एक नदी मुझमें रहती है...
बहती रहती है मेरे रगों में निरंतर...
छप्...छप्... कल...कल... गुडुप...गुडुप...गुडुप...!
वही नदी मेरे कस्बे की सरहद पर
घुँघरू बजाती हुई छोटी बच्ची की तरह
श्वेत फेनिल झागों को सरकाती हुई नन्हें पैरों से
निरंतर दौड़ती-भागती रहती है...धारावार...
बदली में, धूप में,
कई-कई रूप में !
हाय, वह अल्हड बच्ची...
नदी बतियाती है मुझसे... हौले से कान में...
मकर सक्रांति और छठ के मेले
कब-कब लगेंगे...?
मेरे भीतर हमेशा
एक कंपती हुई नमी बहती है...
स्नेहिल थपकियाँ दे कर ज्यों सुलाती हुई...
नदी, जो एक हमराज भी है...
जिसमें पाँव डाले
हर शाम देर तक बैठता हूँ देर तक...
ढेर सारी बातें किया करता हूँ...
दोनों थोड़े उदास और पास-पास
जब से थोड़ी उम्रदार हो गयी है मेरी ही
उम्र के साथ-साथ... यह नदी,
मुक्त हो कर
सभी वर्जनाओं से जब चाहे जी,
नदी को कसकर गले
लगाता हूँ...
सूरज परली तरफ खड़े पहाड़ों के
पीछे ओट ले लेता है,
भलमनसाहत है उसकी !...
नदी कानों में फुसफुसाकर कहती है...
घर जाओ, देर हो जायेगी
मैं भी उसी किस्म की फुसफुसाहट
से उत्तर देता हूँ, मेरा घर तुम हो...
नदी शरारत के मारे इठला जाती है...
रोज मेरे भीतर हल्की थपेड़ों की आवाजें,
आज़ाद लहरों की किलकारियाँ,
और पनीले जलकुम्भियों की अठखेलियाँ...
मुझमें नदी का विस्तार लिए शामिल हो जाती हैं.
ये नदी मुझसे इतिहास के दिन दोहराए जाती है
वसंत... सावन... शरद... मौसमों को कैसे जिया मैंने,
हुलस-हुलस कर पूछती जाती है,
तब यूँ भोली बनती है
जैसे कुछ जानती ना हो... और,
कभी गुमसुम, कभी खिलखिलाने लगती है.
मैं उदास होता हूँ,
नदी खामोश बह जाती है...
जब रोता हूँ...
नदी छलछला जाती है...
हँसता हूँ...
कहती है, तुम्हारी खुशी को नज़र ना कहीं
लग जाये मेरी !
नदी प्रौढ़ हो जाती है एकाएक...
मेरे साथ ही गूंजती, खिलखिलाती, हँसती है...
समव्यस्का की भांति
मैं कहता हूँ, भावातिरेक में
उत्तेजित हो कर
सुनो, तुम्हारी कोई तस्वीर बनाना चाहता हूँ
वह कहती है, जिस दिन पानी पर रेखाएं रच लेने का
गुर सीख लोगे, बना लेना...!
यह नदी "स्वर्णरेखा"
जिसकी तटों की सुबह और शामें...
लोकप्रिय हैं, सुदूर शहर से आने वाले सैलानियों में
या सरकारी पर्यटन के मानचित्र पर...
जिसकी रेत में से सोने के कण मिलने के मिथक
आज भी सच साबित होते हैं...
क्योंकि एक आदिम जाति के लोग
तलाश लेते हैं, काफ़ी मशक्कत से पोस्ता जैसे कण,
जिसके किनारे ताम्बे का पुराना कारखाना
चूँकि, जिस पर अर्थव्यवस्था
की प्रगति का दारोमदार है...
इसमें अवशिष्ट घोलकर भी निष्कलंक रहता है...,
और जिस पर बने नए चौड़े पुल के बगल में
प्रांतीय मंत्री की स्तुति करता शिलापट्ट लगा है...
लेकिन नदी का तो ये परिचय खांटी अखबारी है !
जबकि मैं कहता हूँ...
असल में, यह नदी मेरी बहुत सगी है...
जैसे, मेरे दुखों में दुख
सुखों में सुख महसूसती हुई...
मेरी अबसे अच्छी सहेली सी ये नदी...
यूं ही नहीं कहता कि,
बस... ये मुझमें रहती है...!
