ये शफक शाम हो रही है अब
और हर गाम हो रही है अब
जिस तबाही से लोग बचते थे
वो सरे आम हो रही है अब
अज़मते-मुल्क इस सियासत के
हाथ नीलाम हो रही है अब
शब गनीमत थी, लोग कहते हैं
सुबह बदनाम हो रही है अब
जो किरन थी किसी दरीचे की
मरकज़े-बाम हो रही है अब
तिश्ना-लब तेरी फुसफुसाहट थी
एक पैगाम हो रही है अब
- दुष्यंत कुमार
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