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शनिवार, 23 जनवरी 2010

तुम्हारे होने से

तुम्हारे होने भर से ही 
तसल्ली है कि 
कहीं पर तो है 
कोई मेरा हमदर्द भी 
चुभती हुई कोई बात सी जब 
यकबयक, जिंदगी करने लगती है...
तब चेहरा तेरा 
और उसकी मासूमियत को 
तेरी मुस्कराहट को याद करने लगता हूँ
फिर सब ठीक लगने लगता है...
***************************
बहुत बुरा होने को भी 
आखिर होगा क्या...
जिंदगी भर भी यदि 
तुमसे चार कदम का फासला बरकरार रहे
अन्तारात्माएं तो हमारी 
लिपट एक-दूसरे से 
मन के गीत खूब गाती रहेंगी 
कुछ शब्द हवा में 
बिखरेंगे खुशबू की तरह 
जिसे तुम महसुसोगी कलेजे से
मैं महसुसूँगा कलेजे से...
*****************************
इतना कुछ तो है 
बस तुम्हारे होने से
कोई क्यों कह सकता है, कि
मैं रिक्त हूँ
मैं तो हूँ जीवन से लबालब 
सिर्फ तुम्हारे होने से...


                     -शेखर मल्लिक 
                     घाटशिला, २२, जनवरी, २०१०  

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

मेरी जीवन संगिनी



"न हारा है इश्क, न ये दुनिया झुकी है
शमां जल रही है, हवा चल रही है..."


कुछ बेहतरीन ब्लॉग

दोस्तों,
इन्टरनेट पर साहित्य, सृजन और विचार से सम्बन्धित  कुछ उत्कृष्ट ब्लॉगों के लिंक निम्न हैं :

http://naisadak.blogspot.com/
http://uday-prakash.blogspot.com/
http://girirajkishore.blogspot.com
http://iptavartahindi.blogspot.com



तो फिर अवश्य देखें इन्हें...

मंगलवार, 19 जनवरी 2010

एक उम्दा पहल

महात्मा गाँधी अन्तराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय, वर्धा ने "हिंदी समय डोट कॉम " नामक वेबसाइट के जरिये हिंदी साहित्य समग्र को एक पटल पर लाने का और डिजिटली संगृहीत करने का  बीड़ा उठाया है. यह एक सराहनीय और प्रतीक्षित कदम था. आप सब भी इसमें सहभागी हो सकते हैं. हिंदी साहित्य से सम्बंधित किसी भी प्रकार की वास्तु यदि आपके पास सुरक्षित है तो आप उसे इस  साईट पर उपलब्ध करा यें. इससे हिंदी जगत को बहुत कुछ हासिल होगा.

***********************************************************************

इन्टरनेट पर "प्रतिलिपि" त्रैमासिक ऑनलाइन द्विभाषी - हिंदी/ अंग्रेजी पत्रिका है. जरुर पढ़ें.

जब मैंने पढ़ा...

हाल ही में रोबिन शा पुष्प की कहानी पढ़ी (बहुत दिनों के बाद इनकी कोई रचना पढने को मिली) -- "सच का दूसरा सिरा" (आऊटलुक, दिसम्बर २००९ अंक).
कहानी समकालीन व्यवस्था में पिस रहे व्यक्ति की मर्मान्तक वेदना को तो व्यक्त करती ही है, साथ ही हमारे भ्रष्ट अफसरशाही की सत्तोंमादी, अवसरवादी और प्रचंड भोगवादी चरित्र के बेहद घृणित रूप को भी अनावृत करती है. कहानी आपने भी जरुर पढ़ी होगी, जरुर पढ़ें.
क्या इस कहानी का दयनीय नायक "रामदास", उदयप्रकाश जी के "मोहनदास" के ही एक और आयाम (Dimention) नहीं है ? व्यवस्था और इसकी अमानवीय अफसरशाही के विशाल, क्रूर पंजों में जकड़ा... जो न सिर्फ उसे चीरती-फाड़ती रहती है, बल्कि उसके अबोध-मासूम बच्ची को भी चील की तरह झपटा मारकर उसका शिकार करने और गोश्त खाने लगती है.
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"इप्टा वार्ता" का नया अंक मिला. हिमांशु जी की सतत लगनशीलता और परिश्रम से ये छोटी सी पत्रिका रंगमंच की खबर देती-लेती है, विश्लेषण भी पेश करती है. इसे ऑनलाइन पढने के लिए ब्लॉग - iptavarta.blogspot.com पर जाएँ.

