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विनीत तिवारी
जब 2002 में गुजरात में मुस्लिमों
का नरसंहार हुआ था तब उसकी जाँच के दौरान ही हमें भी पता चला था और बाकी देश को भी, कि किस तरह गुजरात को हिंदुत्व
की प्रयोगशाला बनाते हुए सांप्रदायिक
राजनीति करने वाली ताक़तों ने हिंदू मुसलमानों के बीच पीढि़यों के बने कारोबार के,
मोहल्ले-पड़ोस के, रोज़मर्रा के परस्पर सौहार्द्रपूर्ण संबंधों को खत्म किया। यही नहीं
बल्कि हिंदू जाति व्यवस्था के पीड़ित दलित
समाज के और हिंदू सामाजिक व्यवस्था के दायरे के बाहर मौजूद आदिवासी समाज के एक हिस्से
को भी मुसलमानों के खि़लाफ़ गोलबंद किया। पंचमहल से लेकर अनेक ऐसे इलाकों में जहाँ
आदिवासी बहुल आबादी थी, स्थानीय मुस्लिम आबादी के खि़लाफ़ उन्हें भड़काया गया, लालच
भी दिया ही गया होगा और क़त्लेआम करने का काम आदिवासियों से करवाया गया। शहरी इलाकों
में यही काम दलित समुदाय के लोगों का इस्तेमाल करते हुए करवाया गया। बाद में जो तमाम
जाँच दलों की रिपोर्टें आयीं, उनमें ये खुलासे हुए। जब नरसंहार के दोषियों को पकड़े
जाने की माँग देश-विदेश में उठी तो इन्हीं दलितों-आदिवासियों को पकड़कर जेलों में ठूँस
दिया गया। इस तरह सांप्रदायिकता फैलाने के मुख्य जिम्मेदार आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक
अपराधी समाज में खुले तौर पर नफ़रत फैलाने में निर्बाध लगे रहे। भारतीय राजनीति और
समाज की ये विडंबना ही कही जाएगी कि इस आयाम को दुनिया के सामने लाने वाले और जेलों
में बंद हज़ारों दलितों की व्यथा और उनके सांप्रदायिक इस्तेमाल की साजि़श को उजागर
करने वाले प्रमुख आंदोलनकारी उदित राज को भी उत्तर प्रदेश की गुंडई राजनीति से बचने
के लिए उसी नरेन्द्र मोदी और उसी भाजपा की शरण में जाना पड़ा जिसके खि़लाफ़ लड़ने का
संकल्प लेकर वे अपना राजस्व सेवा का चमकदार कैरियर छोड़कर राजनीति में आये थे।
उन्हीं दिनों अलिराजपुर भी जाने
का मौका मिला था। अलिराजपुर को हम लोग खेड़ूत-मज़दूर चेतना संगठन और नर्मदा बचाओ आंदोलन
की वजह से जानते थे और आंदोलन का क्षेत्र होने की वजह से ऐसा सहज विश्वास था कि इस इलाके में कोई सांप्रदायिक वारदात हो
नहीं सकती। लेकिन हुई। छोटा सा कस्बा ही था और वैसा ही है
अलिराजपुर जहाँ कुछ वोहरा मुस्लिमों की दुकानें थीं। वही जला दी गई थीं। कोई जनहानि
नहीं हुई थी। लेकिन जो हुआ वह भी हमारे लिए अप्रत्याशित था।
आदिवासी क्यों मुसलमानों के खि़लाफ़ होंगे भला, समझ नहीं आता था। जो हमें बाद में स्थानीय
लोगों ओर अपने आंदोलन के साथियों से बात करने पर पता चला, वह ये था कि चूँकि वोहरा
मुस्लिम अधिकांशतः व्यवसायी होता है। जिन वोहराओं की दुकानें अलिराजपुर में जलाई गईं
वे आमतौर पर आदिवासी ग्राहकों से वैसे ही हेय दृष्टि से पेश आते होंगे जैसे अधिकांश
हिंदू अपने आपको आदिवासियों से ज़्यादा सभ्य व सुसंस्कृत मानते हैं। दुकानदार होने
के नाते वे उधार भी देते होंगे और मुनाफ़ा भी कमाते ही होंगे जिनकी वजह से साधारण आदिवासी
