहीं बल्कि सिर्फ़ 96 वर्ष पहले की ही घटना है जब आम लोगों ने पहले रूस को और फिर सारी दुनिया को हिलाकर रख दिया था। सन 1917 में हुई वह बोल्शेविक क्रांति दुनिया के अनेक देशों के इंकलाबियों के लिए प्रेरणा बनी। सन्दर्भ केन्द्र ने इंदौर में इस बार 7 नवम्बर 2013 को रूसी क्रांति की सालगिरह पर उस क्रांति के गौरवशाली इतिहास को सही परिप्रेक्ष्य में जानने-समझने को उत्सुक युवाओं के साथ पूरे दिन की एक कार्यशाला की, और रूस में हुई क्रांति के बारे में, क्रांति के बाद बने सोवियत संघ के बारे में, वहाँ हुए परिवर्तनों के बारे में विस्तार से जानने - समझने की कोशिश की। कार्यशाला में क्रांति को एक विज्ञान के रूप में समझने की कोशिश के साथ ही उन महान मज़दूरों, किसानों और इंकलाबियों को याद किया गया जिन्होंने दुनियाभर में इस यक़ीन को हमेशा के लिए पुख्ता किया कि यह दुनिया आम लोगों द्वारा बदली जा सकती है और पूंजीवाद कितना भी ताकतवर हो, वह भीतर से न केवल खुद खोखला होता है बल्कि मुनाफ़े की हवस में दुनिया को भी खोखला करता जाता है।
समाजवाद और पूँजीवाद क्या हैं? इस बुनियादी प्रश्न पर कॉमरेड जया मेहता के परिचयात्मक संक्षिप्त वक्तव्य के बाद रूसी क्रांति के पूर्व की परिस्थितियों का विवेचन किया गया जो 1917 की क्रांति का आधार बनीं। उन्होंने बाकुनिन के अराजकतावाद से लेकर पोपुलिस्ट नरोदनिकों के बारे में बताया जो ज़ार के शासन को राजनीतिक हत्याओं द्वारा ख़त्म करना चाहते थे लेकिन उसके बाद के समाज को लेकर स्पष्ट नहीं थे।
सन 1861 में रूस में ग़ुलाम किसानों को कथित आज़ादी देने वाले कानून से लेकर 1870 में पेरिस कम्यून से होते हुए लेनिन के भाई की नरोदनिक गुट के साथ ज़ार को बम से उड़ाने की साज़िश, गिरफ्तारी और हत्या के वाकये से होते हुए उन्नीसवीं सदी के अंत में नए मार्क्सवादी समूह के उभार के बारे में जानकारी दी। उन्होंने बताया कि 1900 के पहले तक लेनिन भी विभिन्न राजनीतिक विचारों वाले गुटों के हिस्सा थे। सन 1902 में उनके पर्चे "हमें क्या करना चाहिए" से खड़ी हुई बहस ने उनकी पार्टी के भीतर विभाजन कर दिया। लेनिन की पार्टी को ज़यादा वोट मिलने के कारण वह कहलायी बोल्शेविक और जिनके मत कम थे, वे कहलाये मेन्शेविक। सन 1903 से 1905 की असफल क्रांति से होते हुए पहले विश्वयुद्ध और फिर फरवरी 1917 की क्रांति और अक्टूबर में हुई समाजवादी क्रांति तक के इतिहास, उस समय के रूसी समाज और आर्थिक परिवर्तनों के बारे में विस्तार से बात हुई। चर्चा को संचालित करते हुए कॉमरेड विनीत तिवारी ने भागीदारों को उस वक़्त के मतभेदों और ट्राटस्की, प्लेखानोव, वेरा जासुलिश आदि क्रांतिकारियों और उनकी बहसों के मुद्दों को भी बताया।
