प्रगतिशील लेखन के अस्सी वर्ष
.भगवान सिंह निरंजन
प्रगतिशील
लेखक संघ की स्थापना के अस्सी वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर प्रगतिशील लेखक
संघ ग्वालियर इकाई द्वारा प्रगतिशील लेखन के अस्सी वर्ष पर केन्द्रित आयोजन
किया गया। यह 17 जुलाई 2016 को स्वास्थ्य प्रबंधन एवं संचार संस्थान सिटी
सेंटर ग्वालियर में हुआ। आयोजन के आरम्भ में उज्जैन से आए युवा कहानीकार
शशिभूषण ने अपने विचार अस्सी वर्ष की हिंदी कहानी पर केन्द्रित करते हुए
कहा, हिंदी कहानी खडी बोली की हिंदी कहानी है और आज की तारीख में एक सौ
सोलह वर्ष की हैे। एक सौ सोलह वर्ष की कहानी में हमें यह देखना जरूरी हैे
कि किन कहानियों में प्रगतिशील तत्व हैं, किन कहानियों ने आन्दोलन पैदा
किए, किन आन्दोलनों ने कहानियां पैदा कीं, किन कहानियों ने विमर्श पैदा
किए। 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन की अध्यक्षता के लिए
सज्जाद जहीर साहब ने जब प्रेमचंद से कहा तो उन्होंने तुरंत स्वीकार कर
लिया, जिसके पीछे यह सोच था कि वह कहानियों के माध्यम से, साहित्य के
माध्यम से बदलाव लाएंगे। निश्चित ही कहानी बदलाव के लिए सबसे अचूक, सबसे
मारक और लगभग अंतिम बात होती है। आप गीत गा सकते हैं, गुनगुना सकते हैं,
लेकिन अंत में हर चीज की कहानी होती है। प्रेमचंद की ‘नमक का दरोगा’ कहानी
आज ईमानदारी और बेइमानी की कहानी नहीं रह गयी हैे, यह वैयक्तिक ईमानदारी के
काॅरपोरेट के सामने पराजित होने की कहानी बन जाती है। इसी प्रकार काशीनाथ
सिंह की ‘सदी का सबसे बड़ा आदमी’, विद्यासागर नौटियाल की ‘माटीवाली’ और अन्य
कहानीकारों में मुद्राराक्षस, संजीव, शिवमूर्ति, और चंदन पाण्डेय की
कहानियां समाज को आगे ले जाने के लिए, प्रगतिशील मूल्यों के प्रति कोई
कोताही नही बरततीं। आज झूठ को सच बताने का पूरा अभियान चल रहा है। झूठ ही
सच है। सच्ची कहानियां कहने वाले को कभी पुरस्कृत नहीं किया जाता,बल्कि
दंडित किया जाता है।
दूसरे वक्ता के रूप में ग्वालियर के कथाकार
राजेन्द्र लहरिया ने विचार व्यक्त करते हुए कहा, बहुत महत्त्वपूर्ण और बडा
विषय हैे प्रगतिशील लेखन के अस्सी वर्ष। अस्सी वर्ष का दायरा इसलिए कि
प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना को ही अस्सी वर्ष हुए हैं लेकिन हमें इन
अस्सी वर्ष पर बात करने के लिए थोड़े पीछे की ओर जाना होगा। प्रेमचंद को
शामिल किए बिना प्रगतिशील लेखन की बात करना अधूरी बात करना होगा। प्रेमचंद
की बात कर यह समझ में आता हैे कि जो लेखन छद्म क्रांतिकारिता को लेकर लिखा
जाता है वह ज्यादा समय तक जीवित नहीं रहता। प्रगतिशील लेखन की यह विशेषता
हैे कि वह उस यथार्थ से पाठक को परिचित कराता हैे जो हमें साधारण आंखों से
दिखाई नहीं देता। और शोषण और अन्याय के स्रोत कहां हैं इसका ज्ञान कराता
है। वह बीमारी का पता बताता हैे जिससे आप उसके खिलाफ खडे़ हो सकें। ऐसी
रचनाओं में भीष्म साहनी का ‘तमस’, प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’, मुक्तिबोध की
कविता ‘अंधेरे में’ हैं। यह रचनाएं प्रगतिशील एप्रोच की रचनाएं हैं। ये
रचनाएं चेतना विकसित करती हैं। बेचेनी पैदा करती हैं। मनुष्य के भीतर का
मनुष्य जब जिस रचना में प्रकट होता हैे तो वह रचना प्रगतिशील रचना होती है।
अलीगढ़
