फिर किसी किताब में...
या कि अतीत के फांकों में
ढूँढूँगा अपना मिज़ाज-ऐ-आराम
फिर सांझ की पहली लालटेन
पश्चिमांत की खूँटी से
उतर कर ओसारे के एक खंभे
पर टिक गई है
कुछ देर जब हर पत्ता सोने लगेगा
फूल अपनी बोझिल गर्दन झुका लेंगे
मैं सोचूंगा
तुम इस वक्त भी मेरे साथ
क्यों नहीं हो ?
जब शामें ढला करती हैं
तब, तेरे नुपूर की झंझन
क्यों नहीं सुनाई देती...
जब झींगुर बोलते हैं और
रात क्वाँरी दुल्हन बन जाती है
अंतर्मन में एक हूक उठती है कि
दौड़ जाऊं पास तुम्हारे
दिलाऊँ याद कि जब हम साथ हँसते थे
मिलते थे और जीते थे...
तुम्हारे बहके हुए आँचर का कोना थाम लूँ
और मेरा पूरा दिन रजनीगन्धा सा
रात बेला सी
महकती रहे !
ऐसे ही तो, हम साथ थे कभी
अभी एक पुरानी डायरी में
तुम्हारे पंजों की सिन्दूरी छाप देखी
तो याद आया...
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