(किन्हीं कारणों से यह पोस्ट तत्काल नहीं डाल सका, अब दे रहा हूँ. इस पोस्ट का उद्देश्य ना तो किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप करना है, ना ही किसी प्रकार के पूर्वाग्रह से ग्रस्त है, यह मैं पहले ही स्पष्ट कर देना चाहूँगा.)
पहली बार मैंने किसी साहित्यिक (!) कार्यक्रम का बायकाट किया... और ऐसा करने की तमाम ऐसी परिस्थतियां पैदा की गयीं कि, हमारे पास कोई चारा नहीं बचा था. बाबा नागार्जुन पर प्रलेसं - जमशेदपुर द्वारा आयोजित कार्यक्रम कई मायनों में एक कड़वा स्वाद या बे-स्वाद ही बनकर रह गया, और उस पर ये कि इस तमाशे में कोई ख़ास भीड़ भी नहीं जुटी थी !
इस आयोजन को लेकर शुरू से ही मन में एक अजीब सा भाव था, वह इसलिए कि, बाबा नागार्जुन का कार्यक्रम आयोजित इसलिए भी हो पा रहा था कि अमुक तथाकथित नए कवि महोदय, जो शिक्षा विभाग के एक प्रशासनिक अधिकारी हैं, और अपने पद और पहुँच का इस्तेमाल तमाम उन कामों में खर्चते हैं, जिनका विरोध जनकवि बाबा नागार्जुन के पूरे काव्य का प्रमुख सरोकार रहा है. इस आयोजन का खर्च वे चुका रहे थे, इसी बहाने नागार्जुन को ही याद कर शताब्दी वर्ष में प्रलेसं जमशेदपुर ने तय किया कि एक खानापूर्ति भर कर ली जाय !

हमें कभी ये कैसे गंवारा होता कि जिस मंच पर बाबा नागार्जुन को याद करें, उसी मंच से और वह भी पहले सत्र में, बाबा नागार्जुन पर दुसरे सत्र से कार्यक्रम थे..., कवि महाशय की सद्य प्रकाशित किताब का विमोचन हो, उनकी प्रशस्ति गाई जाय... एक मंच से बाबा के साथ साझा करें हम इन्हें ! कैसे...! यह कतई सह्य नहीं हो रहा था...
खैर, हमने यह सोचा कि चलो किसी बहाने तो कम से कम कार्यक्रम हो रहा है, वरना प्रलेसं-जमशेदपुर आजकल अपनी असमर्थता, एकजुटता के अभाव और आयोजन के लिए स्थानीय सदस्यों में प्रतिबद्धता की कमी का रोना रोता रहा है ! और अब कोई कार्यक्रम गाहे-बगाहे भी शायद ही होता हो !
बाद में पता चला अब उन कवि महोदय ने कार्यक्रम से हाथ खीच लिए हैं, क्यों ? क्योंकि... दिल्ली से "बड़े लोग" नहीं आ रहे थे... जिनके हाथों लोकार्पण होना था. नामवर जी ने तबियत ठीक नहीं रहने के कारण आने में असमर्थता जताई. तो नवोदित कवि को खल गया... इसी खींचातानी में जो गतिरोध आया कि बाकि लोगों -
डॉ. खगेन्द्र ठाकुर, शम्भू बादल... (अरुण कमल जी को भी कोई समस्या हो गयी थी... यद्यपि उन्होंने मना नहीं किया था.) - को भी मना कर दिया गया... बहरहाल... उन्होंने कार्यक्रम में जो पैसे लगाये थे, सुनते हैं कि उनको वापस कर दिए गये अथवा कर दिए जायेंगे !
क्या प्रलेसं जैसे संगठन की कोई इकाई इतनी कमजोर हो सकती है कि उसे इस तरह के समझौते करने पड़ें, महज एक कार्यक्रम आयोजित करने के लिए !
खैर चूँकि कार्यक्रम के कार्ड बाँटे जा चुके थे, तय हो चुका था, सो हुआ. मगर कार्यक्रम में पहुँचते ही, देखा कि सभागार में नाम मात्र के लोग बैठे हैं ! (अगर कोई बाहर से आया वक्ता होता तो शायद स्थिति दूसरी होती !) और इसके बाद बाबा नागार्जुन पर पहले सत्र में उनकी कविताओं का वीडियो कोलाज और साहित्य अकादमी द्वारा उनपर बना वृतचित्र प्रदर्शित होना था, हुआ मगर... फिल्म को पुरा नहीं होने दिया गया ! आधे से भी कम अवधि
तक चलने देकर बंद कर दिया गया कि यह लंबी है, और दूसरा तर्क यह कि इसी जगह पर बैनर भी लगाना था, जहाँ पर्दा था, सो हमने फिल्म उतनी देखी ! ऐसा शायद यहीं हो सकता है !