ग्राहक उनसे चिढ़ता भी होगा। उन्हीं में से कुछ ने मुसलमानों के खि़लाफ़ पड़ोसी गुजरात
में हुई हिंसा को आधार बनाकर अपना बदला भी निकालना चाहा होगा। मतलब जिन पर हमला हुआ,
उनके खि़लाफ़ अगर लोगों में कोई ग़ुस्सा, जलन जैसे भाव थे भी तो वे उनके मुस्लिम होने
की वजह से नहीं बल्कि उनके दुकानदार होने की वजह से थे लेकिन उनकी मुस्लिम पहचान को
आगे रखकर उनकी दुकानदार पहचान पर हमला किया गया।
लेकिन ये एक झलक थी कि सांप्रदायिकता
किन-किन सूराखों से ऐसे समाजों में भी दाखिल होती है जहाँ इस तरह की सोच के लिए कोई
जगह नहीं होती है। गुजरात 2002 के बाद मध्य प्रदेश में संघ और उससे जुड़े संगठनों की
गतिविधियाँ बढ़ती गईं। बाद के कुछ वर्षों के भीतर ही झाबुआ अलिराजपुर के क्षेत्र से
ये ख़बरें आम सुनने में आने लगीं कि संघ वालों ने कभी इस गाँव में हिंदू देवी-देवताओं
के कैलेंडर बाँटे या कभी उस गाँव में हनुमान के लॉकेट
बाँटे। जो पंच-सरपंच संघ के इस तरह के प्रचार के विरुद्ध थे उनके एक्सीडेंट होने लगे,
या फिर धीरे-धीरे उनकी आवाज़ कम होती गई। हिंदू संगम के बहाने भी हनुमान को आदिवासी
क्षेत्रों में आदिवासियों के पूर्वज के तौर पर प्रचारित किया जाने लगा। आदिवासियों
को वनवासी कहने से और आदिवासियों के पूर्वज को हनुमान बताने से सहज बुद्धि से भी जाना
जा सकता है कि इस तरह के हिंदुत्व में राम की जगह अपने आपको उच्च जाति कहने वाले रहेंगे,
आदिवासियों की जगह हनुमान की तरह राम के चरणों
में ही रहेगी और दलित इसी बात से प्रसन्न रहें कि एक बार राम ने उनकी पूर्वज शबरी के
झूठे बेर खा लिए यही काफी है।
यह तो सांस्कृतिक प्रतीक की बात
हुई। लेकिन संस्कृति को भी फलने-फूलने के लिए उपयुक्त आबोहवा चाहिए होती है। दरअसल
आमतौर पर समता, समानता और सामुदायिकता में यकीन रखने वाला आदिवासी समुदाय भी भीतर ही
भीतर कहीं असमतल हो चुका है। उसके भीतर भी समय के साथ-साथ वर्गों का विकास हो चला है
और रोज़गार की खोज, इलाज आदि कारणें से उनका संपर्क भी बाहर की गैर आदिवासी संस्कृति
के साथ बढ़ा है। ज़ाहिर है अंग्रेजों के शासन की वजह से जो आदिवासी आज़ादी के पहले
ही ईसाई बन गए थे, उन्हें अपने अन्य आदिवासी बहनों-भाइयों की तुलना में पढ़ने-लिखने
और बाहरी दुनिया के संपर्क में आने के ज़्यादा मौके
हासिल हो पाए। तो एक विभाजन तो आदिवासी समुदाय में अंग्रेजों के रहते ही हो गया था-
लेकिन ये विभाजन धार्मिक स्तर पर और थोड़ा-बहुत आर्थिक स्तर तक ही था, सामाजिक स्तर
पर गहराया नहीं था। सामामजिक स्तर पर ईसाई हों या गैर ईसाई, आदिवासी अपनी प्रथाएँ सामुदायिक
तरीके से ही निभाते थे। बेशक गायत्री परिवार वालों का भी प्रवेश कुछ विक्षोभ पैदा कर
रहा था उनके संस्कारों में लेकिन वो इतना अधिक नहीं था।
लेकिन जब हिंदुत्ववादी आदिवासी इलाकों
में आदिवासियों की दुर्दशा पर आँसू बहाते गए और उन्हें अपने ही हिंदू धर्म
के हनुमान के वंशज बताया और आदिवासी समुदाय की दुर्दशा
के लिए ईसाइयत को दोषी बताया और इस सब से बड़ी बात ये कि उस समाज का जो हिस्सा अपेक्षाकृत
