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सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

भरोसा और हंसी, जिंदगी



भरोसा और हंसी, जिंदगी

मुझे लगता है
(और ऐसा उन बहुतों को लग सकता है, लगता होगा) कि,
आदमी को तोड़ देने के लिए
सिर्फ उसका भरोसा तोडना काफी है...
भरोसा, जो उसकी हड्डियों में फास्फोरस की तरह शामिल होता है...
और इसी के दम पर उसकी रीढ़ लम्बवत खड़ी रहती है...
और उसके सांसों का चाप बना रहता है...!

वहीँ, एकदम वहीँ...
वे चोट करते हैं, और इसका समय कोई नियत नहीं होता !
कि बारहाबार एक ही जगह चोट करते रहना
वे कितनी शातिरता से सीख हुए लोग होते हैं और
आदमी की हर उम्मीद
को खारिज करने का लंबा षड्यंत्र
कामयाबी से चला कर
उसकी हंसी को नेस्तनाबूद कर डालते हैं...
यह उनके स्वार्थ का नया नाजीवाद है.

असल में, आदमी की असली मृत्यु उसी समय हो जाती है !

मैंने देखा है, कई दफे कि
आदमी तो हंसना और जीना चाहता है,
यह बस नैसर्गिक है,
मगर वह बस एक ही जगह खत्म हो जाता है,
जब एकाएक उसे पता चलता है कि
इसके बाद उसके लिए कुछ बचा नहीं...
न उसकी कोशिशे, न उन कोशिशों की कीमत
न उसके हँसने की वज़हें, न ही हँसने के मौके !
(और अब शौक से हँसने वाले मध्यवर्ग में पाए भी नहीं जाते !
मजबूरी में हंसें सो अलग बात ...)

सीधी सी बात है, जब आदमी हँसता नहीं, वह मृत्यु के कुछ और पास हो जाता है...

जीने के लिए संतोष वह मसाला है, जो बेहतर कल और कामयाबी
की उम्मीद के भरोसे की आंच पर पकता है... और,
जो जिंदगी के मकान की दीवारों में दाखिल गारे में शामिल होता है

संतुष्ट आदमी ही हंस सकता है, क्या इससे आप इंकार कर देंगे ?

तो...
जीने के लिए हमें उन हाथों और इरादों को तोडना होगा जो
हमारा भरोसा तोड़ने के लिए बढ़े हुए हैं, प्रशिक्षित हैं,
और इसके लिए वेतनभोगी भी हैं !
उनके तिलिस्म और चोट को अपने नकार के दायरे में लाकर
अपने भरोसे की ज़मीं पर अपनी हंसी बजाफ्ता उगानी होगी...

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