इसके बाद कार्यक्रम में बाबा नागार्जुन पर लोगों ने बात की... यह ठीक था, यहाँ तक तो गनीमत थी, इसके बाद कुछ ज्यादा ही असह्य स्थिति हो गई, जब स्थानीय कथाकारों ने इसके बाद वाले सत्र में "अपनी-अपनी" कहानियों का पाठ शुरू किया ! यह कार्यक्रम बाबा पर था, और जाहिर हैं, हम सब ने उम्मीद की थी कि बाबा की ही कहानियाँ और कवितायेँ सुनायीं जाएँगी. यही सहज परिपाटी है, तरीका है किसी की शताब्दी मनाने का यह कौन सा ढंग था, जो अब हमारे सामने था ! मालूम हुआ कि बाकि लोग भी अपनी-अपनी कवितायेँ पढेंगे, ना कि बाबा की ! बैनर प्रलेसं का था, मगर जलेस के लोग भी सभा और मंच पर रहे, कवितायेँ उन्हीं को पढनी थीं, क्योंकि प्रलेसं में कवि नहीं होते या होंगे, या होना ही चाहते हैं (ऐसी धारणा है इधर) !


इसी समय विजय दी, अर्पिता दी और मैं सभागार छोड़कर निकल गये... कुछेक और लोग भी गये, मगर उन्होंने बहिष्कार किया, यह नहीं कह सकते... मगर हम तीनों ने हाल अपना विरोध दर्ज करने के लिए हाल छोड़ा...
यह जनकवि के जिन मूल्यों और उनकी कविता और साहित्य के जिन चिंताओं और सरोकारों की बात कर रहे थे, उसी मंच से उनका मखौल उड़ाते हुए और उसी संकट का सजीव उदाहरण बनकर प्रस्तुत हुए...! यानि क्या वे हमें मुर्ख समझते हैं ? कि हम यह भी स्वीकार कर आँख मुंद लें कि क्या हो रहा है, वह सही नहीं है.. और जिस मंच से वे बाबा के तथाकथित उन सभी छद्म प्रतिनिधियों की पहचान करने की बात कर रहे थे, उसी मंच से अपनी रचनाएँ बाबा की रचनाओं से ज्यादा जरूरी मानकर परोस रहे थे ! अपनी रचनाएँ सुनाने का तो यही अर्थ हुआ ! क्या हम यह नहीं देख सकते कि जिन आदर्शो की बात आप चीख कर कहते हैं, उन्हीं को आप तोड़ भी रहे है, और शायद हमसे यह उम्मीद कि हम अबोध हैं, या बने रहें ! यह सरासर गलत है, और हमने अपना विरोध कार्यक्रम को बीच में छोड़कर सभा से निकल जाकर दर्ज किया.
मैंने विजय दी से कहा भी कि यह जमशेदपुर प्रलेसं काफ़ी गलत उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है. और यह देखकर खेद होता है कि प्रलेसं की यह इकाई, सबसे कमजोर होती जा रही है. और इसकी सक्रियता अब रेत में तिल का एक दाना ढूँढने जैसा है.
और इस सबके बावजूद, प्रगतिशील लेखक संघ या इस धारा में कोई खोट नहीं कि हम इसे त्याग दें... मोहभंग हो जाये. दरअसल कॉमरेड विनीत भाई कि एक बात मुझे हमेशा याद आती है, कि "हम पर अपनी विरासत को निभाने की बड़ी जिम्मेदारी है." जिस प्रलेसं से प्रेमचंद, सज्जाद जाहिर, फैज़, कैफ़ी आदि और जिस प्रगतिशील धारा से परसाई, भीष्म साहनी, नागार्जुन आदि जुड़े रहे और उसे एक मुकाम दिया, उसे छोड़ने का प्रश्न नहीं है,
उससे मोहभंग नहीं होता है, बल्कि आज यह जरूरत ज्यादा कशिश से महसूस हो रही है, कि इस वाद या धारा या परम्परा को इस तरह की चापलूसी-मठाधीशी, आत्म-विज्ञापन और क्षुद्रताओं से बचाने की बहुत बड़ी जिम्मेदारी हमीं पर आन पड़ी है. तमाम संकटों के बीच यह भी एक संकट है. और इसकी पहचान हमें है. इन विचारों और विचारधारा पर हमारी आस्था है.
इसलिए जब ऐसा होते देखा तो निसंदेह यह हुआ कि, जैसा बाबा की ही एक पंक्ति है - "तन गई रीढ़..."