संपन्न था, वह सहमा नज़र आया तो कमज़ोर तबक़े को यह अपने गौरव को प्राप्त करने का एक
मौका लगा। सांप्रदायिकता की इस मानसिकता को सिखों के खि़लाफ़ भी 1984 में देखा गया
था। लेकिन उससे भी बड़ी बात थी इस उच्च्ता-श्रेष्ठता बोध के साथ जुड़ा हुआ व्यापार।
सन् 2002 के झाबुआ हिंदू संगम में करोड़ों का व्यवसाय हुआ। लाखों पानी के पाउच, हनुमान
की लॉकेटें , टेंट, माइक, आदि से व्यापारी वर्ग को इस हिंदुत्ववादी
अभियान में अच्छी कमाई नज़र आई। फिर आया सन् 2004 जब झाबुआ में सुजाता हत्याकांड के
बाद पूरे जि़ले में फैले दंगों में सैकड़ों ईसाई आदिवासियों के घर जला दिए गए। नज़दीकी
गुजरात से आसाराम बापू के तमाम चेले चपाटों ने आकर चर्चों में तोड़फोड़ की। ईसाई औरतों
से बलात्कार भी हुआ लेकिन पुलिस-प्रशासन
राजनीतिक संरक्षण पाए हुड़दंगियों के सामने बेअसर रहा। उल्टे 16 ईसाइयों को ही पुलिस
ने दो साल तक जेल में डाले रखा
जिन्हें अदालत ने बाद में छोड़ा। पूरे इलाके में दहशत फैल गई। उधर गुजरात और महाराष्ट्र
के सीमावर्ती इलाके के जि़ले डाँग में और भी पहले से आदिवासियों को लामबंद किया जा
रहा था। जो हिंदू सम्मेलन झाबुआ में किया गया वैसा ही शबरी कुंभ डांग में आयोजित कर
आदिवासियों को समझाया जा रहा था कि तुम वनवासी हो, हिंदू हो और मुसलमानों के साथ तुम्हें
दुश्मन की तरह पेश आना है।
सन् 2007 में फिर जम्मू-कश्मीर श्राइन बोर्ड मामले को लेकर पूरे देश में दंगे
फैले। ये क्लासिक उदाहरण है सांप्रदायिक उन्माद के अतार्किक होने का। जहाँ इस मामले
को लेकर दंगा हुआ और लोग मरे उन्हें पता तक नहीं था कि जम्मू-कश्मीर श्राइन बोर्ड का मामला है क्या। इस दंगे में
पुलिस ने एक नाबालिग मुस्लिम मेहनतकश बच्चे को मुँह में बंदूक घुसाकर उड़ा दिया था
लेकिन सिवाय एक दिखावटी खानापूर्ति की न्यायिक जाँच के कुछ न हुआ।
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अप्रैल, 2015 में मध्य प्रदेश के
आदिवासी बहुल जि़ले अलिराजपुर से ख़बर आयी कि वहाँ हिंदू-मुस्लिम दंगा भड़क गया है
और एक दुकान जला दी गई है। जैसा कि आमतौर पर ऐसे मामलों में होता है कि विवाद की स्थितियाँ
तो वर्षों पहले से बनाई जा रही थीं, कोई भी छोटी सी घटना तो एक बहाना ही होती है। कभी-कभी
तो कोई घटना भी ज़रूरी नहीं होती। इंदौर में तो दो-तीन बार दंगे इसी वजह से हुए कि
कोई एक मजहब की लड़की से किसी दूसरे मजहब का लड़का टकरा गया और फिर सड़क पर शुरू हुई
तू-तू, मैं-मैं देखते ही देखते दो गुटों की हाथापाई और आगजनी में बदल गई। कर्फ्यू लग गया। बाद में पुलिस तलाशती रही, हम तलाशते
रहे लेकिन न हमें न पुलिस को न लड़की मिली न लड़का मिला।
बहरहाल, अप्रैल में अलिराजपुर में
जो हुआ उसका लब्बो-लुआब यही था कि रामनवमी का हर बार निकलने वाला जुलूस जानबूझकर हर
बार वाले रास्ते से न ले जाते हुए थोड़ा मोड़कर ऐसे रास्ते से ले जाया गया जिसके रास्ते
में मस्जि़द पड़ती थी। और फिर उस जुलूस को मस्जि़द के सामने रोककर देर तक डीजे बजाया
