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शुक्रवार, 9 मार्च 2018

माँ के गर्भ से ही लड़की का संघर्ष शुरू हो जाता है – डॉ. सुनीता
भारतीय महिला फ़ेडरेशन, घाटशिला इकाई ने मनाया अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस


8 मार्च, 2018. घाटशिला. भारतीय महिला फ़ेडरेशन कि घाटशिला इकाई द्वारा अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में महिलाओं के अधिकारों और उसकी सामाजिक अवस्था को रेखांकित करते हुए  उस ध्यान दिए जाने की बात कही गयी. आई.सी.सी. मजदूर यूनियन, मऊभंडार के कार्यालय में आयोजित कार्यक्रम की शुरुआत समूह गीत "औरतें उठीं नहीं तो ज़ुल्म बढ़ता जायेगा” से हुई जिसे स्वर दिया छिता हांसदा, दीपाली, लतिका और रुपाली ने. सचिव ज्योति मल्लिक ने अपने वक्तव्य फ़ेडरेशन के उद्येश्यों की चर्चा करते हुए कहा कि भारतीय महिला फ़ेडरेशन महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक समता की पक्षधर है. लिंग आधारित भेदभाव, घरेलू और यौन हिंसा के विरुद्ध आवाज़ उठाने की जरूरत है जिसे हम एक जुट होकर उठा सकते हैं. शिक्षा, सामान वेतन और समय पर वेतन, मातृत्व अवकाश, सामाजिक सुरक्षा, महिलाओं के स्वास्थ्य और पोषण आदि कई मुद्दे हैं, जहाँ स्त्रियां भेदभाव की शिकार और वंचित हैं. हमें एक बराबरी का समाज बनाने के लिए महिलाओं को सम्मान और अधिकार देना होगा. जब तक एसा नहीं होता, हमारा संघर्ष समाज और व्यवस्था से रहेगा. लड़कियां
आगे बढ़ सकती हैं। वे अनथक बढ़ती हैं। उन्होंने खुद के उदहारण द्वारा बताया कि विवाह पूर्व वे भी अपने परिवार में सिमटी हुई थीं लेकिन विवाहोपरांत उन्हें उनका स्पेस दिया गया तो वे बढ़ी हैं. नौकरी कर रही हैं, सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सा ले रही हैं.
कार्यक्रम में स्त्री विषयक कविताओं का पाठ किया गया. सह सचिव लतिका पात्र ने रंजना जयसवाल की कविता "बागी" और निर्मला पुतुल की "क्या हूँ मैं तुम्हारे लिये" पढ़ी तो छिता हांसदा ने अपनी स्वरचित संथाली कविता "मिरु चेड़ें" सुनाई. श्वेता दुबे ने फ़िल्म लेखिका मधु जी की कविता 'बचा लेती है' पढ़ा. वहीँ स्कूल की बच्चियों ने भी कविता पाठ में सहभागिता करते हुए कुछ चुनिंदा कविताओं का पाठ किया. दीपाली साह ने कात्यायनी की कविता "इस स्त्री से डरो" और मधुरिमा मजुमदार ने तस्लीमा नसरीन की कविताएं "चरित्र" और "प्रेरित नारियां" सुनाई. शेखर मल्लिक ने मजाज़ की नज़्म "नौजवान ख़ातून से" और गौहर रज़ा की नज़्म "दुआ" सुनाई. और कहा कि कविता तेज मार करती है.
संवाद सत्र में इकाई की  सचिव ज्योति मल्लिक ने कहा कि हम स्त्रियों के सामने सदियों से चुनौतियां बनी हुई हैं. इधर कुछ दशकों से जरुर महिलाओं ने शिक्षा के सहारे अपनी स्थिति को बेहतर किया लेकिन आम स्त्री आज भी शोषित है, दोयम दर्जे की नागरिक है. हमें समझना और समझाना है कि स्त्री भी मनुष्य है. सामान अधिकारों को हासिल करने की चुनौती हमारे सामने है.
उपाध्यक्षा सुनैन हांसदा ने स्त्री अधिकारों की वास्तविक स्थिति पर अपने विचार रखे. कानून और कागज पर महिलाओं को दिए गए तमाम अधिकारों के बारे में स्त्री नहीं जानती या उसे जानने दिया जाता है. 33 प्रतिशत भी हमलोग ने काफी लड़ाई से हासिल किया. हमें पैतृक सम्पति पर भी आसानी से अधिकार नहीं मिल पाता. घर बाहर के कई तरह का शोषण और संघर्ष है. यह बिडम्वना है. निर्भया काण्ड के बाद स्त्रियों की सुरक्षा के बाबत कई कानून बने हैं लेकिन आज भी स्त्री यौन शोषण झेल रही है, उसकी हत्या हो रही है. भारत में बलात्कार का दर सबसे भयानक है और यौन हिंसा प्राय: हर लड़की और स्त्री झेलती ही है. घर और बाहर हम जिस माहौल में रहते हैं वह हमलोगों के लिए संघर्षशील है. अधिकारों को भेदभाव पूर्वक छिनना हमारे समाज में आम बात है और कोई उधर ध्यान नहीं देता. महिलाओं की सुरक्षा ही नहीं, रोजगार और स्वतन्त्रता के जो संवैधानिक अधिकार हैं, वे भी उसे नहीं दिए जाते. कुछ उच्च वर्ग की महिलाओं की समृद्धि आम भारतीय महिलाओं की वास्तविक स्थिति का द्योतक नहीं है.