मैं इसमें,
और यह मेरे भीतर
बूढ़ी होती हुई...
१९-२०-२१,अगस्त २०१०
कुछ बातें जो रह जाती हैं कभी मन में, अनकही- अनसुनी... शब्दों के माध्यम से रखी जा सकती हैं,बरक्स... मेरे-तेरे मन की कई बातें... कई सारे अनुभव, कई सारे स्पंदन, कई सारे घाव और मरहम... व्यक्त होते हैं शब्दों के माध्यम से... मेरा मुझी से है साक्षात्कार, शब्दों के माध्यम से... तू भी मेरे मनमीत, है साकार... शब्दों के माध्यम से...
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शनिवार, 21 अगस्त 2010
एक नदी मुझमें रहती है...
लेबल:
कविता,
प्रकृति,
हिंदी,
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हिंदी साहित्य
गुरुवार, 19 अगस्त 2010
साथी तुममें सावन है...
ओह मेरे साथी,
देखो पहाड़ों पर सावन है...
स्फूर्त हरियाली में सावन है
भीगी हुई चिर सद्यःस्नाता सी ये रातें
इन रातों में सावन है
तप कर जो कुन्दन हुईं,
तेरे इन्तजार में,
उन सांसों में सावन है
मन की क्षितिज के ओर छोर में
पाता हूँ
पावस के समृद्ध पयोधर सा
तुम्हें साथी
जानता हूँ कि
तुम में सावन है...
ये किस्सा...
गुनगुनाते हुए भीगते-भीगते दूर सड़क
पर वक्त काटने जैसा है...
छींटों को जीभ से चखने जैसा है
और आल्हाद का एक दरिया
भीतर उफनता है...
मैं खुश हूँ, मेरे भीतर एक सावन है !
हर एक सपना सावन है... साथी...
सपने का एक छोर तुम थाम लो
एक मेरे पलकों पर बाँध दो...
चलो, गीला हो जाएँ दोनों...
अगर इस बार नहीं, अगली बार कभी...
है जो बाकि इन्तजार अभी ...
कि,
फिर एक सावन तो ऐसा भी आयेगा
भीगेंगे दोनों खूब मन भर कर
तन जोड़ कर...
खिलखिलायेंगी... झुकती हुईं डालें नीम की
नाचेंगी बूंदें सीवान पर के नद्य पर
महकेंगी आँगन की दूब घनीं...
सावन के असर सारे
यहाँ से जब लुप्त हो जायेंगे
फिर माँगने को सावन भरपूर
हम सावन के गीतों में गाए जायेंगे...!
३०-०७/१९-८-२०१०
देखो पहाड़ों पर सावन है...
स्फूर्त हरियाली में सावन है
भीगी हुई चिर सद्यःस्नाता सी ये रातें
इन रातों में सावन है
तप कर जो कुन्दन हुईं,
तेरे इन्तजार में,
उन सांसों में सावन है
मन की क्षितिज के ओर छोर में
पाता हूँ
पावस के समृद्ध पयोधर सा
तुम्हें साथी
जानता हूँ कि
तुम में सावन है...
ये किस्सा...
गुनगुनाते हुए भीगते-भीगते दूर सड़क
पर वक्त काटने जैसा है...
छींटों को जीभ से चखने जैसा है
और आल्हाद का एक दरिया
भीतर उफनता है...
मैं खुश हूँ, मेरे भीतर एक सावन है !
हर एक सपना सावन है... साथी...
सपने का एक छोर तुम थाम लो
एक मेरे पलकों पर बाँध दो...
चलो, गीला हो जाएँ दोनों...
अगर इस बार नहीं, अगली बार कभी...
है जो बाकि इन्तजार अभी ...
कि,
फिर एक सावन तो ऐसा भी आयेगा
भीगेंगे दोनों खूब मन भर कर
तन जोड़ कर...
खिलखिलायेंगी... झुकती हुईं डालें नीम की
नाचेंगी बूंदें सीवान पर के नद्य पर
महकेंगी आँगन की दूब घनीं...
सावन के असर सारे
यहाँ से जब लुप्त हो जायेंगे
फिर माँगने को सावन भरपूर
हम सावन के गीतों में गाए जायेंगे...!
