ओ मितवा...
लो फिर देने लगा है समय
चिहुंक कर हांक...
आने लगा है वसंत हौले क़दमों से
सूखे पत्तों की खडखडाहट से
खुसफुसाते फूलों पर भौरों की लड़खड़ाहट से...
एक नीम उदासी सी तारी
होती हुई इस गर्माती अलसाती दोपहर में
जब मितवा तेरे छूए हुए
उस वसंत की याद आ रही है !
बीता था सारा वह मधुमास
तुम्हारे ही गोद में सिर लुकाये
और हँसती रहती थी तुम, उन सांसों की
हल्की भाप मेरे गालों पर, ललाट पर
भौंहों पर लगाती रहती थी अंजन...
ओ मितवा, बोलो ना क्यों हुआ
वह वसंत जो गया, बस गया...
उस वसंत के बाद सारे मौसम खो गये !
अब लो यह वसंत तो बौराया हुआ
फिर आ धमका है...
तेरे नुपूर बंधे पैरों की
धमक कहाँ रह गई ?
उस बादामी रंग की चमक कहाँ रह गई ?
रेत उडती है आँगन पर, पूछती है पलट कर
तेरे पैरों के छाप कब फिर आयेंगे उकर ?
मितवा, मुझे भूले तो नहीं होगे ना तुम ?
जब भी आओगे, एक वसंत साथ लिए
आना कि सोचूँगा, मैंने पा लिये
हमारे सारे वसंत...
जो रह गये हैं अनछुए
तेरे-मेरे मीठी-मीठी बतकहियों से
मन के मधुर नाच से
डूबकर जिए जीवन के पलों की पाँत से
मितवा, राह देख रहा हूँ तेरी कि
एक दस्तक हो सन्नाटे में अचानक
बाहर निकलूँ और
तुम खड़े मिलो नम चेहरा लिए,
मुस्काते और आँसू ढुलाते, एक साथ...!
(वसंत पंचमी - २०११)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें