झाँसी, रविवार, ६ अप्रैल, २०१४. 'अभियान', प्रगतिशील लेखक संघ', 'इप्टा' की मासिक कहानी गोष्ठी, "कथा चर्चा" 'राजकीय संग्रहालय' के उद्यान में शाम ३ बजे से आयोजित हुई, जिस में शेखर मल्लिक की 'खानाबदोश कामगार' पर चर्चा हुई. 'खानाबदोश कामगार' त्रैमासिक पत्रिका "दूसरी परम्परा" के फरवरी - १४, अंक - २ में प्रकाशित हुई है.
विमर्श में भाग लेते हुए फिल्म रायटर्स एसोसियेशन के सदस्य मुहम्मद शाहीद ने कहा कि काम की तलाश में घर-द्वार छोड़ने वाले मजदूरों की त्रासदी को उकेरती कहानी, 'खानाबदोश कामगार' इतनी जीवंत प्रस्तुति है कि इसका फिल्मांकन आवश्यक लगता है.
स्थापित कथाकार बृजमोहन का कहना था कि कहानी जिस वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है, वह विकल्पहीन है. शोषण उसकी न्जियती बन चुकी है. सिर्फ़ जीने की शर्त पर वह शोषण, उत्पीड़न, अपमान, कुंठा, हताशा, ज़लालत झेल रहा है.
'इप्टा' के अध्यक्ष डॉ. (प्रो.) मोहम्मद इकबाल का कहना था कि रूरल मायग्रेशन पर यह बेहद सशक्त कहानी है. यह महात्मा गाँधी की ग्राम समाज की परिकल्पना को नेपथ्य में धकेलती प्रतीत होती है.
कवि - चित्रकार कुंती हरिराम का मानना था कि 'खानाबदोश कामगार' इतने यथार्थ रूप में सामने आती है कि झकझोर कर राख देती है. ऐसा लगता है कि, शेखर मल्लिक प्रस्तुत समाज के स्वयं द्रष्टा और भोक्ता हैं.
सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव डॉ. (प्रो) नईम मुहम्मद का कहना था कि कहानी दृश्य दर दृश्य ज़ेहन में उतरती चली जाती है. वह संवेदनाओं के स्तर पर पाठकों को सामान धरातल पर ला खड़ा करती है.
शेखर मल्लिक की कहानी 'खानाबदोश कामगार' पर विस्तृत व्याख्या में कहा गया कि कहानी समाज के उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है जिसकी जगह हाशिये पर भी तय नहीं हो पाई है. जिनके लिये समाज कल्याण की किसी योजना का कोई अर्थ नहीं है. वह शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, सामाजिक सुरक्षा/न्याय किसी से भी संबंधित क्यों न हो. क्योंकि भूख की भयावहता के चलते जब गाँव-ज्वार के घरों में ताले लटक गए हों, उनमें रहने वाले दिल्ली, पंजाब, यू.पी.,चेन्नई, कोलकाता के फुटपाथों पर फिंक दिए गए हों कभी न लौटने के लिये, ईंट भट्टों में बंधुआ मजदूर बने सिर्फ़ रोटी के मूल्य पर मरखप रहे हों, स्त्रियाँ एक मालिक से दूसरे मालिक के हाथों बिक रही हों, दिन भर काम और रात में देह सुख प्रदान करने के लिये, लड़कियाँ दिल्ली के अभिजात्य बंगलों की निर्मम और नकचढ़ी मालकिनों की लताड़ खा रही हों, 'घर' फोन पर बात करने या एक पोस्टकार्ड लिखवाने के लिये तरस रही हों तो काहे की योजना और कैसा उनसे लाभ !
'खानाबदोश कामगार' उस मिथ को भी तोड़ती है जो निहित राजनैतिक महत्वाकांक्षा पुरी करने के लिये लोगों को समझाता है कि उसकी दुर्दशा का अंत छोटे छोटे राज्यों के निर्माण में है. एक बार राज्य बन जाय तो उस क्षेत्र की जनता दूधों नहाने, पूतों फलने लगेगी. 'खानाबदोश कामगार' में एक जगह शेखर मल्लिक कहते हैं - 'जब यह नया प्रदेश बना तो सुना कि सरकार 'अपने लोगों' के वास्ते बहुत कुछ करेगी... मगर सूबा बने दस सालों में पाँच मुख्यमंत्री बने...' नहीं बदले तो वहाँ के लोगों के हालात. वे उन दस सालों में भी जल-जंगल-ज़मीन से वंचित होते रहे. जैसे पिछले पचास सालों और उससे पहले से होते आ रहे थे.उनके लिये अंग्रजों की गुलामी से मुक्ति का कोई अर्थ नहीं था. ठीक वैसे ही पहली दूसरी आज़ादी या सम्पूर्ण क्रांति जैसे जोशीले नारों का भी कोई मतलब नहीं था -- मालिक बदल जाने से गुलाम की स्थिति पर क्या अंतर पड़ता है --
बिहार/झारखण्ड के वंचित समाज की त्रासदी बयां कर रहे हैं शेखर मल्लिक. लेकिन यह कहानी छत्तीसगढ़, उड़ीसा, बंगाल, बुंदेलखंड कहीं की भी हो सकती है. केवल पत्रों के नाम और स्थान बदलने होंगे. इसलिए 'खानाबदोश कामगार' अपने वर्ग की प्रतिनिधि कहानी होने की हैसियत रखती है. कहानी की यह सबसे बड़ी सफलता है.
लेकिन शेखर मल्लिक सिर्फ़ कहानी कह रहे हैं. कोई ज़मीन तोड़ते दिखाई नहीं दे रहे हैं. यथास्थिति के विरुद्ध कोई प्रतिरोध पैदा नहीं कर रहे हैं उनके पात्र. जबकि अनेक स्थानों पर वंचित समाज ठहरे हुए जल में हलचल भी पैदा कर रहा है. जल-जंगल-ज़मीन के अधिकार के लिये लड़ भी रहा है. ऐसे भयानक शोषण के बावजूद यथास्थिति को स्वीकारते चले जाना असहज करता है.
कहानी बहुत कसी हुई है. एक भी शब्द अनावशयक नहीं लगता है. कहानी की बुनावट कभी-कभी रिपोतार्ज होने का भ्रम उत्पन्न करती है. यथास्थिति लोकभाषा का प्रयोग, स्थानीय लोकगीतों की प्रस्तुति पाठक को शिद्दत से बांधती है. अनूठे और मौलिक मुहावरे रोमांचक ढंग से चौंकते हैं. जैसे 'मृत्यु की पुचकार' सी आग..... सीधे जा गिरा था भट्टी के मुँह में और 'जिंदा लकड़ी' की तरह जलकर राख हो गया.
कथा चर्चा की अध्यक्षता अजय दूबे ने की. संगोष्ठी का संचालन दिनेश बैस ने किया.
(दिनेश बैस द्वारा प्रस्तुत)
विमर्श में भाग लेते हुए फिल्म रायटर्स एसोसियेशन के सदस्य मुहम्मद शाहीद ने कहा कि काम की तलाश में घर-द्वार छोड़ने वाले मजदूरों की त्रासदी को उकेरती कहानी, 'खानाबदोश कामगार' इतनी जीवंत प्रस्तुति है कि इसका फिल्मांकन आवश्यक लगता है.
स्थापित कथाकार बृजमोहन का कहना था कि कहानी जिस वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है, वह विकल्पहीन है. शोषण उसकी न्जियती बन चुकी है. सिर्फ़ जीने की शर्त पर वह शोषण, उत्पीड़न, अपमान, कुंठा, हताशा, ज़लालत झेल रहा है.
'इप्टा' के अध्यक्ष डॉ. (प्रो.) मोहम्मद इकबाल का कहना था कि रूरल मायग्रेशन पर यह बेहद सशक्त कहानी है. यह महात्मा गाँधी की ग्राम समाज की परिकल्पना को नेपथ्य में धकेलती प्रतीत होती है.
कवि - चित्रकार कुंती हरिराम का मानना था कि 'खानाबदोश कामगार' इतने यथार्थ रूप में सामने आती है कि झकझोर कर राख देती है. ऐसा लगता है कि, शेखर मल्लिक प्रस्तुत समाज के स्वयं द्रष्टा और भोक्ता हैं.
सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव डॉ. (प्रो) नईम मुहम्मद का कहना था कि कहानी दृश्य दर दृश्य ज़ेहन में उतरती चली जाती है. वह संवेदनाओं के स्तर पर पाठकों को सामान धरातल पर ला खड़ा करती है.
शेखर मल्लिक की कहानी 'खानाबदोश कामगार' पर विस्तृत व्याख्या में कहा गया कि कहानी समाज के उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है जिसकी जगह हाशिये पर भी तय नहीं हो पाई है. जिनके लिये समाज कल्याण की किसी योजना का कोई अर्थ नहीं है. वह शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, सामाजिक सुरक्षा/न्याय किसी से भी संबंधित क्यों न हो. क्योंकि भूख की भयावहता के चलते जब गाँव-ज्वार के घरों में ताले लटक गए हों, उनमें रहने वाले दिल्ली, पंजाब, यू.पी.,चेन्नई, कोलकाता के फुटपाथों पर फिंक दिए गए हों कभी न लौटने के लिये, ईंट भट्टों में बंधुआ मजदूर बने सिर्फ़ रोटी के मूल्य पर मरखप रहे हों, स्त्रियाँ एक मालिक से दूसरे मालिक के हाथों बिक रही हों, दिन भर काम और रात में देह सुख प्रदान करने के लिये, लड़कियाँ दिल्ली के अभिजात्य बंगलों की निर्मम और नकचढ़ी मालकिनों की लताड़ खा रही हों, 'घर' फोन पर बात करने या एक पोस्टकार्ड लिखवाने के लिये तरस रही हों तो काहे की योजना और कैसा उनसे लाभ !
'खानाबदोश कामगार' उस मिथ को भी तोड़ती है जो निहित राजनैतिक महत्वाकांक्षा पुरी करने के लिये लोगों को समझाता है कि उसकी दुर्दशा का अंत छोटे छोटे राज्यों के निर्माण में है. एक बार राज्य बन जाय तो उस क्षेत्र की जनता दूधों नहाने, पूतों फलने लगेगी. 'खानाबदोश कामगार' में एक जगह शेखर मल्लिक कहते हैं - 'जब यह नया प्रदेश बना तो सुना कि सरकार 'अपने लोगों' के वास्ते बहुत कुछ करेगी... मगर सूबा बने दस सालों में पाँच मुख्यमंत्री बने...' नहीं बदले तो वहाँ के लोगों के हालात. वे उन दस सालों में भी जल-जंगल-ज़मीन से वंचित होते रहे. जैसे पिछले पचास सालों और उससे पहले से होते आ रहे थे.उनके लिये अंग्रजों की गुलामी से मुक्ति का कोई अर्थ नहीं था. ठीक वैसे ही पहली दूसरी आज़ादी या सम्पूर्ण क्रांति जैसे जोशीले नारों का भी कोई मतलब नहीं था -- मालिक बदल जाने से गुलाम की स्थिति पर क्या अंतर पड़ता है --
बिहार/झारखण्ड के वंचित समाज की त्रासदी बयां कर रहे हैं शेखर मल्लिक. लेकिन यह कहानी छत्तीसगढ़, उड़ीसा, बंगाल, बुंदेलखंड कहीं की भी हो सकती है. केवल पत्रों के नाम और स्थान बदलने होंगे. इसलिए 'खानाबदोश कामगार' अपने वर्ग की प्रतिनिधि कहानी होने की हैसियत रखती है. कहानी की यह सबसे बड़ी सफलता है.
लेकिन शेखर मल्लिक सिर्फ़ कहानी कह रहे हैं. कोई ज़मीन तोड़ते दिखाई नहीं दे रहे हैं. यथास्थिति के विरुद्ध कोई प्रतिरोध पैदा नहीं कर रहे हैं उनके पात्र. जबकि अनेक स्थानों पर वंचित समाज ठहरे हुए जल में हलचल भी पैदा कर रहा है. जल-जंगल-ज़मीन के अधिकार के लिये लड़ भी रहा है. ऐसे भयानक शोषण के बावजूद यथास्थिति को स्वीकारते चले जाना असहज करता है.
कहानी बहुत कसी हुई है. एक भी शब्द अनावशयक नहीं लगता है. कहानी की बुनावट कभी-कभी रिपोतार्ज होने का भ्रम उत्पन्न करती है. यथास्थिति लोकभाषा का प्रयोग, स्थानीय लोकगीतों की प्रस्तुति पाठक को शिद्दत से बांधती है. अनूठे और मौलिक मुहावरे रोमांचक ढंग से चौंकते हैं. जैसे 'मृत्यु की पुचकार' सी आग..... सीधे जा गिरा था भट्टी के मुँह में और 'जिंदा लकड़ी' की तरह जलकर राख हो गया.
कथा चर्चा की अध्यक्षता अजय दूबे ने की. संगोष्ठी का संचालन दिनेश बैस ने किया.
(दिनेश बैस द्वारा प्रस्तुत)
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