३०-०७/१९-८-२०१०
लेबल:
कविता,
प्रेम,
वर्षा,
सावन,
स्त्री,
हिंदी,
हिंदी कविता,
हिंदी साहित्य
बात किताबों की (भाग - १)
किताबों को नहीं पढ़ना किताबों को जलाने से बढ़कर अपराध है | -– रे ब्रेडबरी
किताबें हमारी सबसे भरोसेमंद और ईमानदार सहयात्री होती हैं. ये अपने समय का प्रामाणिक सामाजिक-राजनीतिक कलात्मक दस्तावेज तो होती ही हैं, कालान्तर को पाट कर इतिहास और भविष्य तक भी हमारी यात्रा कराती हैं. किताबें सर्वश्रेष्ठ बौद्धिक सम्पदा होती हैं. ये मानस का परिष्कार और परिमार्जन तो करती ही हैं, दूसरी दुनिया की तरफ खुलने वाली खिड़की होती है.
दोस्तों, किताबों पर लिखना बहुत सुखद होता है. ठीक उतना ही, जितना उनसे गुजरना. पढ़ लेने के बाद पढ़े हुए को दोबारा चेतना में बुनना-गुनना मनन और चिंतन का महत्वपूर्ण पड़ाव है, जहाँ पर ठहर कर अपने बोध को तौलने और साझा करने का मौका मिलता है. चेतना के स्तर पर उस बोध को आत्मसात करने का अवसर है, पढ़े हुए पर बात करना. जैसे मानस को पृष्ठ दर पृष्ठ खोलना...
जब हम रचना पर बात करते हैं, तो रचनात्मक पक्षधरता पर भी बात करनी होती है. सर्वकालीन महान साहित्य नितांत मनुष्य के प्रति पक्षधर होता है. मनुष्य-विरोधी साहित्य अगर रचा जाय भी तो, वह अत्यंत अल्पजीवी होगा. प्रेमचंद, यशपाल, रेणु, रान्घेय राघव, नागार्जुन, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, शिवमूर्ति, और कई लेखकों की कहानियाँ, मनुष्य मात्र के प्रति कोमल और तीखी रागात्मक संवेदना से भरी हुई हैं. सभी बड़ी रचनाओं का एक केन्द्रीय तत्व प्रेम भी होता है. प्रेम ही वह मूल अनुभूति है, जो संवेदना के रूप में प्रकट होती है. कला बगैर प्रेम के संभव ही नहीं है. प्रेम ही पक्षधरता के लिए प्रेरित करता है.
किताबें आपको सिखाती हैं कि, आदमी कैसे बनना है. अच्छी किताबें मनुष्य को तराशती हैं. बहुधा हम किताबों के मध्यम से उजाले की एक नई दुनिया में आते हैं, जहाँ औरों के जिए, भोगे अनुभव, संस्कृति व परम्पराओं, राग-द्वेष के, जीवन के बहुआयामी अनुभवों से हमारा साक्षात्कार होता है.
दोस्तों, चेतना के स्तर पर झकझोरने का माद्दा रखने वाली पढ़ी हुई कुछ ख़ास किताबों की याद आ रही हैं... इस बार सिर्फ़ गद्य साहित्य पर बात करता हूँ, पद्य और अन्य रचनाओं पर आगे कभी... इन और अन्य कई पर अलग-अलग भी बातें होंगी. फिलहाल...
प्रेमचंद का "गोदान", रेणु का 'मैला आंचल", श्रीलाल शुक्ल का "रागदरबारी", यशपाल का "झूठा सच", कृष्णा सोबती का "मित्रो मरजानी", मंजूर एहतेशाम का "सुखा बरगद", राही मासूम राजा का "आधा गाँव", विनोद कुमार शुक्ल का "मुझे चाँद चाहिए", धर्मवीर भारती का "सूरज का सांतवा घोड़ा", मैत्रेयी पुष्पा का "बेतवा बहती रही"... और ना जाने कितनी कृतियाँ... एक पाठक के रूप में आपको संवारती हुई, संस्कार देती हुई और लेखक के रूप में मांजती हुईं... "शेखर एक जीवनी", "गुनाहों का देवता" और "निर्मला"... वर्जनाओं को तोड़ने वाली रचनाएँ, संवेदनात्मक गाढ़ेपन को पुष्ट करती हैं. सर्वकालीन महानतम पुस्तकों में कई नाम शुमार किये जा सकते हैं. गोर्की की "माँ", तोल्स्तोय का "युद्ध और शान्ति"... मार्खेज़ का “वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सोलिट्यूड” और “लव इन द टाइम ऑफ कोलेरा” जब हम महान कृतियों की सूची बनाते हैं, तो ऐसी बहुत सी रचनाओं को इसमें स्थान देने को बाध्य होना पड़ता है, जो मनुष्यता को प्रधान तत्व बनाकर रची गयीं और ऐसा होना लाजमी भी था.