से आए प्रो. वेदप्रकाश ने इस अवसर पर बोलते हुए कहा कि प्रेमचंद और निराला
ने प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना से पहले हिंदी में प्रगतिशील लेखन को
आधार प्रदान किया। प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के बाद नागार्जुन,
केदारनाथ अग्रवाल ,त्रिलोचन और मुक्तिबोध ने हिंदी में प्रगतिशील कविताएं
लिखी हैं। ये कविताएं सौन्दर्य की नई परिभाषाएं गढ़ती हैं। लोगों का
सौन्दर्य के प्रति नजरिया बदलती हैं। अमरकांत की ‘हत्यारे’ कहानी के
हत्यारे चैरासी के दंगों में नजर आए, गुजरात के दंगों में नजर आए और आज भी
नजर आते हैं। प्रगतिशील कविता ने शिल्प को भी बदला है। लोक में जितने ढंग
से बात कही जा सकती थी वह सब प्रगतिशील लेखन में है। आज राजनीतिक पाखंड,
साम्प्रदायिकता और जातिवाद का विरोध जरूरी है। प्रगतिशीलता लेखक के आचरण
में भी होना चाहिए।
अंत में मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के
महासचिव विनीत तिवारी ने इस अवसर पर बोलते हुए कहा कि प्रगतिशील लेखन केवल
मानवतावादी लेखन नहीं होता वह पक्षधर लेखन होता है। इसलिए वह समाज के प्रभु
वर्ग की मान्यताओं को ठेस पहुंचाता है। बनी बनाई मान्यताओं को जहां वह गलत
समझेगा, चोट पहुंचायगा। इसलिए वह सबके सुभीते का लेखन नहीं होता।
प्रगतिशील लेखन उदार लेखन होता है। वह खुले दिल से किसी भी आरोप या स्थापना
को अपने ऊपर झेलेगा, उसे तौलेगा, वैज्ञानिक कसौटी पर परखेगा, ऐतिहासिक
कसौटी पर परखेगा और उसके बाद कहेगा यह हमारी समझ है। आज का प्रगतिशील लेखन
चार्वाक से लेकर जातक कथाओं तक, दुनिया के किसी भी कोने में छिपे प्रगतिशील
लेखक को प्रतिष्ठा देने का काम करता हेंै जिनको हमारे समाज की बुराइयों ने
कूड़े में डाल दिया था। स्त्रियों ने लेखन किया, दलितों ने लेखन किया,
उन्हें उस दौर की बुराइयों ने उभरने नहीं दिया। प्रगतिशील लेखन उन्हें
ढंूढ़कर प्रतिष्ठा देने का काम करता है।
प्रगतिशील लेखन के अस्सी
वर्ष के मायने हैं कि प्रेमचंद के अस्सी वर्ष पहले कहे वाक्य ‘हमें हुस्न
का मेयार बदलना है’ वाक्य को विस्तार देना। सौन्दर्य के प्रतिमान बदलने का
काम प्रेमचंद ने सौंपा था। और हम प्रगतिशील लेखक अस्सी वर्ष से लड़ते-लड़ते,
हमले झेलते, अपने साथियों का क़त्ल देखते हुए भी और ख़ुद तमाम किस्म के ख़तरे
झेलते हुए भी हुस्न का मेयार यानी सौंदर्य के प्रतिमान बदलने की ज़िम्मेदारी
निभाने के लिए मुस्तैदी से तैनात रहे हैं। यह वाक्य ही हमारे लिए मशाल
हैे। यह उस वाक्य के अस्सी वर्ष पूरे होने का उत्सव मनाने का अवसर है और
अपने औजारों पर फिर धार देने का अवसर है। प्रगतिशील लेखन की पहली शर्त हैे
कि हम चुनौतियों की पहचान करें और फिर उनका सामना करें। साहित्य में इस
संकट को हमें पहचानना होगा। हमारे प्रगतिशील मूल्य जो हमने स्थापित किए थे
उन्हें बचाए रखना है।एक पुनरूत्थानवाद इस देश में फिर से हावी हो रहा है।
लोगों के सामने गलत इतिहास परोसा जा रहा है। राष्ट्रवाद और राष्ट्रप्रेम को
एक बताया जा रहा है। राष्ट्र का दायरा संकीर्ण से संकीर्ण किया जा रहा है।
कश्मीर, आरक्षण, गैर आरक्षण यानि आपस में लडाने के जितने भी तरीके हो सकते
हैं, वह सब इस समय इस्तेमाल किये जा रहे हैं। दक्षिणपंथ उफान पर है। ऐसा