शिक्षिका नीलिमा सरकार ने अपने माता पिता को अपने आज़ाद जीवन का श्रेय दिया. यदि उनके माता पिता उन्हें सपोर्ट नहीं करते, स्पेस नहीं देते तो वे आज इस सफलता तक नहीं पहुँचती. उन्हें याद करते हुए वे भावुक हो गईं.
संचालन कर रही छिता हांसदा ने अपने जीवन अनुभव बताते हुए कहा कि समाज में लोग किस प्रकार चीजें समझते नहीं और उन्हें सिखाने को मेहनत करना पड़ता है. उन्होंने संथाली में गीत "एहो आदिम एभेनो मे" भी सुनाया. स्थानीय महिला महाविद्यालय की पुस्तकालयाध्यक्षा राखी पूर्णिमा मजुमदार ने "कोमल है कमज़ोर नहीं तू" गीत प्रस्तुत किया.
समाज और स्त्री के सम्बन्धों और सच्चाई पर लतिका पात्र ने अपने विचार रखे. रोज रोज एक लड़की एक औरत किस प्रकार समाज से जूझती है. उन्होंने बताया कि इस कार्यक्रम में शामिल होने के लिए उसके गाँव से मनरेगा की मजदूरिनें आने वाली थीं लेकिन वापसी के लिए सवारी गाड़ी की उपलब्धता का संकट रहता है इसलिए वे आ नहीं सकीं. ऐसी और भी समस्याएं हैं.         
प्रोफ. पुष्पा गुप्ता ने कहा कि फेडरेशन के सामने चुनौतियाँ हैं. लेकिन ये युवा लोग करेंगे. उन्होंने अपने जीवन के अनुभव बताये । छात्रा रुपाली साह ने भी अपनी बात रखी.
अध्यक्ष डॉ सुनीता सोरेन ने कहा कि माँ के गर्भ से ही लड़की का संघर्ष शुरू हो जाता है. घर और बाहर दोनों जगह लड़कियां संघर्ष झेलती हैं। आज की स्त्री को समाज की दोहरी मानसिकता और दोहरे चरित्र का सामना करना पड़ता है, ऐसी मानसिकता से स्त्री को खुद को बचाना है. आज की नारी को जिम्मेदार माँ बनना होगा चूंकि वही बच्चे की गुरु होती है. एक सभ्य और समतामूलक समाज के गुण बच्चों में माँ दे सकती हैं. महिलाएं अपने सन्तानों में समता की भावना डालें, जिससे स्त्री के प्रति मर्द की सोच बदलना सम्भव हो सकेगा. हम आज एक दूसरे का साथ देंगे तो हर मायने में बराबरी का अधिकार मिलेगा. आप आज यहां आये आपकी सोच की जीत है, आप घर से बाहर काम कर रही है ये भी आपकी जीत है. शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है. एक मर्द केवल अपने लिए शिक्षित होता है, लेकिन महिला एक समाज को शिक्षित कर सकती है. एक डॉ होने नाते कहूंगी कि आप अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखें. हमें एक दूसरे का साथ देना होगा. उन्होंने अपनी कुछ पंक्तियाँ भी सुनायीं,
नारी तुम वरदान हो
नारी तुम प्रकाश हो
नारी तुम कविता हो
नारी तुम सरिता हो
तुम ही श्रष्टि हो
तुम सम्पूर्ण हो
कार्यक्रम में घाटशिला के गांवों की मनरेगा मजदूरिन, आई सी सी की महिला श्रमिक और कर्मचारी, बड़ी संख्या में आस पास मोहल्ले की स्त्रियाँ और युवतियां मौजूद थीं. नारीवादी कविता पोस्टर प्रदर्शनी भी की गयी. सीरिया में बमबारी से मारे गए निर्दोष बच्चों, महिलाओं के लिए इस बीच एक मिनट का मौन रखा गया. 
अंत  में सभी ने मिलकर  "हम होंगे कामयाब गाया" जो एकजुटता और विश्वास का संकेत देता है.
सचिव ज्योति मल्लिक ने धन्यवाद ज्ञापन दिया, कहा कि साथी साथ आयें और फेडरेशन को मजबूत करें. अब हम जो महिला साथी हम तक नहीं पहुँच पाए, उन तक जायेंगे. यही हमारी योजना है.
कार्यक्रम का संचालन छिता हांसदा ने किया.
भारतीय महिला फ़ेडरेशन की घाटशिला इकाई ने इस कार्यक्रम के साथ अपनी गतिविधियों का आगाज़ किया है.  (रिपोर्ट : शेखर मल्लिक)

