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रविवार, 1 अप्रैल 2012

भूख पर एक संवाद


भूख से हुई मौत को "राष्ट्रीय शर्म"
घोषित करने के मुद्दे पर,
जो विगत शाम के राष्ट्रीय प्रसारण पर आया था,
एक बार हम में बतकही हुई...

मुख्य अंश इस प्रकार हैं -

उसने मुझे कहा था -
भूख अपने असल रूप में
कुत्ते की आंत में
जैसी होती है,
वैसे अगर इंसान
को हो जाय तो क्या होगा,
जानते हो?...

मैंने कई तरह की कल्पनाएं कीं
और जवाब में,
कहा –
दुनिया अनायास
आग के गोले में
बदल जाऐगी...

उसने कहा
तुम ठीक सोच रहे हो,
यह तुम्हारी सोच की
सबसे अंतिम चढ़ाई भी है
मगर सिर्फ या सबसे पहले ऐसा ही होता
तो भूख... बन्दूक, छुरा, नफरत,
बाज़ार और इश्तिहार नहीं
बनता और
उनकी औरतों को
पूरा का पूरा...
सिर्फ जिस्म बनाकर नहीं छोड़ता !

दरअसल भूख को
हमारी लड़ने की, विरोध करने की
प्रवृति और सबसे बड़ी
इच्छा शक्ति होना चाहिए था....

मैंने सहमति में सर हिलाया

उसने कहा-
भूख से हुई मौत
सरकार के लिए शर्म
पैदा करती है
और सरकारें सदन के
भीतर ही इस शर्म का
निपटारा कर लेती हैं !
दरअसल शर्म की जगह
अफ़सोस जैसी संवेदना
और प्रतिबद्धता जैसी उत्तेजना
वहाँ होनी चहिए ! लेकिन.....

मैंने सहसा कह दिया
इतिहास गवाह है
कि भूख हमेशा
आदमी पैदा करता है

उसने कहा - नहीं,
भूख इंसानियत को खा जाता है

मगर मेरा तर्क था,
भूख प्राकृतिक आपदा नहीं है

इस बार उसने सहमति में
माथा थोडा सा हिलाया
कहा, आजकल भूख भी
ग्लैमर है .
औरतें धारावाहिकों में
चौथ, तीज पर कई सप्ताह
तक के प्रसारण में
भूखी रह जाती हैं !

मै हंसा...

उसने कहना जारी रखा-
अनाज गोदामों में मिट्टी हो रहा है
लोग गरीबी की किसी अदृश्य लकीर
(जिसे खींचने की मंशा पर नहीं मगर
औचित्य पर संदेह होता है)
के नीचे दर्ज किए जा रहे हैं... मगर,

कोई कवायद
भूखे को रोटी खिलाने की
नहीं... जबकि योजनाएँ मालपुआ हैं !
जोर इस पर है कि
भूखों को
प्यादा बनाकर
चुनाव की बिसात फतह की जाय...

भूख एक व्यवसाय है मित्र
भूख एक बाज़ी है...
तेरी-मेरी भूख,
उनकी रोटी है !  

उसने कहा और
इससे, मैं अंतत: सहमत हो गया...

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