गया। जब कुछ मुस्लिम लोगों ने इस पर आपत्ति ली तो मारपीट हो गई। और फिर क्या था। वो
हो गया जिसके लिए यही सब किया जा रहा है। हमारे पास ख़बर यह भी आयी कि स्थानीय पुलिस
भी स्थानीय हिंदुत्ववादी राजनीति के प्रभाव में है और दंगाइयों को रोकने के बजाय मुस्लिमों
को ही पकड़ रही है। तुरंत ही एक ‘ख़बरदार’ का संदेश बनाकर हमने मोबाइल, फेसबुक, व्हाट्सअप
के मार्फ़त फैलाना शुरू किया। जि़ला कलेक्टर और एस. पी. के नंबर पता करके संदेश में
चस्पा किये और निवेदन किया कि इन नंबरों पर फोन करके वहाँ के हाल पूछें ताकि उन्हें
पता रहे कि जो वे पश्चिमी मध्य प्रदेश के एक आदिवासी बहुल और लगभग निरक्षर
ग्रामीण इलाके में कर रहे हैं, उस पर बाहर दुनिया के अमनपसंद लोग नज़र रखे हैं। तुरंत
ही गूगल पर तमाम साइट्स पर अलिराजपुर चमकने लगा। अनेक वेबसाइट्स पर इस ख़बर को प्राथमिकता
से लगाया गया और अनेक प्रतिष्ठित लेखकों, पत्रकारों और संपादकों ने अपने फेसबुक पेज
पर साझा किया। अगले ही रोज़ भोपाल के साथियों ने भी राज्य स्तर के पुलिस अधिकारियों
से मुलाकात की। अख़बारों के भीतर मौजूद सांप्रदायिक होने से अब तक बचे हुए साथियों
ने भी वहाँ की सुध ली। मुंबई, दिल्ली, लखनऊ, जयपुर सहित और तमाम जगहों से समर्थन और
एकजुटता के संदेश हासिल हुए। अलिराजपुर से तीसरे दिन फिर ख़बर आयी कि पुलिस पर दबाव
बना और उन्होंने निर्दोष मुस्लिमों को छोड़ा और दंगा उकसाने वाले उपद्रवियों की धरपकड़ की।
कुछ दिन के भीतर ही एक रात नीमच
के पास जावद से एक अपुष्ट ख़बर आयी कि वहाँ हिंदुओं के एक जुलूस पर मुस्लिमों ने खौलता
तेल डाला और इसके साथ ही जले हुए बड़ों और बच्चों की वीभत्स तस्वीरें थीं। तब भी मैं
दिल्ली में ही था। नीमच मंदसौर के पास है और मंदसौर में हमारी प्रगतिशील लेखक संघ की सक्रिय इकाई है। वहाँ के साथियों
से बात की तो उन्होंने कहा कि कल, परसों में जब स्थिति थोड़ी सामान्य हो तब देखकर आते
हैं कि सच क्या था। मैंने अगले ही दिन पुलिस के उच्चाधिकारियों और कुछ अन्य प्रतिष्ठित
लोगों से बात की और पता चला कि ऐसा वीभत्स तो कुछ नहीं हुआ। दोनों समुदायों में किसी
छोटी सी बात पर ही झगड़ा हुआ लेकिन स्थानीय लोगों की सूझबूझ और विपक्षी दल की हारने
के बाद भी सक्रिय सांसद मीनाक्षी नटराजन के दौरे से तथा पुलिस प्रशासन के समय पर रक्षात्मक कदम उठा लेने से दंगा भड़का
नहीं। मंदसौर की इकाई के लेखक-पत्रकार साथियों ने भी दौरा किया, अमन कायम रखने की अपील
निकाली, सड़कों पर निकलकर लोगों को समझाया वर्ना दंगों की झूठी तस्वीरें ऐसी थीं कि
उन्हें देखकर फि़लिस्तीन के युद्ध में मर रहे मासूम बच्चों की याद आती थी और लोग बिना
तथ्य जाने भड़क सकते थे।
अभी हाल ही में फिर 17 जुलाई 2015
को अलिराजपुर से यही समाचार मिला जब मैं बाहर दौरे पर था कि नज़दीक के कट्ठीवाड़ा क्षेत्र
में हिंदू-मुस्लिम तनाव बढ़ गया है। हमने फिर एस. पी., कलेक्टर से संपर्क वाला तरीका
आजमाया। एस. पी. से संपर्क नहीं हुआ तो इंदौर आई. जी. से संपर्क किया जिनकी रेंज में