हिन्दी की कुछ प्रमुख कहानियाँ (लिंक सहित) -
यशपाल – पर्दा
रेणु - संवदिया
मन्नू भंडारी – त्रिशंकू
शिवमूर्ति - तिरिया चरित्तर
सृंजय – कामरेड का कोट
उदय प्रकाश - मोहनदास
इस सूची में आप और कई सारी रचनाएं जोड़ते जा सकते हैं... ये सूची कभी अंतिम नहीं हो सकती.
रविवार, 15 अगस्त 2010
बचा हुआ है कुछ (कविता)
हालाँकि,
तिलमिलाए हुए
(जंतुओं जैसे)
मनुष्यों के पास
यदि बचा हुआ है कुछ,
तो कौड़ी भर वफ़ादारी,
हर सुबह असलियत की गर्मी में भाप
होने से पहले
उम्मीद की ओस
और
बेतरतीब टूटे हुए नाखून...
झड़ते हुए बालों से
उम्र गिनते हुए
बचे हैं धुंधले होते हुए
अभी, बाबूजी जैसे लोग...
और चौराहे पर रोज 'नगर-बस'
की प्रतीक्षा करती प्रेमिकाओं
के पास बची हुई है
सड़क के परले तरफ
खड़े प्रेमियों पर
एक नज़र उछाल देने की फुर्सत...
तमाम चीजें, दूसरी चीजों में
कुछ-कुछ बच जाने की उम्मीद में
बची हुई हैं...
और आदमी भी...इसी तरह...
लगातार एक ही जगह
खा-खाकर चोट
जो लोग तिलमिला रहे हैं...
उनके खुले जख्मों को
नमकीन हवा सहला रही है
और भूख, महंगाई, घोषणाएँ, वायदे,
तानें, उनींदी रातें... उन नासूरों में ऊँगली
घुसेड़ रही हैं
तो उनके पास बची हुई है,
बीस डेसिबल से कम हर्ट्ज की मातमी रुदालियाँ...
बदहवास आदमी का
बदरंग चित्र हवा में टंगा है
और बराबर पीछा करता है
राजपथ की चौड़ी सड़क के किनारे...
गुहार लगता हुआ, कि उसे बचा लिया जाय
शोर अब भी बचा हुआ है
सिर्फ़ संसद ही नहीं, साप्ताहिक हाटों में भी
अमूमन देश के सभी शहरों में...
बुद्धिजीवियों की कनफोडू-कलात्मक बहसें
प्रेक्षागृहों की दीवारें जज्ब कर रही हैं
इधर बचे हुए लोग
नारों और लाठियों के बीच खप रहे हैं...
पायी हुई आज़ादी की असलियत, रूख और सच्चाई पर
आज़ादी की दूसरी रात से ही बहस जारी है
बहस करने के लिए बची हुई है
आज़ादी... और,
अगस्त महीने का पन्द्रहवाँ दिन बचा हुआ है,
इसको पूरी श्रद्धा से याद दिलाने के लिए ! हर साल...
तथापि,
नए लड़के नयी फसलों की तरह
नया स्वाद लाने के लिए कटिबद्ध
हैं और
उनसे अपेक्षित है इसके लिए होना प्रतिबद्ध
नसों में बहता खून बचा हुआ है...
देह और आँखों का नमकीन पानी
बचा हुआ है...
सीमा पर,
लोकतंत्र की मरजाद पर
लड़ने-मरने
के लिए बचे हुए हैं सर
और अपने दानों को बाइज्जत चुगने का
हक़ पाने तक
पूरी लड़ाई बची हुई है
अभी...
बन्दूक के बरक्स
कलम उठाने के लिये उंगलियाँ
और कलम में असर तय करने के वास्ते
सधे हुए ईमानदार विचार... बचे हैं,
थोड़ी ही सही, कहीं ना कहीं
साफ़ नीयत भी बची हुई है...
उम्मीद बची है... इसलिए,
खुशनुमा तबियत बची है.
पुराने चाकू अगर हैं
तो नई कोंपलों का आना भी बचा हुआ है.
सचमुच बचा हुआ है बहुत कुछ...
