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बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

गुमनाम इश्तिहार सा मैं...!


जब भी ढूंढोगे मुझे
वक्त की किसी पिछवाड़े वाली,
काई लगी, चीकट... भरभराई सी दीवार पर एक
गुमनाम इश्तिहार सा
पीछे छूट गयी गयी किसी तारिख की मानिंद
मिलूँगा मैं...!
और तुम्हें चकित कर दूँगा...

कोई राह चलता, ऐन उसी वक्त गुजरेगा वहाँ से और
तुम्हारी उम्मीद के खिलाफ, तुमसे पूछेगा,
इस शख्स को जानते थे क्या ?
वह ताड़ चुका होगा, तुम्हारी कोशिश...
तुम्हारे लगातार झपकती पलकों की बेचैनी से !
तुम्हें ठिठका हुआ देखकर मेरे अक्स के सामने
बिलकुल काठ की तरह... कि तुम भी उस समय मेरे साथ
स्थिर अवस्था में होगे...
सिर्फ एक फर्क होगा कि तुम्हारे भीतर सांस उतरती होगी...
और तुम्हारा मांस कुछ गर्म होगा !

तुम सोचोगे, शायद...
यह आदमी ठीक अंदाज़ा लगा सकता है ! और जिरह कर सकता है !
यद्यपि मेरी स्मृतियाँ
तुम्हारे किसी समकालीन मकसद में नत्थी नहीं की जा सकेंगी
फिर भी यह तुम्हारा जाती मसला होगा कि
तुम उस दीवार के पास खड़े होकर मुझे याद करो...

और जब याद करते हुए टोके जाओ...
तो यह याद रहे -
तुम झटके से टाल सकने का अधिकार...
अपने पास सुरक्षित रखना !

मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011

औरत की भाषा


औरत के पास यों तो कई भाषाएँ होती हैं...
उसकी पहली और पुख्ता भाषा - प्रेम - है...
मगर जो अपने आप में लगभग
बेज़ुबान होती है...!
इतनी खामोश कि जिसे सिर्फ सुना नहीं जा सकता...!
औरत कहती नहीं कि
उसकी भाषा के बाहर
कहीं भी
कोई भी
उससे अलग रह सकता है ! मगर यह सच है...

वह आदमी जिसे वह अपना समझती है
अपनी भाषा से उसे पहले पहल बांधती है,
जो नहीं बंधता, वह उसका नहीं होता...
इसमें कुछ भी अनर्गल नहीं होता क्योंकि,
आदमी की आँखें जहाँ काम करती हैं, छिछला सा...
उसी जगह औरत, भाषा गढती है, उसे करीने से रखती और
आँखों की मानने के बजाय सबसे पहले एक अंदरूनी भाषा ईजाद करती है...
जिससे वह थाह सके सामने वाले को, बेध सके या
बाँध सके उसे, जिसके सम्मोहन से वह खुद बंधना चाहती है...
औरत यह जादू जानती है...
इस जादू को जीवन भर मांजती है...
इस तरह वह पुरुष से अलग हो जाती है...

प्रेम को परखने का गुर उसके पास होता है,
जो उसके सामने भाषा की परखनली से छन कर आता है...

औरत अपनी भाषा का इस्तेमाल
बहुत सध कर करती है !
जबकि वह भी कभी-कभी सिर्फ औरत होती है, खालिस औरत तो,
अपनी भाषा के पैंतरों से खुद को सुरक्षित भी करती है...
और गैर-औरतों का भ्रम भी तोडती है...
भाषा उसकी ताकत है, जिसमें वह शत्रु का ध्वंस,
और अपने प्रिय को दुलार, एक ही प्रतिबद्धता से कर सकती है !.

'प्रेम' जैसी भाषा की सारी शब्दावली
और व्याकरण --
पूछना औरत से,
और हो सके तो सीखना
कि कैसे हो जाती है,
भाषा उसके पास
एक कला, एक कवच और एक कटार !

सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

भरोसा और हंसी, जिंदगी



भरोसा और हंसी, जिंदगी

मुझे लगता है
(और ऐसा उन बहुतों को लग सकता है, लगता होगा) कि,
आदमी को तोड़ देने के लिए
सिर्फ उसका भरोसा तोडना काफी है...
भरोसा, जो उसकी हड्डियों में फास्फोरस की तरह शामिल होता है...
और इसी के दम पर उसकी रीढ़ लम्बवत खड़ी रहती है...
और उसके सांसों का चाप बना रहता है...!