ये क्षेत्र आता है। उन्होंने ख़बर देने के लिए धन्यवाद देते हुए मोबाइल पर कुछ ही मिनटों
में संदेश भेजा कि एस. पी. घटनास्थल के लिए रवाना हो गए हैं और रास्ते में हैं। पता
चला कि एस. पी., कलेक्टर ने जाकर स्थानीय लोगों की सभा की, कस्बे में लोगों और पुलिस
को लेकर शांति मार्च किया, और लौट आये। लेकिन अगले दिन फिर ख़बर आयी कि कुछ नज़दीकी
गाँवों में मुस्लिमों की दुकानें जला दी गयी हैं और स्थानीय राजनीतिक दबाव की वजह से
पुलिस के तेवर भी बदले हुए हैं। और जानकारी मिली कि दंगाइयों का एक समूह कट्ठीवाड़ा
और भाबरा (झाबुआ का वह क्षेत्र जहाँ शहीद चंद्रषेखर आज़ाद का जन्म हुआ था) के बीच के
घने जंगल में छिपे हैं। वे वहीं से आकर आगजनी या फसाद करते हैं और जंगल में वापस लौट
जाते हैं। यह भी पता चला कि दो हिंदू युवकों को सुबह पुलिस ने थाने बुलाया था लेकिन
उन्हें छोड़ दिया और 11 मुस्लिम युवक दो-तीन दिन से पुलिस की हिरासत में हैं। हमने
फिर पुलिस के भोपाल में बैठे आला अधिकारियों से बात की जिनके बारे में पता है कि वे
किसी राजनीतिक दबाव में नहीं आते और उनसे कहा कि कल ईद है और इन बेगुनाह ग़रीब लोगों
को किसी तरह की ज़्यादती न झेलनी पड़े, इतना ज़रूर देख लें। रात देर हो गई थी लेकिन
उन्होंने रात के रात ही कुछ बंदोबस्त किया कि अगले रोज़ ख़बर आयी कि अमन कायम हो गया
है। हालांकि इस घटना के कुछ दिनों या एकाध महीने के बाद ही नज़दीकी इलाक़े में वो भयंकर विस्फोट हुआ जिसमे लाशें हवा नाचती देखीं लोगों ने। भाजपा कार्यकर्ता कसावा तब से ग़ायब है जिसके घर ये विस्फ़ोट हुआ था। अलग-अलग कहानियां बनाकर बरगलाया जा रहा है लेकिन मेरे दिमाग में चंद दिनों पहले सुनी वो बात घूमती रही है कि ये लोग जंगल में इकठ्ठा होकर कोई बड़ी वारदात की तैय्यारी में थे।
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जो अलिराजपुर में या देश में अनेक
जगहों पर सजग साथियों के तुरंत हस्तक्षेप से हो सका वो अपवादस्वरूप् उदाहरण ही हैं।
सांप्रदायिक ताकतें अपनी चालों में ज़्यादा कामयाब होती हैं। जनता लड़ना नहीं चाहती
लेकिन भड़कती तो है। ऐसे में अगर आज कहीं अमन बन सका तो ठीक लेकिन यह अमन कितने दिन
कायम रहता है, कहाँ-कहाँ हमारे जैसे लोग वक़्त पर हस्तक्षेप कर पाते हैं और कब हम ख़ुद
ही इन नफ़रत फैलाने वाली ताक़तों के शिकार
बन जाते हैं, ये कहना मुश्किल है।
गोविंद पानसरे जैसे लोकप्रिय और स्पष्टवादी व्यक्ति की 82 वर्ष की आयु में सांप्रदायिक
कायरों ने हत्या कर दी। जो सही लगता है उसके लिए लोग लड़ेंगे, गोलियाँ, लाठियाँ, गालियाँ
खाकर भी लड़ेंगे। लेकिन अगर इस लड़ाई का मक़सद सिर्फ़ अपने आपको सच और सही के पक्ष
में खड़ा करना भर नहीं बल्कि अपने देश समाज को सांप्रदायिक फासीवाद के ज़हर से बचाना
है तो हमें इन प्रयासों को व्यवस्थित और संगठित करना होगा।
अनेक दंगों की हमने जाँच की, इनकी
सच्चाई बताने वाले लेख लिखे। अनेक की उच्च स्तरीय जाँच भी हुई। हर जगह अमन कायम करने
की कोशिश की। तन और मन से
ज़ख़्मी और बदले या गुस्से की आग से भरे उबलते दिलों पर पानी के छींटे मारे। लेकिन
जो बात पिछले बीस वर्षों की इस लड़ाई से समझ आती है कि सांप्रदायिकता उसी समाज में
पनप सकती है जिस समाज में एक तो किसी न किसी तरह की सामाजिक गैर बराबरी हो और दूसरा
सांम्प्रदायिकता का आर्थिक आधार हो। लोग सिर्फ़ धर्म के नाम पर हमेषा लड़ते-झगड़ते
नहीं रह सकते जब तक कि उन्हें रोजी-रोटी के सवालों से दूर रखने के लिए बरगलाया न जाए।
गैर बराबरी कायम रखने के लिए सांप्रदायिकता एक अच्छा ज़रिया बनती है जिसमें लोगों को
आपस में लड़ाकर अपना शोषणकारी और अन्यायपूर्ण निजाम चलाये रखा जा सकता है। और दूसरी
बात ये कि सांप्रदायिक हिंसा करने वाले सिर्फ़ आपसी नफ़रत की बिना पर हिंसा नहीं करते,
उन्हें इसके लिए बराबर भुगतान होते हैं।
तो मेरे विचार में सांम्प्रदायिकता
के खि़लाफ़ मोर्चा जमाने के लिए हम लोगों को अमन के पाठ पढ़ाएँ, सही इतिहास पढ़ाएँ,
अदालती लड़ाइयाँ लड़ें, नाटक, फिल्में दिखाएँ, वो सब ज़रूरी है लेकिन ये दो चीज़ें
जब तक साम्प्रदायिकता विरोधी संघर्ष में नहीं जोड़ी जाएँगी, मुझे लगता है कि हमारी
लड़ाई पुरअसर नहीं होगी। एक तो साम्प्रदायिकता के खि़लाफ़ लड़ाई को गैर बराबरी वाली
व्यवस्था को ख़त्म करने की लड़ाई से जोड़ना ज़रूरी है। अगर ग़ैर बराबरी रहेगी तो सांप्रदायिकता
फिर-फिर सिर उठाएगी। दूसरा मसला है कि अमन की लड़ाई लड़ने वालों को एक ऐसा समूह भी
जगह-जगह पर खड़ा करना होगा जो दिमाग़ी तौर पर साफ़ होने के साथ आमने-सामने के मुकाबले
के लिए भी तैयार हो। आज एक दिक्कत तो ये है कि सांप्रदायिकता विरोधी आंदोलन के अधिकतर
साथी आग लगने के बाद सांत्वना और एकजुटता के लिए पहुँचते हैं। और दूसरी दिक्कत ये है कि हम लोगों को
तर्क समझाने लगें, कि शिवाजी
सेक्युलर थे, या टीपू सुल्तान हिंदू विरोधी राजा नहीं था, सैकड़ों जगह हम भाषण दें,
किताबें बाँटें, नाटक बनाएँ और फिर एक दिन कोई किराये का हत्यारा आकर गोली मारकर भाग
जाए तो बरसों की मेहनत गई बेकार। अगर हमारे पास ऐसा समूह हो जो ऐसी वारदातों की जगहों
पर पहुँचकर मोर्चा ले खड़ा हो जाए तो तीन-चैथाई जगहों पर दंगाई भाग जाएँगे क्योंकि
वे अधिकांशतः लंपट बेरोज़गार और छद्म देशभक्ति के नशे में गाफिल युवा ही होते हैं। साम्प्रदायिक हुड़दंगियों
को डंडा लेकर खदेड़ने का काम पहले
महाराष्ट्र में राष्ट्र सेवा दल और बिहार में जन सेवा दल ने किया है। उन ढाँचों को
नई मज़बूती के साथ खड़ा किया जा सके तो ये बीमारी फैलने से जल्द रोकी जा सकती है।
और ये दोनों ही काम आदिवासी समुदायों
के साथ सांगठनिक काम कर रहे साथी आसानी से कर सकते हैं। अगर ये कामयाब होते हैं तो
पूरे देश के साम्प्रदायिकता विरोधी आंदोलन को भी एक नई ऊर्जा और काम करने की सटीक दिशा हासिल हो सकेगी।
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विनीत तिवारी,
महासचिव, मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ,
जोशी-अधिकारी इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज़, दिल्ली
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