अभी कल के अखबार की खबर थी...
"हाथी पहाड से जा रहे हैं."
हाथी जा रहे हैं, अपने सदियों पुराने परम्परागत अरण्य
"दलमा" को छोड़कर...
विराट पहाड़ वाला अपना घर छोड़कर
जहाँ झूमते थे... सकुटुम्ब... मदमस्त, सदियों से...
कैसा लगता होगा हाथियों को अपना विस्थापन !
उजड़ जाना, उखड जाना...
जो कूच कर रहे हैं "दलमा" से
क्या फिर कभी लौटेंगे...
या लौट ही पाएंगे ?
कहते हैं हाथियों की याददाश्त बहुत मजबूत होती है...
उनको क्या याद रहेगा...इस तरह से अपना जाना...
कि जिसकी भूमिका कई सालों पूर्व से ही बनाने लगी थी...
कंक्रीट का जंगल, उनके प्राकृतिक अरण्य को
रौंद कर बढ़ता रहा... बढ़ता रहा... लील गया...
उनका शांतिपूर्ण प्राकृतिक आवास...
क्या याद करेंगे वे कि जब भी वो दोपायों की इस ज्यादातियों
से घबराकर गाँव-शहर की ओर भागे... वहाँ से भी
'आवारा हाथी' की गाली देकर उन्हें खदेड़ा गया...
'जंगली हाथी' के उत्पात के किस्से
बढ़-चढ़कर सुनाये गए और हमेशा उन्हीं को दोषी
बताया गया...
क्या याद रखते हुए, नहीं कल्पेंगे वे
"दलमा" मे अपना वह मुक्त विचरण
अब गूंजेगी शायद ही "दलमा पहाड़" में हाथियों की मुक्त चिंघाड...!
पत्रकार जब पूछता है,
"क्या हाथी लौटेंगे...?"
रादु मुंडा लाचारी से अपने गमछे से
मुँह का पसीना पोंछता हुआ अकबका कर
पहले उसका मुँह देखता है, फिर धीरे से कहता है
"बाबू, हाथी जा रहे हैं..."
सचमुच हाथी जा रहे हैं...
पहाड़ से हाथी जा रहे हैं.
"दलमा" से हाथी जा रहे हैं...
(झारखण्ड के पूर्वी सिंहभूम का प्रसिद्ध दलमा पहाड़ हाथियों का सदियों पुराना अभयारण्य रहा है. हाथियों के प्राकृतिक आवास के नाते ही यह प्रसिद्द है. अब हाथी यहाँ से बंगाल की ओर कूच कर रहे हैं... शहर अपनी पेंगे बढ़ाता हुआ, उनके इस निवास को हड़पता गया और आज वे जा रहे हैं, छोड़ कर दलमा को. किसे फर्क पड़ता है? हाथियों को या फिर रादु मुंडा जैसों को, मगर इनको फर्क पड़ने से भी किसी को क्या फर्क पड़ने वाला है!)
- शेखर मल्लिक
११-१०-२०१०
कुछ बातें जो रह जाती हैं कभी मन में, अनकही- अनसुनी... शब्दों के माध्यम से रखी जा सकती हैं,बरक्स... मेरे-तेरे मन की कई बातें... कई सारे अनुभव, कई सारे स्पंदन, कई सारे घाव और मरहम... व्यक्त होते हैं शब्दों के माध्यम से... मेरा मुझी से है साक्षात्कार, शब्दों के माध्यम से... तू भी मेरे मनमीत, है साकार... शब्दों के माध्यम से...
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मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010
हाथी पहाड से जा रहे हैं
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जंगलों के काटे जाने से ये पशु भी विस्थापित हो रहे हैं ...भावनाओं को अच्छे शब्द दिए हैं
जवाब देंहटाएंयह विकास है और आज के प्रगतिशील समाज में और भारत जैसे तेजी से विकार कर रहे देश में आपके जैसे पागलों के लिए कोई जगह नहीं | औरमे उस ५ वर्ष की बच्ची के स्वप्न साकार करने हैं |हमे २०२० तक विकसित राष्ट्र बनना है|
जवाब देंहटाएंअंकित साहब, विकास या विकार? आप ही पहले तय करें ! ये कैसा विकास है जहाँ महज तात्कालिक लाभों के लिए प्रकृति से खिलवाड़ किया जाता है. इस "विकास" से हम कहाँ पंहुचेंगे ? आपकी पाँच वर्षीय बच्ची को आप कैसी दुनिया देना चाहते हैं? धुंए और कंक्रीट की ? २०२० तक विकास जरूर करें, मगर इसके लिए ऐसी कीमतें नहीं चुकाएँ...
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