किताब जो मैंने पढ़ी - मुझे चाँद चाहिए (सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास)
सुरेन्द्र वर्मा के साहित्य अकादमी से पुरस्कृत उपन्यास "मुझे चाँद चाहिए" के सिद्घांत प्रेमी, कट्टर अंहवादी और अंतत: अवसादग्रस्त हो कर एक बुझे तारे के समान अंतरिक्ष में गिर कर खो जाने की नियति को प्राप्त आत्महंता हर्ष की छाया क्या आज की उस युवा पीढ़ी के गिने चुने नुमाइंदों पर नहीं है, जो इस समाज में तमाम दाँवपेंचों के बीच अपने आदर्शों, मुल्यों और सिद्घांतों के लिए आत्मोत्सर्ग कर डालने का जज्बा रखते हैं. यह अलग बात है कि ऐसे जज्बाती युवा अब गिनती के ही बचे हैं. और वह भी गुमनाम...!
उपन्यास में नायिका "सिलबिल" उर्फ वर्षा वशिष्ठ में बीसवी सदी की आधुनिक औरत की करवट लेती हुई तस्वीर एक आकार लेती है. भारतीय स्त्री का एक दूसरा आयाम सामने आता है, चाहे कोई कहे कि वह महत्वाकांक्षाओं के लिए किसी भी कीमत पर, किसी भी स्तर तक समझौता करने को वह तैयार ही क्यों न हो जाती हो ! लेकिन ऐसा मान लेना पूरी तरह से जायज नहीं होगा. सच तो यह है कि, वह प्रतिभा के उपयोग के साथ साथ हालातों की माँग के हिसाब से खुद को ढालती है, यही ढालना उसकी सफलता का एक बटा दो राज है. एक विद्रोहिणी, परंपराभंजक, संस्कारों व रूढ़ियों से अपनी जाति पर युगों से थोपे गई वर्जनाओं और विडंम्बनाओं से टकराती हुई सिलबिल उर्फ वर्षा वशिष्ठ वर्तमान उपभोक्तावादी समाज के समीकरणों के अनुसार स्वंय को बखूबी ढालती हुई लगातार अपनी प्रतिभा और व्यवहारिकता के दम पर कामयाबी के पायदानों पर चढ़ती जाती है. राष्ट्रीय नाटय विद्यालय की रिपरर्टरी में कुछ हजार रूपये की वृत्ति पर जीवन होम नहीं कर देने की प्रतिबद्धता है, कुछ चिरंतन माने जाने वाले आदर्शों से वह चिपक कर नहीं रहती. मुम्बई की फिल्मी दुनिया की चकाचौंध और धनवृष्टि के वातावरण में खुद का अनुकूलन और अनुशीलन करती है.
वर्षा के मुकाबले उसका प्रेमी हर्ष जो एक संपन्न घर का इकलौता युवा होने के बावजूद विशुद्घ कला के लिए सबकुछ त्यागने को तैयार है. विशुद्घ कला के प्रति घनघोर आग्रही... अपनी कला के दम पर ही अपनी अस्मिता बनाने और अपना अस्तीत्व बचाए रखने की जिद रखता है. उसके मूल्य और जीवन दृष्टि वर्तमान अवसरवादी और उपभोक्तावादी परिवेश में सहिष्णु नहीं रह पाती. वह इन्हीं परिस्थितियों में जूझते टूटते हुए लगातार अवसादग्रस्त होता जाता है और नशे की लत में पड़ता है.
एक तरफ जहाँ वर्षा लगातार कामयाबी की ऊँचाईयाँ हासिल करती हुई विभिन्न पुरस्कारों सम्मानों से सम्मानित होती हुए "पद्मश्री" हासिल करती है, तो दूसरी तरफ हर्ष के लिए विशुद्घ कला का यह तिरोहन और कला को भी एक उत्पाद व केवल लोकप्रिय कला के रूप में मान्यता बर्दाश्त नहीं होती. हर तरफ से टूटा और पराजित हर्ष आत्मघाती हो जाता है. उसका विषाद उसे मार डालता है. लेखक लिखता है, "कालिगिला दो कुत्तों के बीच कुत्ते की मौत मरा था..." वर्षा सोचती है कि अपराध खुद हर्ष का ही है. कि हर्ष में बस यह था कि, "एक ओर ऊँचे कलात्मक मूल्य, जिद और स्वाभिमान है और दूसरी ओर छुई मुई अंह." यह उस वर्षा की प्रतिक्रिया है, जो हर्ष को दूसरों के बनिस्पत कहीं ज्यादा गहरे रूप से समझती थी.
