करता हूँ यारों बार-बार बा-अदब उनका एहतराम
तबाह-ओ-क़त्ल भी हुए सरे-राह उनके वास्ते
और खुद ही पे आया अपनी बर्बादियों का इल्ज़ाम
अब तक तो ना हुई मयस्सर हमको वह
यकीं था कि मिलेंगे वफ़ा-ओ-उल्फत के जो पैगाम
जिन रास्तों पर खामोश वीरानियों का नूर था
चलते रहते थे खुशी-खुशी लेकर हम तेरा नाम
आगोश में लेकर तुम्हें ज़श्न-ए-वस्ल मनाते
क्या डराती जिंदगी, क्या करते कोई फ़िक्र-ए-अंजाम
गया वक्त वो सारे लम्हें गए दूर हमारी जानिब से
सोचते हैं अब क्या खामियाँ हमीं में थीं तमाम
रकीबों के शहर में घूमता हूँ तन्हा "शेखर"
जब से बदलते देखे हैं रिवाज़-ए-दोस्ती के आयाम
२८-१०-२०१०
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