अक्टूबर क्रांति ऐसी क्रांति थी जिसका प्रभाव पूरी दुनिया में हुआ था। मानव जाति ये समझने लगी थी कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुक्ति संभव है। इस दौरान शोषण के खिलाफ आवाज उठाई गई। इस अक्टूबर क्रांति को सोवियत क्रांति के नाम से भी जाना जाता है। इसकी सालगिरह पर हस्तक्षेप चैनल के अमलेन्दु के साथ विजय सिंह (दिल्ली विश्वविद्यालय प्राध्यापक और सम्पादक रेवॉल्यूशनरी डेमोक्रेसी), डॉ जया मेहता (वरिष्ठ अर्थशास्त्री) और प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय सचिव विनीत तिवारी ने अक्टूबर क्रांति को लेकर अपने विचार ७ नवंबर को आयोजित ऑनलाइन परिचर्चा में साझा किये। विजय सिंह ने कहा कि 104 साल पहले रूस की क्रांति हुई जिसका नाम था महान समाजवादी अक्टूबर क्रांति। जैसे फ्रांस की क्रांति सिर्फ फ्रांस की क्रांति नहीं थी बल्कि पुरे यूरोप की क्रांति थी वैसे ही ये कहना गलत नहीं होगा कि रूस की क्रांति सिर्फ रूस की नहीं बल्कि पूरी दुनिया की क्रांति थी क्योकि इसका असर चीन, अमेरिका, अफ्रीका और एशिया में हुआ था। भले ही 1861 में रूस में गुलाम प्रथा के खिलाफ कानून बन गया था लेकिन उसके अवशेष बाकी थे। हकीकत में रूस में सामन्तवाद था और गुलामी भी थी। इस गुलामी के अवशेष 1917 तक रहे। फिर युद्ध हुआ। जिसके नतीजे में देश की आम जनता और मजदूरों ने बगावत की और फरवरी क्रांति हुई। इसके बाद बुर्जुआ सरकार सत्ता में आई और वो नहीं चाहती थी कि युद्ध खत्म हो। जिन कारणों से फरवरी क्रांति हुई वो अक्टूबर तक चली। अक्टूबर की क्रांति जन क्रांति थी। लेनिन के नेतृत्व में हुई इस जनक्रांति का मकसद था शांति,रोटी और जमीन। इसका आशय था कि समाज मे शांति हो, सभी को रोटी मिले और जमीन मिले। फिर बुर्जुआ सत्ता के खिलाफ लड़ाई हुई जो 1917 से 1920 तक चली और आखिरी में बोल्शेविक पार्टी जीती। बोल्शेविक पार्टी के जीतने का एक कारण था मजदूरों का उनकी पार्टी में होना। इसकी सफलताओं की तरफ देखा जाए तो क्रांति के बाद एक नया समाज बनाया गया जहाँ बेरोजगारी नहीं थी। सारी स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाएं मुफ्त थीं एवं औरतों को बराबरी के हक दिए गए। प्रतिनिधित्व करने के लिए भी औरतों को चुना गया था। ट्रांसपोर्ट बहुत सस्ता था। टेलीफोन मुफ्त थे। थोड़े समय बाद रूस पर अन्य सम्राज्यवादी देशों का हमला हुआ जो बहुत नुकसानदेय था लेकिन रूस ने खुद को अच्छे से संभाला। फिर नए तरीकों की समाजवादी प्लानिंग शुरू की गई। जिसका नतीजा ये हुआ कि धीरे-धीरे सभी उद्योगों से होने वाला मुनाफा जनता जी जिंदगी को बेहतर बनाने में इस्तेमाल किया जाने लगा। भविष्य में अक्टूबर क्रांति की विरासत की हिफाजत करना इसलिए जरूरी है क्योंकि अगर हम चाहते हैं कि समाज की शोषण से मुक्ति हो, मजदूरों और किसानों का शोषण खत्म हो और दलित वर्ग मुक्त किया जाए और औरतों को उनका समान हक मिले तो उस क्रांति के मूल्यों की हिफाजत जरूरी है। जातिवाद के अवशेष भी खतरनाक हो सकते हैं इसलिए इसे खत्म करना जरूरी है। पूंजीपति चाहते हैं कि लोग धर्म या किसी के भी नाम पर आपस में लड़ें ताकि लोग मुद्दे की बात भूल जायें। आज कोई समस्या अगर किसानों और मजदूरों की होती है तो वामपंथी पार्टियाँ बीच में आती हैं ताकि उससे जनता की वर्ग चेतना बढ़े। लोगों को ये मानना जरूरी है कि बिना संघर्ष किये कोई क्रांति नहीं हो सकती।
इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए जया मेहता ने कहा कि साम्राज्यवाद पूँजीवाद की उच्चतम अवस्था है। इसलिए उस समय क्रांति के लिए जर्मनी को ज्यादा उपयुक्त माना गया था क्योकि वहाँ लोग तैयार थे, वर्किंग क्लास मजबूत थी। तब लेनिन ने कहा कि हम जर्मनी में क्रांति का इंतजार नहीं सकते बल्कि हमें रूस में ही क्रांति की शुरुआत करनी चाहिए। रूस में पूंजीवाद कमजोर थी लेकिन फिर भी जरूरत थी कि क्रांति की शुरुआत वहीं से हो। इस शुरुआत के बाद बहुत सारे साम्राज्यवादी देशों की व्यवस्था बिगड़ी इसलिए उन्होंने रूस पर हमला किया था। रूस की क्रांति सफल होगी या नहीं, यह सवाल भी लोगों के मन में था इसलिए लोगों की नजर अब जर्मनी पर टिकी थी। थर्ड इंटरनेशनल की सेकेंड कांग्रेस जब हुई तब लेनिन ने ये कहा कि हम विकसित देशों की तरफ न जाते हुए उपनिवेशों की तरफ जायें, हिंदुस्तान जैसे देशों की तरफ जाएँ। दूसरे विश्व युद्ध के बाद उपनिवेशों ने भी अपनी आजादी हासिल की थी। जब हमने आजादी हासिल की तब भी ये संभव था कि हम संविधान में समाजवाद को बढ़ावा दें और पूंजीवाद को खत्म करें।
विनीत तिवारी ने अपना मत रखा और कहा कि सोवियत संघ के समय इतिहास में पहली बार ऐसा समाज बनाया गया था जिसमें मजदूरों का राज था। इस क्रांति से दुनिया के लोगों में ये उम्मीद जाग गई थी। लोगों ने जीना शुरू कर दिया था। मौत के इंतजार को ही जिंदगी मानने वाले लोगों की सोच बदलने लगी थी। जो लोग मालिकों से अपना ही शोषण करवाते थे उन सब के अंदर इंसान होने की ललक पैदा हुईं थी। ऐसी ही क्रांति की जरूरत हमें आज और ज्यादा है क्योंकि 70 साल से बनायी गई दीवार को गिराने की बहुत सी कोशिशें आज भी की जा रही हैं। कोरोना में यह सब देखने को मिला। जिसके दोहरे चेहरे थे सब सामने आए। बीमारी से लेकर उसकी वैक्सीन तक सब भ्रष्टाचार सामने आए। इसमें सिस्टम भी पीछे नहीं था। सोवियत संघ के समय जैसा समाज था, वैसे समाज की जरूरत आज है लेकिन आज के समाज की सब से बड़ी कमजोरी है एकता। जहाँ मजदूरों और किसानों में एकता नहीं है। अगर इन दोनों का साथ एक दूसरे को मिल जाये तो दोनों के बीच दूरियां खत्म हो जाएँगी और आंदोलन सिर्फ माँगो तक सीमित नहीं रहेगा बल्कि ऐसा समाज ही बन जाएगा जहाँ गैर बराबरी नहीं होगी। विनीत सोवियत संघ की क्रांति को याद करते हुए कहते हैं कि जिन दिन क्रांति हुई उसके अगले ही दिन दो कानून बनाये गए जिसमें पहला था जमीन के राष्ट्रीयकरण का और दूसरा था आत्म निर्णय यानि सेल्फ डिटरमिनेशन का। वर्तमान में देखा गया है कि सोवियत संघ के बारे में लोगों को भड़काया जाता है कि वहाँ तानाशाही थी और लोगों को अभिव्यक्ति की आजादी नहीं थी। लेकिन ये सच नहीं है। वहाँ सरकार लोगों की रोजी-रोटी, अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य देने के लिए जिम्मेदार थी। इसलिए वहाँ इन चीजों को प्राइवेट कंपनियों के हाथों में नहीं छोड़ा गया था। जबकि हम अगर अपने देश की आज की बात करें तो महामारी के दौरान प्राइवेट कंपनियों ने हर तरह से मुनाफा कमाया चाहे वो दवाइयाँ हों या वैक्सीन या अस्पताल। वैक्सीन की बात करें तो किसी भी कंपनी ने ये जिम्मेदारी नहीं ली है कि वैक्सीन लगाने के के बाद आपको कोविड नहीं होगा। जब वैक्सीन सर्टीफिकेट में प्रधानमंत्री का फोटो छापा है तो जो लोग वैक्सीन लगवाने के बाद भी कोविड से मरे हैं तो उनकी जिम्मेदारी भी प्रधानमंत्री को लेना चाहिए। अगर आपका सिस्टम राष्ट्रीयकरण में विश्वास रखता हैं तो आप प्रॉफिट की बात नहीं कर सकते। अक्टूबर क्रांति हमें सिखाती है कि जनता के हित में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार का राष्ट्रीयकरण सबसे ज़रूरी कदम हैं।
- पायल फ्रांसिस