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शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

पहरे पर हूँ निहत्था...


इस आधी रात में,
जो अपनी पिनक में बीत ही जायेगी आहिस्ता से
मैं इस शहर की सुनसान सड़कों पर
पीठ पर हाथ बाँधे
आवारगी में मुब्तिला हूँ...

सुनसान सड़क पर पतझड़ के टूटे
मुर्दा पत्ते
पड़ते हुए मेरे हर कदम के बाद
चीखें मारते हैं... और सन्नाटे में वह चीख
एक बोसीदा सा संगीत पैदा करती है... दूर जाती है...
यही वह समय है, जब बाहर से घूमती हुई
नज़र अंदर झाँकती हैं, और
दर्द की एक लूर पूरे वजूद में दौड़ जाती है...
अकेला होने के तमाम खतरों और अवसाद,
जो कि क्रमश: एक तकनिकी और मनोवैज्ञानिक शब्दावलियों के
बहुअर्थी शब्द हैं, दोनों बगलों में दबाए मैं
टहल रहा हूँ, सड़कों पर...
मगर यूँ नहीं... बेवज़ह तो कतई नहीं !

घरों की, दुमंजिलों-तिमंजिलों की
खिड़कियों पर पर्दे पड़ चुके हैं...
जिनके पीछे से एक नीम उजाला
अब भी झाँक रहा है, कहीं-कहीं...
लोग इत्मीनान से सो रहे है !
कोई वज़ह नहीं है, कि मेरी शिकायत पर वे गौर करें !
वे तो सालों से ऐसे ही सो रहे हैं...
कि जैसे कहीं कोई दुश्वारी नहीं है
कोई दुःख:दर्द, हारी-बीमारी नहीं है
जैसे आने वाला कल इतना महबूब, उम्दा
और खुशगवार होगा
कि उसकी कोई मिसाल कहीं नहीं है, फ़िक्र नहीं है !
क्या उन्हें लगता है कि
दुनिया ख्वावगाह से भी खूबसूरत हो चुकी है
गोया कहीं ना कोई मजलूम,
कहीं किसी की जागीरदारी नहीं है !
लोग तो यूँ बत्तियाँ गुल कर
सो रहे हैं,
कि आने वाली सुबह
बा-अमन और बा-हक़ उनके ही नाम होगी !
एक हम हैं कि, हम पर यह नशा तारी नहीं है !

मैं क्या करूँ कि मैं सो नहीं सकता
कि अंधेरों में भी एक सवालिया रौशनी मेरे
सुकून का क़त्ल कर मेरा पीछा किया करती है !
कि मैं इतना बद-गुमां नहीं हो सकता !
कि मैं जानता हूँ, यदि यह सच होता तो
एक सच्चा आदमी आज सरफरोश नहीं होता

वे हर रोज मेरी नस्ल को बधिया बनाने वाले
नुस्खों की ईजाद करते रहते हैं, और
तालियाँ पिटते हैं,
जश्न मनाएंगे वे... यदि,
मैं भी सो गया
यह तय है कि जिस दिन
मेरे जागने का माद्दा उनकी समझ में आएगा
जागना भी एक गुनाह करार दिया जायेगा...

यों मेरे जागने से वे अभी बा-खबर नहीं हैं...
लेकिन मेरे सो जाने से उनका हौसला बढ़ेगा !

शहर की सूनी सड़कें
सवाल पूछी जाने वाली तारीखों की गवाह होती हैं
जहाँ आम चहरे ख़ास मुखौटों को नोंचने के लिए
गैर-दहशत-दां जमीर के साथ आगे बढते हैं,
इन सड़कों के सदके...
(काहिरा के तहरीर चौक को सलाम करते हुए !)

जब शहर सोता है, एक अदद अदीब जगता है
इंसानियत की आबरू बचाए रखने के लिए
यह फ़र्ज़-ऐ-लाजिम होता है !.

शहर की ऐसी सूनी सड़कों पर
अपने खुद के साथ, बा-वजूद घूमता हुआ मैं
पहरे पर हूँ निहत्था...

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