तिलमिलाए हुए
(जंतुओं जैसे)
मनुष्यों के पास
यदि बचा हुआ है कुछ,
तो कौड़ी भर वफ़ादारी,
हर सुबह असलियत की गर्मी में भाप
होने से पहले
उम्मीद की ओस
और
बेतरतीब टूटे हुए नाखून...
झड़ते हुए बालों से
उम्र गिनते हुए
बचे हैं धुंधले होते हुए
अभी, बाबूजी जैसे लोग...
और चौराहे पर रोज 'नगर-बस'
की प्रतीक्षा करती प्रेमिकाओं
के पास बची हुई है
सड़क के परले तरफ
खड़े प्रेमियों पर
एक नज़र उछाल देने की फुर्सत...
तमाम चीजें, दूसरी चीजों में
कुछ-कुछ बच जाने की उम्मीद में
बची हुई हैं...
और आदमी भी...इसी तरह...
लगातार एक ही जगह
खा-खाकर चोट
जो लोग तिलमिला रहे हैं...
उनके खुले जख्मों को
नमकीन हवा सहला रही है
और भूख, महंगाई, घोषणाएँ, वायदे,
तानें, उनींदी रातें... उन नासूरों में ऊँगली
घुसेड़ रही हैं
तो उनके पास बची हुई है,
बीस डेसिबल से कम हर्ट्ज की मातमी रुदालियाँ...
बदहवास आदमी का
बदरंग चित्र हवा में टंगा है
और बराबर पीछा करता है
राजपथ की चौड़ी सड़क के किनारे...
गुहार लगता हुआ, कि उसे बचा लिया जाय
शोर अब भी बचा हुआ है
सिर्फ़ संसद ही नहीं, साप्ताहिक हाटों में भी
अमूमन देश के सभी शहरों में...
बुद्धिजीवियों की कनफोडू-कलात्मक बहसें
प्रेक्षागृहों की दीवारें जज्ब कर रही हैं
इधर बचे हुए लोग
नारों और लाठियों के बीच खप रहे हैं...
पायी हुई आज़ादी की असलियत, रूख और सच्चाई पर
आज़ादी की दूसरी रात से ही बहस जारी है
बहस करने के लिए बची हुई है
आज़ादी... और,
अगस्त महीने का पन्द्रहवाँ दिन बचा हुआ है,
इसको पूरी श्रद्धा से याद दिलाने के लिए ! हर साल...
तथापि,
नए लड़के नयी फसलों की तरह
नया स्वाद लाने के लिए कटिबद्ध
हैं और
उनसे अपेक्षित है इसके लिए होना प्रतिबद्ध
नसों में बहता खून बचा हुआ है...
देह और आँखों का नमकीन पानी
बचा हुआ है...
सीमा पर,
लोकतंत्र की मरजाद पर
लड़ने-मरने
के लिए बचे हुए हैं सर
और अपने दानों को बाइज्जत चुगने का
हक़ पाने तक
पूरी लड़ाई बची हुई है
अभी...
बन्दूक के बरक्स
कलम उठाने के लिये उंगलियाँ
और कलम में असर तय करने के वास्ते
सधे हुए ईमानदार विचार... बचे हैं,
थोड़ी ही सही, कहीं ना कहीं
साफ़ नीयत भी बची हुई है...
उम्मीद बची है... इसलिए,
खुशनुमा तबियत बची है.
पुराने चाकू अगर हैं
तो नई कोंपलों का आना भी बचा हुआ है.
सचमुच बचा हुआ है बहुत कुछ...
लेबल:
कविता,
विद्रोह,
शेखर,
समसामयिक,
हिंदी,
हिंदी कविता,
हिंदी साहित्य
शनिवार, 14 अगस्त 2010
कहानियों के नोट्स - "गदल" (रान्घेय राघव)
कई बार कुछ कहानियां अंतर्मन को छूती हैं और बरबस कुछ कहने का मन हो आता है. पिछले दिनों रांघेय राघव की कहानी "गदल" भी कुछ ऐसी ही बेहतरीन कहानियों में से एक है. कथ्य एवं शिल्प के मामले में अनूठी और बेजोड़. राघव जी की "गदल". नारी के उद्दाम उत्कंठा, प्रेम और सबसे पहले उसके आत्मसम्मान-स्वाभिमान को किस खूबसूरती से पिरोया है.
फणीश्वर नाथ रेणु की रचनाएँ,खासकर 'मैला आँचल', पढ़ लो तो शब्दों का टोन दिल-ओ-दिमाग पर घंटियों सा देर तक बजता रहता है. रेणु की कहानियाँ बताती हैं कि, शब्दों की मार क्या होती है, कैसे बिना ज्यादा कहे, सिर्फ कुछेक शब्द द्वारा पूरी स्थिति, पुरी तस्वीर भरपूर व्यंग और कटाक्ष के साथ खड़ी कर दी जाती है! उनकी अविस्मरणीय कहानियाँ... "ठेस", "संवदिया" और "पंचलेट"...
"गदल" में नारी का खाका शिवमूर्ति जी के "त्रिया चरित्र" की तरह कुछ खास है. नारी का प्रेम और सुप्त कामना जिसे वह वाणी से नहीं कहती पर वह अपने समझने वाले को इशारे खूब करती रहती है, उसे मानों धिक्कारती, ललकारती रहती.. खूबसूरती तो इसी इशारे को बयां करने में है.
डोडी के प्रेम में गदल तो उसी समय पड़ गई थी जब १४ वर्ष की आयु में उसका भाई डंडे की जोर पर उसे ले आया था. " जग हंसाई से मैं नहीं डरती देवर !...... तू उसके साथ तेल पिया लठ्ठ लेकर मुझे लेने आया था न, तब?मैं आई थी कि नहीं?" वही प्रेम था, विश्वास था कि वह डोडी से भी निभाती रही उसकी भाभी बनकर...डोडी भी तो उसी को चाहता रहा, परोक्ष रूप से. इसीलिए वह बर्दास्त नहीं कर पाया कि गदल उसके रहते किसी और मर्द के घर बैठ जाये. लेकिन गदल ने ऐसा क्यों किया... कारण था ये... "चूल्हा मैं तब फूकूँ, जब मेरा कोई अपना हो." गदल को बेटे बहू की मजूरी मुफ्त करनी मंज़ूर नहीं. "ऐसी बाँदी नहीं हूँ कि मेरी कुहनी बजे, औरों के बिछिए छनके." कहानी यहीं पर साधारण से असाधारण हो उठती है. अघोषित रूप से के आत्मसम्मान का प्रश्न उठती है. उसके यौनिक अधिकारों का मसला उठती है.
"गदल" में नारी का खाका शिवमूर्ति जी के "त्रिया चरित्र" से कहीं विपरीत खींचता है. नारी का प्रेम और सुप्त कामना जिसे वह वाणी से नहीं कहती पर वह अपने समझने वाले को इशारे खूब करती रहती है, उसे मानों धिक्कारती, ललकारती रहती है... खूबसूरती तो इसी इशारे को बयां करने में है.
रचना ह्रदय के पार जाये तभी तो वह काल से पार जाती है... कालातीत, कालजयी हो सकती है. कहानी का अंतिम दृश्य और संवाद, गदल का अंतिम वाक्य... उफ़ किस तरह तीर सा ह्रदय को भेद जाता है...! प्रेम की ज्वाला भी कितनी शालीनता से अपने तेज के साथ प्रकट होती है.
नारी विमर्श की रचनाएँ इधर खूब नयी धारा की आयी हैं. पर 'गदल' कुछ और ही नायाब लगती है. एक स्त्री की बहादुरी, प्रेम, आत्मसम्मान, जुझारूपन... हर पहलू मुखर हुआ है... बगैर किसी दावे या घोषणा के.
"गदल" को पढ़ना स्त्री-मनुष्य की चेतना को पढ़ना है.
"गदल" को पढ़ना स्त्री-मनुष्य की चेतना को पढ़ना है.
शुक्रवार, 13 अगस्त 2010
काश यह कोई दूसरी दास्तां होती !
उसे बहुत कुछ देना चाहता था, अपना दामन फाड़ के सब दे देना चाहता था, और जिंदगी भर की तसल्ली हासिल कर लेना. ये उन दिनों के हालातों के तकाज़े की बात है, वरना मेरी अंजुलियों में इतना था कि वो तृप्त हो जाती, मैं सब पा जाता... वह फिर कभी भी आसमान पर चाँद देखकर निराश नहीं होती... ना उनींदी रातों में उसके माथे पर सलवटें आतीं... कुछ ऐसा था मेरे पास जो हर जिंदा रूह के पास होता ही है; कम-बेसी, मगर होता तो ज़रूर
है. अगर आपको याद हो तो, वही चीज जो 'लहनासिंह' 'सूबेदारिन' को देना चाहता था, जो 'काली' 'ज्ञानों' को और 'परीकुट्टी' और 'करूत्तम्मा' एक-दूसरे को देना चाहते थे. सब समाज की चौखट के पार दूसरी दुनिया में जाते हुए दे पाये थे ! खैर,
सपना यहाँ से शुरू होता है...