दरअसल यह उपन्यास कई स्तरों पर एक सच को सामने रखता है कि, वर्तमान प्रतियोगितावादी बाजारवादी वक्त में कला को "कॉमोडिटी" के रूप में पेश करने वाली दृष्टि, सोच और समझ का बोलबाला है. यह समय जहाँ, कला केवल उसे मंच दे रहे पूँजीवादी के हितों के निमित्त गढ़ी जा रह होती है, प्रस्तुत होती है. निष्कर्ष यह कि वर्षा को समझौते करना और वक्त के साथ ढलना आता है, हर्ष को नहीं. और इसलिए आज की तारीख में हर्ष के पास कामयाबी के मौके नहीं हैं. रोहिणी अग्रवाल का निष्कर्ष है, 'हर्ष में वह डायनामिज़्म ही नहीं है जो व्यक्ति को 'कालिगुला' बनाता है' ("बाजार का शास्त्र और हर्ष की मौत", नया ज्ञानोदय, दिसम्बर २००३). कालिगुला, रोमन सम्राट ऑगस्टस का परपोता, में अपनी महत्वकांक्षाओं को किसी भी दम पर पाने की उत्कटता है और उसमें संवेदना नहीं है. तो क्या हर्ष जैसे आज के युवा को भी इस संवेदहीन समय और समाज में कट्टर प्रतिद्वन्दिताओं के दरम्यान अपनी प्रतिबद्धता और संवेदनशीलता परे रखनी होगी ? क्या ऐसा ही कुछ संदेश उपन्यास के पाठ से उभरता है ? क्या मशीन की भांति संवेदनरिक्त हो जाना, सफलता के लिए "प्रोग्राम्ड" हो जाना मनुष्यता के लिए और उसके भविष्य के लिए अनुकरणीय संदेश है ? क्या अब इस घोर बाजारवादी दौर में हमें ऊँचे, शाश्वत आदर्शों, मूल्यों के प्रति आग्रही होना छोड़ देना चाहिए ? तब शायद मनुष्यता और मनुष्यता की पक्षधरता नहीं बचेगी. घनघोर उपभोक्तावादी समय में हर्ष का अवसान उसकी मात्र भावुकता या मूर्खता नहीं है, बल्कि एक संकेत है कि आज का समय का संवेदनहीन यथार्थ तुम्हारी सभी प्रतिभाओं, सत् और सहज मनुष्यता को क्षत-विक्षत कर डालेगी. यह वह भयानक टूटन है जिसे समय रहते पहचानने की ज़रूरत है, जो युवापीढ़ी को सचेत करती है. कतिपय पूँजीवादी शक्तियों को अपने आदर्शों पर हावी नहीं होने देना है, उसका मुकाबला करने के लिये बचा रहना भी जरूरी है. यह रचना प्रकारांतर से यह बताती है कि, सही है कि कोरा आदर्शवाद किसी काम का नहीं होता, किन्तु अपने आदर्शों, मूल्यों और सिद्घांतों से च्युत हो जाने में भी जीवन के प्रति रागात्मक दृष्टि के बजाय भोगवादी दृष्टि बनती है. शक्ति पूँजी के पक्ष में भले दिखे और शायद नब्बे फीसदी यही हो भी, मगर मानवीय आवेग और रचनात्मक ईमानदारी हमेशा निरे भौतिक आग्रहों से कई गुना अधिक ताकतवर होती है.
हर्ष की मृत्यु नई पीढ़ी की आधुनिक भौतिकवादी चैम्बर नहीं घुट घुट कर मौत को "प्रोजेक्ट" नहीं करती, इसका दूसरा पाठ यह है कि, यहाँ धीरे धीरे निर्मित हो रही उत्तर बाजारवादी स्थिति की निकृष्टता का साफ संकेत पाया जा सकता है. मुद्दा यह है कि हमारी इससे लड़ने की तैयारी कितनी है ?
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