पृष्ठभूमि स्पष्ट करने के बाद रूसी क्रांति के आंखोंदेखे गवाह रहे अमेरिकी पत्रकार जॉन रीड की किताब पर बनी फ़िल्म "वो दस दिन जब दुनिया हिल उठी" का प्रदर्शन किया गया। यह फ़िल्म विश्व के महान फ़िल्मकार आईजेन्स्टाइन के सहयोगी रहे ग्रिगोरी अलेक्सांद्रोव ने बनायी थी और इसमें पहले विश्व युद्ध और 1917 के दौर के कुछ ऑरिजिनल फुटेज का इस्तेमाल किया गया है। हिंदी में यह फ़िल्म सन्दर्भ केन्द्र द्वारा डब की गई है और अब तक इसके देश-विदेश में सैकड़ों प्रदर्शन हो चुके हैं। फ़िल्म में बताया गया कि सन 1861 में रूस से मज़दूर प्रथा खत्म होने के बाद लाखों किसान खेत छोडकर शहरों की ओर पलायन करने लगे, बद से बदतरी की ओर। चौड़ी सडकों और आलीशान इमारतों के चकाचौध भरे शहर के पीछे बसी बस्तियों में मज़दूरों की ज़िन्दगी किसी लिहाज़ से ग़ुलाम किसानों से बेहतर नहीं थी। ज़ार के खिलाफ आवाज़ उठना शुरु हो रही थी। और साथ ही क्रूर सशस्त्र दमन भी। इसी दौरान सन 1887 में एक युवा छात्र नेता को ज़ार के खिलाफ़ षड्यंत्र के आरोप में फांसी दे दी गयी. उसका नाम था अलेक्ज़ेंडर उल्यानोव. वह तब सत्रह के हुए व्लादिमिर उल्यानोविच ‘लेनिन’ का बड़ा भाई था। लेनिन ने बाद में मार्क्स को पढना शुरु किया और जाना कि ज़र को मरने से ज़यादा ज़रूरी इस व्यवस्था को बदलना है जो ज़र को असीमित शक्तियों का मालिक बनती है। ज़ारशाही के खिलाफ संघर्षरत लेनिन को पहली बार 1895 में गिरफ्तार किया गया. 1904 में जापान से मिली हार और सैंट पीटर्सबर्ग की भयानक सर्दियों के अगले साल पहली बडी हडताल हुई जिसमें 30 लाख से ज्यादा लोगों ने हिस्सा लिया. जिसे ज़ार द्वारा कुछ रियायत देने के वादे के साथ दबा दिया गया. बिगडते माहौल के बीच दूसरी हडताल साईबेरिया की सोना खदानों के मज़दूरों ने 1912 में और 1917 तक आते-आते ज़ारशाही के अंत के साथ ही क्रांति की कवायद तेज़ हो गयी. अक्टूबर 1917 में बोल्शेविक पार्टी ने लगभग बिना खून-खराबे के सत्ता हासिल की.
फ़िल्म के उपरांत हुई चर्चा में भागीदारों के सवालों का जवाब देते हुए कॉमरेड जया मेहता, कॉमरेड विनीत तिवारी और कॉमरेड अभय नेमा ने रूसी क्रांति के बाद बनी रूस के भीतर की गृहयुद्ध की परिस्थियों, एक पिछड़े और सामंती देश में समाजवादी क्रांति करने की मुश्किलों, लेनिन द्वारा अपनाई गयी नयी आर्थिक नीति (नेप), कृषि से सरप्लस का उद्योगों के भीतर स्थानांतरण, संपत्ति के सामाजिकीकरण, एक नए मनुष्य के निर्माण की कोशिश, वैश्विक आर्थिक मंदी, फ़ासीवाद के उभार और दूसरे विश्वयुद्ध की परिस्थितियों से लेकर सोवियत संघ के विघटन के कारणों व् मौजूदा हालात पर भी बात की। सवाल-जवाब के दौरान हिंसा से समाजवाद का सम्बन्ध जोड़ने वाले पूंजीवादी मीडिया की साज़िशों और सर्वहारा की तानाशाही का अर्थ भी स्पष्ट किया गया और रूसी क्रांति का दुनिया के बाकी देशों के लिए महत्त्व भी रेखांकित किया गया।
