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रविवार, 19 दिसंबर 2010

और वह प्रकट में कहीं नहीं होती !

पूरा ब्यौरा इस तरह है...

समूचे आकाश पर
चमकीले सफ़ेद बादल
फैले थे... क्षितिज के ओर-छोर
साँसें तेज-तेज चल रही थीं और
दिन रोजाना की तरह पल-दर-पल
बीतता जा रहा था...
बहुत सारे घटितों को इतिहास में दर्ज़ करता हुआ

कोई संवाद
लगातार अपने ही अंतस की सुंरगों में
गूंजता जा रहा था... जिसका अर्थबोध
इसलिए नहीं हो पा रहा था
कि अभी इसकी भाषा नए सिरे से चिन्हित की जानी बाकि थी...
क्योंकि सारे शब्दकोशों से आम आदमी की
शब्दावलियाँ सेंसर कर दी गयीं थी,
इसे 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' से संभावित आसन्न खतरे
के मद्देनज़र किया गया था !

आदमी ना प्रेम को कह सकता था, ना पीड़ा को...!
तो विरोध किस प्रकार करता ?
मूक विरोध तो भोंथरे औजार के समान हुआ !
और इसलिए चोटिल आदमी को हाशिए पर डालने की प्रथा
कई दिनों से चालू थी...
व्यवस्था और सत्ता
के वास्ते
आदमी का मुखर होना बड़ा खतरनाक जो था !

वह एक परछाई सी थी, जिसमें मैं सिमटता जा रहा था...
मेरे होने को एक साथ स्वीकारता
और नकारता भी, यह समय...
तेजी से अतीत में ढलता जा रहा था
एक रौ में...
दहकते हुए सीने और
यहाँ से हजारों मील दूर समुद्र की लहरों में
एक ही लय थी !

मैंने बाग़ की झाड़ी में से
उसे ढूँढ निकला था
जो कल की मुलाकात के बाद
फूल बनकर झड गया था...
और अक्सर ऐसा ही होता था...
और मैं अक्सर उस क्षण के बाद सोचता था इस पर...
मेरे पाने और पाकर खोने का पूरा 'प्रमेय' यही है !

इन सब ब्यौरों में
कहीं उसका जिक्र साफ़-साफ़ नहीं है
ठीक इसी तरह कि,
मेरे होने के ठीक बीचों-बीच उसका होना भी
स्पष्ट नहीं है ! पर वास्तव में वो तो है ही...
मेरे ही भूगोल में छिपा हुआ...!

कई सारी सच्चाईयों के बीच
कोई बात नए तरीके से कहने के लिए
चेहरे पर तनाव का निशान बनना अपरिहार्य होता है !
बिल्कुल वैसे ही जैसे
मेरे और उसके संबंधों का
ब्यौरा लिखने के लिए
एक अव्यक्त वेदना की
मरणान्तक टीस सहनी होती है... बार-बार
और वह प्रकट में कहीं नहीं होती !

यहाँ "वह" का तात्पर्य -- प्रेम या पीड़ा या दोनों--
आप स्वयं लगा लें, इसकी छूट है !
और यह भी जानने की, समझने की, कोशिश करें
कि जो भी था, ऐसा क्यों था ?

मैंने बस अपना ब्यौरा समेट लिया है !

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