ज़श्न ए फ़ैज़ : घाटशिला प्रलेसं का आयोजन

कब याद में तेरा साथ नहीं (रिपोर्ट)
इस बार
17 फरवरी, 2018

घाटशिला में 17 फरवरी को प्रलेस की ओर से होने वाले ‘जश्ने फ़ैज़' आयोजन की सूचना मिली, तो सोचा कि हर हाल में इस आयोजन में शामिल होना है। घाटशिला में साहित्यिक-सांस्कृतिक सक्रियता के पीछे कथाकार शेखर मल्लिक की अहम भूमिका रहती है। इस आयोजन की सूचना भी पहले उन्हीं के एसएमएस से मिली। इधर रविवार होने के बावजूूद मेरी दूूसरी व्यस्तताएं भी थीं, लेकिन जो ज़िम्मेवारी थी उसे निबटा कर प्राचार्या से इज़ाजत लेकर मैं निकल पड़ा। बीच राह में संतोष कुमार सिंह की गाड़ी में सवार होना था। संतोष ख़ुद को साहित्यकार नहीं मानते, पर हर तरह का साहित्य पढ़ते हैं और कई रचनाकारों से साहित्य की बेहतर समझ रखते हैं। फेसबुक पर उनकी धारदार टिप्पणियों के कारण मैं उनसे प्रभावित रहा हूं। ख़ैर, बस में लोकल पैसेंजर चढ़ाने-उतारने के कारण हो रही देरी से झल्लाता हुआ मिलने की तय जगह पर उतरा। कुछ ही देर बाद उनकी गाड़ी आई। उनके साथ मनोज सिंह भी थे। हम तीनों चल पड़े घाटशिला और नियत समय पर पहुंच गए। यूनियन आॅफ़िस के भीतर अहाते में कुर्सियां लगी हुई थीं। मंच भी बना हुआ था। ‘बोल की लब आज़ाद हैं तेरे’- फ़ैज़ की नज़्म की यह पंक्ति जो इस वक्त पिछले किसी भी वक़्त से ज्यादा मौजूं है, आयोजन की थीम थी।

‘लोकचेतना’ के संपादक रविरंजन भी आजकल घाटशिला में ही अध्यापन कार्य कर रहे हैं। उन्हीं से फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ पर वक्तव्य की शुरुआत हुई। उन्होंने फ़ैज़ को पूरी प्रगतिशील परंपरा का अगुआ कवि बताया और कहा कि भारतीय कविता पर उनका गहरा प्रभाव रहा है। उधर सूरज डूब रहा था इधर हम सबके महबूब शायर के ख्यालात चमक रहे थे। श्रोताओं की संख्या बहुत अधिक नहीं थी, पर जो लोग थे वे गंभीर श्रोता लग रहे थे। एक ओर मित्रेश्वर अग्निमित्र, प्रो. नरेश कुमार, प्रो. सुबोध कुमार जैसे वरिष्ठ अध्यापक और एक विद्यालय के प्राचार्य संजय मल्लिक थे, तो दूसरी ओर राजीव जैसे युवा अध्यापक। और वे नौजवान संस्कृतिकर्मी तो थे ही जिनका आकर्षण मुझे वहां खींच ले गया था। सोशल मीडिया पर इस आयोजन का जो आमंत्रण था, उसमें फ़ैज़ की ग़ज़लों और नज़्मों के गायन की सूचना भी थी। मुझे यह बहुत ज़रूरी लगता है कि जहां भी संभव हो, ऐसे शायरों और कवियों की रचनाओं को गाया जाए, पढ़ा जाए। कुछ ऐसा किया जाए कि वह ज़्यादा से ज़्यादा लोगों के जीवन में सहजता से रच-बस जाए।

कई बार सोचता हूं कि हर ग़ज़ल के बारे में कुछ बात हो और फिर उसे गाया जाए या पहले उसे गाया जाए, फिर उस पर बात हो। आयोजकों ने मुझे भी मंच पर बैठा दिया, तो मैं समझ गया कि मुझे बोलना भी होगा। तुरत फ़ैज़ की ग़ज़ल की पंक्ति याद आई- कब याद में तेरा साथ नहीं/ कब हाथ में तेरा हाथ नहीं। इस दौर के तरक़्क़ीपसंद और इंक़लाबी साथियों की तरह मेरे दिलो-दिमाग़ पर भी उनकी रचनाओं का गहरा असर रहा है। लेकिन मुझे हमेशा लगता है कि इतने से बात नहीं बनेगी, आज व्यापक जनसमुदाय तक फ़ैज़ को पहुंचाने की ज़रूरत है। अमीर खुसरो से लेकर फ़ैज़ और फ़राज़ तक शायरों की जो लंबी परंपरा है, उसे हिंदी साहित्य के विद्यार्थियों को भी अनिवार्य रूप से पढ़ाया जाना चाहिए। मैंने एक प्रसंग सुनाया कि कैसे मुझे एक नौजवान ने, जिसका साहित्य से कोई गहरा रिश्ता नहीं है, फ़ैज़ की पंक्तियां ह्वाट्स ऐप से भेजी- लंबी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है। फिर मुझे साथी प्रणय कृष्ण के एक लेख की याद आई- फ़ैज़ को कैसे पढ़ें? खासकर, उस मशहूर नज़्म के संदर्भ में उनका विश्लेषण, जिसे इकबाल बानो ने जनरल जिया की तानाशाही के ख़िलाफ़ गाया था- लाज़िम है कि हम भी देखेंगे। कैसे सामान्य धार्मिक भावबोध के भीतर इंक़लाबी विचारों के लिए फ़ैज़ जगह बनाते हैं। ‘जब राज करेगी खल्के ख़ुदा’ के आगे वे कहते हैं- जो मैं भी हूं और तुम भी हो।