वहीँ, एकदम वहीँ...
वे चोट करते हैं, और इसका समय कोई नियत नहीं होता !
कि बारहाबार एक ही जगह चोट करते रहना
वे कितनी शातिरता से सीख हुए लोग होते हैं और
आदमी की हर उम्मीद
को खारिज करने का लंबा षड्यंत्र
कामयाबी से चला कर
उसकी हंसी को नेस्तनाबूद कर डालते हैं...
यह उनके स्वार्थ का नया नाजीवाद है.

असल में, आदमी की असली मृत्यु उसी समय हो जाती है !

मैंने देखा है, कई दफे कि
आदमी तो हंसना और जीना चाहता है,
यह बस नैसर्गिक है,
मगर वह बस एक ही जगह खत्म हो जाता है,
जब एकाएक उसे पता चलता है कि
इसके बाद उसके लिए कुछ बचा नहीं...
न उसकी कोशिशे, न उन कोशिशों की कीमत
न उसके हँसने की वज़हें, न ही हँसने के मौके !
(और अब शौक से हँसने वाले मध्यवर्ग में पाए भी नहीं जाते !
मजबूरी में हंसें सो अलग बात ...)

सीधी सी बात है, जब आदमी हँसता नहीं, वह मृत्यु के कुछ और पास हो जाता है...

जीने के लिए संतोष वह मसाला है, जो बेहतर कल और कामयाबी
की उम्मीद के भरोसे की आंच पर पकता है... और,
जो जिंदगी के मकान की दीवारों में दाखिल गारे में शामिल होता है

संतुष्ट आदमी ही हंस सकता है, क्या इससे आप इंकार कर देंगे ?

तो...
जीने के लिए हमें उन हाथों और इरादों को तोडना होगा जो
हमारा भरोसा तोड़ने के लिए बढ़े हुए हैं, प्रशिक्षित हैं,
और इसके लिए वेतनभोगी भी हैं !
उनके तिलिस्म और चोट को अपने नकार के दायरे में लाकर
अपने भरोसे की ज़मीं पर अपनी हंसी बजाफ्ता उगानी होगी...

चीखो

एक ऐसे सपाट दुनिया के,
जिसे भूगोल की किताबों में अंडाकार बताया गया है...
तुम और मैं जैसे लोग हाशिए के भी बाहर कहीं गैर परिभाषित जगह पर हैं...
हममें अभी खिलाफत में चीखने की कूवत बाकि है...
सारे फैसले बेशर्मी की आला मिसाल हैं और
पानी के अनुपात की तर्ज पर जहाँ का एक तिहाई हिस्सा
नृशंशता की हद तक गैर-बराबरी का है,
यह उतना ही क्रूर और ठंडा है, जितना कसाई के छुरे का वार...
इसको समझना मुश्किल नहीं है...

चूँकि बताया जा रहा है कि प्रतिदिन ३२ रूपये खर्चने वाला
एक आर्थिक हैसियत या पैमाना बताने वाली उस अदृश्य रेखा के ऊपर है ! और...
इसलिए यह एक बेशर्म मजाक है ! इस पर हँसना कुछ इस तरह का आत्मपीडक काम है जैसे,
पुराने घाव के भीतर सलाखें भोंकना...
लगातार...
कुछ अनचीन्हे मुखौटों के पीछे छुपी हुई आवाजें
हौलनाक लतीफें सुनाती हैं कि
अमुक तारीख को
तुम्हारा वजूद बदल कर रख दिया जायेगा...
और तुम उस तारिख के तुरंत बाद खुद को पहचानने से इंकार कर दोगे...! 
पूछोगे किससे, क्या यह सच है ?

इस दुनिया के हाशिए से बाहर होने के बावजूद...
वे हमें डराने के लिए मजबूर हैं, कि उन्हें भी हमसे उतना ही डर है !
इसलिये यहाँ हत्यारों के चेहरे की मासूमियत तुम्हें दंग कर सकती है !
और यही बात उनके फायदे की है...!

 "इंसानियत", "इन्साफ" "ईमानदारी", "इंकार: और "इन्किलाब" जैसे
शब्दों में जरूर कोई बहनापा है,
इसलिए ये इनके शब्दकोष से सिरे से अपने अभिधेयार्थ सहित गायब हैं !!!

चीखो-चीखो-चीखो...!
क्योंकि २३ मार्च को फाँसी पर चढ़ने वाले उस तेईस साल के जाट नौजवान ने
कहा था, "ऊँचा सुनने वालों को धमाकों की जरूरत होती है !"
कॉम. विनीत तिवारी की किताब का विमोचन... indo
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