बहुत बड़ी-बड़ी और गहरी नदियों के पार, घने और दुर्गम्य जंगलों के नीम अंधेरों में, किन्हीं बुजुर्ग पहाड़ों की सबसे ऊँची चोटी पर जहाँ सूर्य हर शाम उस कस्बे के वाशिंदों की भोली निगाहों और मेहनतकश बाजूओं से पनाह लेता है. आसमान पर हर शाम का रंग नया होता है... उसके पीछे मैं एक सदी, एक उम्र भागा... उस मादक-गंध के पीछे-पीछे भागा... उस अनजानी महक फेंकते अदृष्ट सोते के पीछे भागा... और मेरे पैरों में कड़ियों की मानिंद सारे फलसफ़े, सभ्यता के नियम और नैतिकताएँ-व्यावहारिकताएँ, सारी कविताएं, सब किस्सेकोताह बंधे थे; मेरी कमर से लिपटा पूरा इतिहास घिसट रहा था...असफलताओं का सुनहरा इतिहास...!
दूर किसी ऐसे आबशार की तलाश में, जो मेरे सपने के भीतर सपनों में था, मैं प्यास से हलकान हो उसकी आस में बेतहाशा भाग रहा था, लेकिन मैं जितना उसके पास आता गया, वह उतना ही दूर लगता रहा. बचपन में माँ की कही एक बात याद आई, "पहाड़ करीब दीखते हैं, मगर जितना उनके पास बढ़ते जाओ, वे उतने ही दूर होते जाते हैं."
"ताउम्र ढूँढता रहा मंज़िल मैं इश्क़ की / अंज़ाम ये के गर्द-ए-सफ़र लेके आ गया..." जगजीत सिंह की आवाज़ गुनगुनाने लगी... हलक की क़ैद से एक रूहानी हँसी छूट कर हवा में गूँजने लगी.
सपने में मरोड़ और ये बिखर गया...
साथ वाली प्लेटफॉर्म पर लगी ट्रेन की तेज़ सीटी और एक धक्के से होश आया. मैं सफर में था. मेरी रैटिना पर पहला अक्स उभरा, सामने वाली सीट पर बैठा वह नवविवाहित जोड़ा जो एक-दूजे से रेशा-रेशा चिपका था. वे हँस-हँस कर बातें कर रहे थे और इतना पास होने के बावजूद मुझे उनके शब्द सुनाई नहीं दे रहे थे.
मैं विभम्र की स्थिति में था...
रेल पटरियों पर जुगलबंदी करती हुई सरपट भाग रही थी. पहाड़, खेत, नाले, जंगल, गाँव-जवार, झोंपड़ियाँ, नदी, खाईयाँ... हरेक शै उल्टी दिशा में दौड़ रही थी. क्या वक्त इसी तरह से पीछे फिर सकता, उल्टे...उल्टे...!!! हवा में कोई हँसा ! मगर घोर दृष्टिदोष ! भाग तो मैं रहा था, वे तो वहीं थे...स्थाई रूप से... भूत और सच्चाई की तरह मजबूत... अटल !
मैं गेट पर आ कर खड़ा हो गया था और दरवाजे की हैंडिल पकड़ कर खड़ा रहा. हवा के झोंके पूरे बदन से टकराने लगे, गाड़ी की रफ्तार से शरीर हिचकोले लेता था. जानता था इस हालत में वहाँ वैसे खड़े रहना खतरनाक है, मगर मैं दिल की ज़िद से मज़बुर था! "कामेश्वर, जब बुद्घि कोई उपाय नहीं सुझाती तो दिल की जिद सुन लेने में कोई हर्ज नहीं...?" अपने भीतर कोई दार्शनिक की तरह कह रहा था, "और, साफ कर दूँ, दिल की सुन लेना जुनूनियत है! हर किसी के बस की बात नहीं...बस जज्ज्बा होना चाहिए"
अपने माज़ी से मुख़्तसर आवाज़ें गूँजने लगीं... "सुखसिंग, वह मर जायेगा देखना, उसकी बीबी, दो सुंदर-सुंदर बेटियाँ हैं... वह उनके सामने रोज ज़लील होना आखिर कितने दिन बर्दास्त करेगा ? मरेगा..." ये केवल सूचना थी या जुगुप्सा या बेचैनी या सहानुभूति...? ना तब तय कर सका था, ना अब. मगर सुखसिंग की आवाज़ में निश्चय ही कठोरता, भर्त्सना, उपेक्षा थी, "मरे, मरेगा ही, उसकी बीबी बेहद सुंदर है, देखा नहीं तुमने... बहुत सुंदर...! उस जैसी बेशक्ल वाले को ऐसी सुन्दर बीबी...! दस दुआर मुँह मारेगी, बीस जगह जूठी होगी... ये मरेगा नहीं...?"