लगता हैे कि झूठ गढ़ने की सारी रचनात्मकता और कल्पनाशीलता दक्षिण पंथ के पास
पहुंच गयी हो। नकली कहानियां गढी जा रही हैं जिससे लोग सच से दूर ही भटकते
रहें। झूठ की प्राण प्रतिष्ठा की जा रही है। प्रगतिशील लेखक को समाज के उन
लोगों से जमीनी स्तर पर जुड़ना होगा जो शोषण व दमन के शिकार हैं। पहले के
लेखक की यह विशेषता होती थी कि वह पहले बहुत पढ़ता था, जगह जगह घूमता था,
फिर लिखता था। आज उन अनुभवों को बहुतेरे लेखक सिर्फ़ मोबाइल और इंटरनेट से
जानने की कोषिष करके रचना कर रहे हैं। तकनीक की अपनी उपयोगिता है लेकिन
अनुभव का कोई विकल्प नहीं हो सकता। अस्सी वर्ष इन लेखकों को याद करने और
उनको सम्मान देने का भी वर्ष है।
अस्सी वर्ष पहले जिनसे हमारा
साहित्यकार लड रहा था वह था साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, अंग्रेजी सत्ता और
देश के भीतर समानान्तर चल रही बुराइयां। आजादी के बाद राज्य बदला हैे।
कितना बदला है, इसमें मतभेद हैं। आज़ादी के बाद जो राज्य बना, उसे अनेक
साहित्यकारों ने जनपक्षीय माना और आज़ाद देश के नये राज्य के साथ सहयोग की
भावना के साथ उन्होंने रचनाकर्म किया। आज जो राज्य हमारे सामने है, उसे भी
क्या हम जनपक्षीय राज्य मान सकते हैं? बेशक ये राज्य उदारीकरण के पिछले
पच्चीस वर्षों की देन और नतीजा है लेकिन हाल के उदाहरण तो बहुत ही खराब
हैं। इस नये राज्य का चरित्र क्या हैे? ये किस दिशा में ले जा रहा हैे?
क्या वो भूमि सुधार कर रहा हैे? या वो किसानों को आत्महत्या करने के लिए
छोड़ रहा है? क्या वह जनता के हक़ में काॅर्पोरेट की नाक में नकेल डाल रहा
है? क्या उससे भी हमें वैसे ही लड़ना हैे जैसे हम अंग्रेजों से लडे थे, या
हमें राष्ट्र निर्माण में इसी राज्य के साथ कंधे से कंधा मिलाना है। अब
आदिवासियों को आदिवासियों से लडाया जा रहा है। पत्रकारों को जेलों में डाला
जा रहा है। मीडिया को कंट्रोल किया जा रहा हैे। जनांदोलनों को कुचला जा
रहा है। ये राज्य क्या वही राज्य हैे जो हमने 1947 में खड़ा किया था। क्या
ये राज्य आज फासीवादी राज्य के रूप में तब्दील हो चुका हैें? आज प्रगतिशील
लेखन के सामने ये चुनौती है कि वो इस राज्य के साथ अपना क्या रिश्ता बनाता
है, उसे तय करना होगा। अगर ये राज्य जनविरोधी है तो लेखकों और
संस्कृतिकर्मियों को प्रतिपक्ष बनना ही होगा। पिछले वर्षों में ये
ज़िम्मेदारी हमने निभाई भी है और आगे भी निभाएँगे। ये सवाल इक्का-दुक्का
लेखकों के या किसी एक लेखक संगठन मात्र के व्यक्तिगत सवाल नहीं हैं बल्कि
इनका हल सांगठनिक, सामूहिक और एकताबद्ध प्रयासों से ही निकलेगा और उस
प्रक्रिया में हमारे पुरखे लेखक हमें सही रास्ता दिखाएँगे।
इस अवसर पर भिंड के कथाकार ए. असफल के उपन्यास ‘कठघरे’ का विमोचन भी किया गया।
कार्यक्रम
की अध्यक्षता वरिष्ठ गीतकार व कवि काॅमरेड डाॅ. जगदीश सलिल ने की। संचालन
इकाई के अध्यक्ष भगवान सिंह निरंजन ने किया। इस अवसर पर दतिया इकाई के साथी
श्री के. बी. एल. पाण्डेय, नीरज जैन ,मुरैना से सामाजिक कार्यकता नीला
हार्डीकर, वरिष्ठ साहित्यकार डाॅ. प्रकाश दीक्षित, महेश कटारे, पवन करण,
एवं शहर के प्रबुद्धजन बड़ी संख्या में उपस्थित थे।
प्रेषक
भगवान सिंह निरंजन 9826262125, अध्यक्ष प्रलेस ग्वालियर
दि. 3 अगस्त 2016
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