बहुत साफ़ नहीं कहा था उसने
कि लड़ाई में (अब) तुम भी हो...
यह जो चल रहा है, बकायदा एक जंग है...
और इसमें तुम भी
शामिल हो दिन रात की तरह
जिस जगह अभी मैं हूँ, बहुत जल्द तुम भी वहीँ होगे...
अब तक बेखबर थे... चोट खाते थे...
चोट करने वाले हाथों को पहचानते थे, तो...
अभी अपने औजार - हथियार सब
इकठ्ठे करो... अभी, बिल्कुल इसी समय...
ढोर भी अपने बचाव के लिए सींग मारता है...
लड़ाकू बन जाओ
तुम्हारे सामने विकल्पों की कोई तालिका
नहीं है
और इतनी मोहलत भी नहीं कि
तुम इस युद्ध से
परे कुछ और संभावनाओं को तलाशो...
युद्ध तुम पर सीधे-सीधे थोपा गया है...
और तुमको अपनी आत्मरक्षा का पूरा हक़ है !
क्योंकि डार्विन का सिद्धांत
इसी फलसफे पर था...कि,
वही बचेगा जो
लड़ाई लड़ने, लड़कर जीतने की
सामर्थ्य रखता होगा...
तुम उस तरह के हो जिनके पास
भूख सुलगते हुए अंगार की तरह है
सपने राख की सफेदी हैं
उम्मीदें बर्फ के गट्टे हैं
हरियाली तुम्हारे पैरों के नीचे से खींची जा रही है
और उजाले तुम्हारे आकाश से पोंछ डाले जा रहे हैं...
तुम जितनी दूर देख सकते हो-
समर की जमीन ही देख रहे हो...
तुम्हें हक़ के लिए
प्रेम के लिए और आदमी की तरह जी सकने के लिए,
दुःख जैसा कड़वा काढ़ा
हलक से उतारने के लिए
अपनी भावी पीढ़ियों के वास्ते
बेहतर धरती के लिए... लड़ना ही होगा...
लड़ने के लिए सारी ताकत और सारे इरादे
पुख्ता कर लो...
लड़ो... लड़ो बेदम होने तक
या फिर जीतने तक...
इतना साफ़ नहीं कहा था उसने
यह सब !
सिर्फ़ उसे उस बंद कमरे की तरफ
घसीटे जाते हुए देखकर हमारी चेतना में
एकाएक बिगड़ी हुई मशीन के शोर की तरह
घटने लगा... .खतरे की घंटी सा बजने लगा... यह सब...
कमरा, जो ठीक हमारे सामने था,
की मोटी दीवारों और
मज़बूत लोहे के दरवाजे के पीछे
आध - एक घंटे पहले लाया गया
वह इक्कीस-बाईस साल का लड़का
बुरी तरह पीटा जा रहा था
हम महसूस कर सकते थे कि
उसकी कमर और तलुवों पर
बहुत जोरों से डंडे मारे जा रहे होंगे
इस वक्त उसकी नाक से खून निकल रहा होगा
और बार-बार उसका सिर बालों से पकड़ कर
सीली दीवारों पर मारा जा रहा होगा...
शायद उसकी सब कराहें
अंतिम रूप से पूरी तरह से बंद हो जाने तक
वह इसी तरह बर्बरतापूर्ण ढंग से
पीटा जाने वाला था...
और कड़वी बात यह थी
कि, हममें से हरेक जानता था
कि उसने ऐसा कोई दोष नहीं किया है
कि उसे मार डालने तक
उसके हाथ पीछे बांधकर
नंगा करके, तेल चुपड़ी मोटी लाठियों,
सरकारियो कमरबंदों और घूंसों...
से उसे इतना मारा जाय... उसके नाखून उखाड़े जायं...
यौनांगों को क्षत-विक्षत किया जाय या...
गुदा में पेट्रोल डाला जाय...!
उसने सिर्फ़ इतना कहा था
कि वह उन आदमीनुमा लोगों का
सरमाया है, जिन्हें आदमी मानने
का कोई अधिनियम जारी नहीं हुआ है
जिनकी ज़मीन और जंगल
बहुराष्ट्रीय कंपनियों की अघोषित मिल्कियतें
बना देने की साजिशें रफ़्तार में हैं
जिनकी मिट्टी और पानी छीन गया है...
वह उनके लिए लड़ता है...
और इससे पहले कि वह
अपने कहे हुए की और अधिक व्याख्या करता,
तमाम तथ्यों और आंकड़ों से उसे साबित भी करता...
वह पकड़ा गया था...!
उसने यह सबकुछ बहुत चीख कर भी नहीं कहा था
हम फिर भी सुन पाए थे
हम वहाँ भीड़ की घेरेबंदी की शक्ल में मौजूद थे...
फिर इसके बाद उसकी आवाज हमको लगातार
सुनाई देती रही...
उसकी कराहों और मार की दहला देने वाली
तमाम आवाजों के बरक्स उसकी आवाज
आती रही...
"लड़ाई में अब तुम भी हो..."
वह नौसिखिया सा दिखता लड़का,
जिसकी अभी मूंछें तक कड़ी नहीं हुईं थी
मगर रीढ़ बेशक हो गयी होगी...
हम सिर्फ़ इतना जानते थे कि
वह मर जाने से खौफ नहीं खा रहा था...
और साथियों, अब हम...
(जो अपने को आदमी मानते और समझते हैं...)
उसकी कराहों के पूरी तरह बंद होने से पहले
अपने कन्धों पर एक बोझ सा महसूस कर
तिलमिला उठे हैं...
लड़ाई पता नहीं अब शुरू होगी
या, बहुत पहले से जारी है
जिसमें हमें अब शामिल हो जाना है...
२२-२३-२४/१०/२०१०
कुछ बातें जो रह जाती हैं कभी मन में, अनकही- अनसुनी... शब्दों के माध्यम से रखी जा सकती हैं,बरक्स... मेरे-तेरे मन की कई बातें... कई सारे अनुभव, कई सारे स्पंदन, कई सारे घाव और मरहम... व्यक्त होते हैं शब्दों के माध्यम से... मेरा मुझी से है साक्षात्कार, शब्दों के माध्यम से... तू भी मेरे मनमीत, है साकार... शब्दों के माध्यम से...
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रविवार, 24 अक्तूबर 2010
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जवाब देंहटाएंप्रेम के लिए और आदमी की तरह जी सकने के लिए,
दुःख जैसा कड़वा काढ़ा
हलक से उतारने के लिए
अपनी भावी पीढ़ियों के वास्ते
बेहतर धरती के लिए... लड़ना ही होगा...
लड़ने के लिए सारी ताकत और सारे इरादे
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लड़ो... लड़ो बेदम होने तक
या फिर जीतने तक...
कविता में तल्खियाँ बढ़तीं जा रही हैं...कविता बेहतर से बेहतरीन बनती जा रही है......लड़ने का बिगुल बजाते हुए.........