कॉमरेड जया मेहता ने पूर्व समाजवादी देशों की योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था और उससे सामाजिक सम्बन्धों में होने वाले बदलावों के बारे में विस्तार से बताया। समाजवादी जर्मनी और बर्लिन की दीवार टूटने के बाद एकीकरण से पूंजीवादी चंगुल में आये जर्मनी - दोनों के फर्क को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि समाजवाद में उपभोक्ता वस्तुएं ज़यादा नहीं थीं लेकिन ज़रूरी चीज़ें सभी के लिए थीं। नब्बे फीसदी से ज़यादा औरतें रोज़गार में थीं। उन्हें सम्मान, सुरक्षा और रोज़गार देना ही नहीं , बल्कि उनके बच्चों को पौष्टिक खाना, अच्छी शिक्षा, खेल के अवसर देना, बुज़ुर्गों की देखभाल करना भी राज्य की ज़िम्मेदारी थी। यह स्थिति पूंजीवाद कभी नहीं कर सकता क्योंकि उसका निज़ाम ही शोषण के आधार पर चलता है। लेकिन जो समर्थ हैं, उन्हें लगता है कि हम पूंजीवादी व्यवस्था में ज़यादा कमाएंगे और ज़यादा सुख से रहेंगे क्योंकि हमारे पास अधिक योग्यता है, तो वे पूंजीवाद के प्रति आकृष्ट होते हैं। इस आकर्षण को ज़बरदस्ती नहीं रोका जा सकता। इसीलिये लेनिन ने अंतरराष्ट्रीयतावाद की बात की थी ताकि पूरी दुनिया के लोगों में समाजवादी मानसिकता का निर्माण हो सके।
कॉमरेड अभय नेमा ने अपनी पुस्तक लेनिन का अंश सुनाते हुए सोवियत संघ की उपलब्धियों की चर्चा की और बताया कि वहाँ शोषितों के पक्ष में 1917 की क्रांति के तुरंत बाद इतनी चीज़ें हुई थीं जिनके लिए हम आज भी लड़ रहे हैं और किसी पूंजीवादी देश में ऐसे प्रगतिशील कार्यक्रमों को लागू करने का माद्दा नहीं है।
अंत में क्यूबा, वेनेज़ुएला, निकारागुआ, बोलीविया, इक्वेडोर, नेपाल आदि देशों से होते हुए बात हिंदुस्तान तक आयी। सवाल उठा कि क्या हिंदुस्तान जैसे देश में रूस जैसी क्रांति हो सकती है? वक्ताओं ने जवाब में कहा कि हिंदुस्तान में हिंदुस्तान के किस्म की ही क्रांति होगी, न रूस जैसी और न चीन या क्यूबा जैसी। लेकिन क्रांति ज़रूर हो सकती है। जब रूस कि जनता ने रूस के भीतर क्रांति की तो कौन सोचता था कि रूस जैसे पिछड़े, अनपढ़ और गरीब लोगों के देश में क्रांति हो सकती है। हो सकती है तो कितने दिन टिक सकती है। लेकिन क्रांति रूस के लोगों ने मुमकिन की और उसे आगे भी बढ़ाया। रूस की क्रांति यही सिखाती है कि जब तक दुनिया के किसी भी हिस्से में पूँजीवाद, शोषण और गैर बराबरी है तब तक वहाँ क्रांति ज़रूर हो सकती है, और उसे मुमकिन करना क्रांतिकारी शक्तियों की ज़िम्मेदारी है।
इस कार्यशाला में भागीदारी की पंखुडी मिश्रा, सारिका श्रीवास्तव, जया मेहता, आस्था तिवारी, समीक्षा दुबे, रुचिता श्रीवास्तव, अभय नेमा, विभोर मिश्रा, हेमंत चौहान, केसरी सिह, तौफीक़ होमी, राज लोगरे, सुरेश डूडवे, सुरेश सोनी और विनीत तिवारी ने। रूसी क्रांति की याद से उपजी ऊर्जा और वैचारिक ऊष्मा से भरे प्रतिभागियों ने चाहा कि वे दुनिया के बाकी देशों में हुई क्रांतियों के बारे में भी जानने-समझने और सोचने के लिए जल्द फिर मिलेंगे।
सम्पर्क- 09755555293
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार को (14-11-2013) ऐसा होता तो ऐसा होता ( चर्चा - 1429 ) "मयंक का कोना" पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चाचा नेहरू के जन्मदिवस बालदिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'