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सोमवार, 18 जनवरी 2010

शब्दकर्म

शब्द, जिन्हें हम मन से, बड़े जतन से बुनते- गुनते हैं, किसी के मर्म तक प्रेषित करने के लिए... अपने  आशय को प्रकट करने के लिए शब्दों को अर्थ की लय में पिरो कर भावों की प्रवण माला गूंथते हैं, उन्हीं मर्मभेदी शब्दों को जीवन की पाठशाला से उठाकर कुछ सिखा है, और शब्दों को ही हथियार सा बनाकर इस जिन्दगी की निरंकुशता से, आपाधापी से जूझते आम आदमी की तरह जूझना चाहता हूँ. आदमी ही बने रहना चाहता हूँ. मैं जिन्दा हूँ, इसकी तसल्ली करता हूँ...

"गम नहीं होगा गर मेरी आँखों में रौशनी न हो,
 रंज इसका करूँगा जो उनमें सपने न हों."

साहित्य की कार्यशाला में अपना कर्म और धर्म कर्मठता से साध सकूँ... चाह सिर्फ इतनी है !

रामधारी  सिंह दिनकर की ये कविता क्या हर शब्द्कर्मी की आत्मा नहीं बयां करती ? 


"परिचय"



सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं
बँधा हूँ, स्वपन हूँ, लघु वृत हूँ मैं
नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं
समाना चाहता है, जो बीन उर में
विकल उस शुन्य की झनंकार हूँ मैं
भटकता खोजता हूँ, ज्योति तम में
सुना है ज्योति का आगार हूँ मैं
जिसे निशि खोजती तारे जलाकर
उसीका कर रहा अभिसार हूँ मैं
जनम कर मर चुका सौ बार लेकिन
अगम का पा सका क्या पार हूँ मैं
कली की पंखडीं पर ओस-कण में
रंगीले स्वपन का संसार हूँ मैं
मुझे क्या आज ही या कल झरुँ मैं
सुमन हूँ, एक लघु उपहार हूँ मैं
मधुर जीवन हुआ कुछ प्राण! जब से
लगा ढोने व्यथा का भार हूँ मैं
रुंदन अनमोल धन कवि का, इसी से
पिरोता आँसुओं का हार हूँ मैं
मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का
चिता का धूलिकण हूँ, क्षार हूँ मैं
पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी
समा जिस्में चुका सौ बार हूँ मैं
न देंखे विश्व, पर मुझको घृणा से
मनुज हूँ, सृष्टि का श्रृंगार हूँ मैं
पुजारिन, धुलि से मुझको उठा ले
तुम्हारे देवता का हार हूँ मैं
सुनुँ क्या सिंधु, मैं गर्जन तुम्हारा
स्वयं युग-धर्म की हुँकार हूँ मैं
कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का
प्रलय-गांडीव की टंकार हूँ मैं
दबी सी आग हूँ भीषण क्षुधा का
दलित का मौन हाहाकार हूँ मैं
सजग संसार, तू निज को सम्हाले
प्रलय का क्षुब्ध पारावार हूँ मैं
बंधा तुफान हूँ, चलना मना है
बँधी उद्याम निर्झर-धार हूँ मैं
कहूँ क्या कौन हूँ, क्या आग मेरी
बँधी है लेखनी, लाचार हूँ मैं ।
                                     (हिंदी समय डोट कम से साभार)




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