एक वाकया जो संभवतः कुलदीप नैयर की किताब में है, उसका भी मैंने ज़िक्र किया कि कैसे एक किशोर ने एक खिड़की से सांडर्स की हत्या के बाद क्रांतिकारियों को वहां से निकलते हुए देखा था। बाद में वही किशोर फ़ैज़ हुआ। फिर ‘आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो’ और 'सू-ए-दार' की चर्चा हुई। रविरंजन ने शमशेर को याद किया था। शमशेर ने जो फ़ैज़ पर लिखा है, मैंने भी उसे याद किया और याद किया शमशेर की उस मशहूर पंक्ति को- ’ हक़ीक़त को लाए तखैयुल से बाहर, मेरी मुश्किलों का जो हल कोई लाए/ कहीं सर्द ख़ूं में तड़पती है बिजली, ज़माने का रद्दोबदल कोई लाए।’ जाहिर है जो बेहतर समाज, मनुष्य और व्यवस्था की कल्पना है, उसे हक़ीक़त में बदलने की जद्दोजहद वाली शायरी फ़ैज़ की है, उनका जीवन भी इसी के लिए समर्पित रहा। नाउम्मीदी, अवसाद, मोहभंग, शिकस्त का अहसास- यह सब भी है फ़ैज़ की शायरी में, पर वह निष्क्रिय नहीं करता, बल्कि बेचैनी से भरता है। घाटशिला आया तो लगा कि कुछ तो रौशनी बाकी है, हरचंद के कम है। हालांकि इस बार जगह-जगह से जश्ने-फ़ैज़ के आयोजन की ख़बरें यह भी इशारा कर रही हैं कि रौशनी से रौशनी के मिलने का सिलसिला भी चल रहा है।

संतोष कुमार सिंह ‘सारे सुखन हमारे’ लेते आए थे। मैंने पांच-छह ग़ज़लों और नज़्मों की पृष्ठ संख्या नोट की थी, पर एक ही ग़ज़ल ‘ढाका से वापसी पर’ सुनाया। वही नायरा नूर वाले अंदाज़ में। ‘हम के ठहरे अजनबी इतनी मुलाक़ातों के बाद’- लिखी गई भले यह ढाका से वापसी पर हो, पर इसे गाते और सुनते हुए आज मुल्कों, समुदायों, भाषाओं के बीच जो अजनबीयत पैदा कर दी गई है, जिस क़िस्म के हिंसक उन्मादी टकराव हो रहे हैं, उन सबसे पैदा दर्द का मानो एक साथ इज़हार होता है और सवाल गूंजता रहता है- ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद!

संतोष कुमार सिंह ने मार्के की बात कही कि हर शख़्स जो इश्क़ करना चाहता है, जो बेड़ियों को तोड़न चाहता है, जो आज़ादी चाहता है, जो अम्नपसंद है, फ़ैज़ उसके प्रिय शायर हैं। उन्होंने फ़ैज़ की नज़्म ‘ख़्वाब बसेरा’ सुनाया।

वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेता बास्ता सोरेन की बहू सुनीता जो पेशे से डाॅक्टर हैं, वे ख़ास तौर से फ़ैज़ के इस आयोजन में शामिल होने पहुंची। उन्होंने ‘बोल की लब आज़ाद हैं तेरे’ सुनाया।

