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मंगलवार, 19 जनवरी 2010

जब मैंने पढ़ा...

हाल ही में रोबिन शा पुष्प की कहानी पढ़ी (बहुत दिनों के बाद इनकी कोई रचना पढने को मिली) -- "सच का दूसरा सिरा" (आऊटलुक, दिसम्बर २००९ अंक).
कहानी समकालीन व्यवस्था में पिस रहे व्यक्ति की मर्मान्तक वेदना को तो व्यक्त करती ही है, साथ ही हमारे भ्रष्ट अफसरशाही की सत्तोंमादी, अवसरवादी और प्रचंड भोगवादी चरित्र के बेहद घृणित रूप को भी अनावृत करती है. कहानी आपने भी जरुर पढ़ी होगी, जरुर पढ़ें.
क्या इस कहानी का दयनीय नायक "रामदास", उदयप्रकाश जी के "मोहनदास" के ही एक और आयाम (Dimention) नहीं है ? व्यवस्था और इसकी अमानवीय अफसरशाही के विशाल, क्रूर पंजों में जकड़ा... जो न सिर्फ उसे चीरती-फाड़ती रहती है, बल्कि उसके अबोध-मासूम बच्ची को भी चील की तरह झपटा मारकर उसका शिकार करने और गोश्त खाने लगती है.
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"इप्टा वार्ता" का नया अंक मिला. हिमांशु जी की सतत लगनशीलता और परिश्रम से ये छोटी सी पत्रिका रंगमंच की खबर देती-लेती है, विश्लेषण भी पेश करती है. इसे ऑनलाइन पढने के लिए ब्लॉग - iptavarta.blogspot.com पर जाएँ.

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