मुख्य वक्ता का. शशि कुमार ने बताया कि जिन दिनों वे मज़दूरी करते थे, उन दिनों दो गीत उनकी जुबान पर रहते थे। एक तो मजाज़ का- बोल अरी ओ धरती बोल राजसिंहासन डांवाडोल और दूसरा फ़ैज़ का तराना- दरबारे वतन में जाने वाले... ऐ ख़ाक नशीनों उठ बैठो अब वक़्त क़रीब आ पहुंचा है...जो दरिया झूम के उट्ठे हैं, तिनकों से न टाले जाएंगे। उनका कहना था कि बहुत सारे कवि और शायर हैं, जिनको पढ़ने और पढ़ाने वाले लोग होते हैं, पर कुछ ऐसे शायर होते हैं, जिन्हें जीने वाले लोग भी होते हैं। फ़ैज़ वैसे ही शायर हैं। फ़ैज़ आम आदमी की ज़िंदगी के, उसकी मुक्ति के शायर हैं। वे धार्मिक बिंबों के भीतर भी इंक़लाब की बात करते हैं। अहले सफा मरदूदे हरम मसनद पर तो तभी बैठाए जाएंगे जब इंक़लाब होगा। वे आज के लेखकों के लिए आदर्श हैं। वे कहते हैं कि चश्मेनम जान-ए-शोरीदा काफ़ी नहीं/आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो। शशि कुमार ने फ़ैज़ को कालजयी लेखक बताते हुए उनकी पंक्तियों के जरिए उम्मीद बंधाई- ‘‘यूं ही हमेशा उलझती रही है जुल्म से ख़ल्क़/ न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई/ यूं ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल/ न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई।’’

आयोजन के दूसरे सत्र में फ़ैज़ की ग़ज़लों और नज़्मों की संगीतमय पेशकश हुई। शेखर मल्लिक के गायक रूप से भी हम आशना हुए। उन्होंने ‘मुझसे पहली-सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग’ और ‘हम देखेंगे लाज़िम है कि हम भी देखेंगे’ को गाया। छीता हांसदा ने ‘गुलों की बात करों’ को बड़े ही सधे स्वर में गाया। ग़ज़ल गायिकी के लिहाज़ से उनकी आवाज़ काफ़ी संभावनापूर्ण लगी। शेखर मल्लिक साथ उन्होंने ‘कब याद में तेरा साथ नहीं’ भी गाया। ‘बोल के लब आज़ाद हैं तेरे’ को गिटार के संगीत पर साधने की कोशिश सोमनाथ ने की। प्रो. इंदल पासवान और शेखर ने ‘गुलों में रंग भरे’ को थोड़े नए अंदाज़ में पेश किया। तबले पर तुहिन मंडल और सिंथेसाइजर पर सोमनाथ ने साथ निभाया।

छोटे बच्चे-बच्चियों ने हमें इकबाल बानो के उस एलबम की आॅडियो सीडी (ए ट्रिब्यूट टू फ़ैज़) हमें भेंट में दी, जिसमें उनकी आवाज में फ़ैज़ की रचनाओं की एक घंटे से अधिक की रिर्काडिंग है।

अपने ठिकाने पर पहुंचते-पहुंचते घड़ी के सूइयां दस को पार कर चुकी थीं। शरीर थका था, पर मन ऊर्जा से भरा हुआ था।

आयोजन में अनुमंडल पदाधिकारी अरविंद लाल, कवि व विचारक प्रो. मित्रेश्वर ‘अग्निमित्र’ (भूतपूर्व विभागाध्यक्ष, इतिहास विभाग), प्रो. नरेश कुमार (अंग्रेजी विभाग), प्रो. सुबोध सिंह (बंगला विभाग) सभी घाटशिला महाविद्यालय. डॉ. राजीव कुमार (हिंदी विभाग, बहरागोड़ा कॉलेज), एस.एन.एस.वी.एम. विद्यालय के प्राचार्य श्री संजय मल्लिक, आई सी सी मज़दूर यूनियन के महासचिव कॉमरेड ओम प्रकाश सिंह, पत्रकार रवि प्रकाश सिंह, मादल नाट्य दल के रंगकर्मी गणेश मुर्मू, बलराम, भागवत दास, डाॅ. देवदूत सोरेन, युवा साथी लतिका पात्र, वादिनी चंद्रा, भवानी सिन्हा, स्नेहज, भारती, राजकमल और कई मज़दूर साथी भी मौजूद थे।
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रिपोर्ट: कॉम सुधीर सुमन (संपादक: जनमत)
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