"छी:..."
और सचमुच एक रोज़ उस बेशक्ल वाले आदमी ने आत्महत्या कर ली, एक सुबह अपने ईष्टदेव के मंदिर के प्रांगण की सीढ़ियों पर बैठे-बैठे आप पर मिट्टी का तेल डाल कर लपटें उठा दी थीं. लपटों में अपनी ज़िंदगी के सब शको-शिकायतें, मलाल भसम कर गया. वह अफवाहों के कारण मरा था; उसके मरने पर तमाम अफवाहें फैलीं...
मगर वह भला आदमी था,
मगर शायद वह बेहद कमजोर आदमी था ? एक उदास... बेशक्ल वाला आदमी...
...और एक दिन मंदिर की सीढ़ियों पर आत्महत्या करना जिसकी नियति थी... बिल्कुल उसी तरह, जैसे एक निहायत खूबसूरत पत्नी पाना...
मैं झटके खा रहा था. सामने नंग-धड़ंग बच्चे खेतों में जमे पानी में नाचते-कूदते धम्मा-चौकड़ी मचा रहे थे. एक-दूसरे पर कच्ची मिट्टी के ढेले फेंकते... धीरे-धीरे वह दृश्य भी पीछे गुजर गया...
उस आदमी की दो बेटियाँ थीं, प्यारी-सी बेटियाँ... जवान होती हुई बेटियाँ... इंद्र की एक अप्सरा का नाम मिला था बड़ी को और वह अपने पाए हुए नाम को साबित भी करती थी; कि इस पर सिर्फ उसी का हक़ हो सकता था. साँवली सुरबाला !
'कामेश्वर, फासले तब तक होते हैं जब तक तुम कदम उठाने से हिचकिचाते हो...'
'मगर कुछ फासले फिर भी बाकी रह जाते हैं"'
'अपने दर्शन को ले कर एक दिन नेस्तनाबूद हो जाओगे, देखना तुम... हुँह्...!'
जेहन में ख्यालों की आमद एकाएक सुस्ताई तो मैं अपनी सीट पर दोबारा आ बैठा. मैं मृत्यु से बच कर आ गया था, जो मेरे कदमों तले गेट के पायदान के नीचे सरपट भाग रही थी. लेकिन मैं मर चुका था! बहुत पहले, बहुत-बहुत पहले...
'कामेश्वर, तुम पागल हो, बेवकूफ़ हो, तुम्हारी इस जैसी बोसीदा-कल्लर कहानियाँ पहले भी बहुत दफे बताई जा चुकी हैं. बेकार की मशक्कत कर रहे हो. सिर्फ खुद को तसल्ली देने के लिए, सिर्फ खुद को खुद के सामने अफ़सानानिगार साबित करने के लिए...'
ट्रेन के बाहर बारिश पड़ने लगी थी. प्रदेश में पिछले कुछ दिनों से मानसून के दिनों के आने के संकेत मिलने लगे थे. चट से जोरदार बरसात...! खिड़की के शीशों से टकराती ज़िंदा बूँदें भीतर चू कर, मेरे बदन से मिल कर कुछ अपनापा जताने को बेताब हुई जा रही थीं. मैं मन मार कर नव विवाहित धनाढय बंगाली जोड़े को चोर नज़र से बार-बार ताक लेता था. उन्हें भी बारिश पसंद आ रही थी. लड़की के चेहरे की पुलक उस खुशी की शिनाख्त कराने को उभर आई थी. लड़कियों को बारिश में भीगना भाता है, यह उनका मौलिक-निजी मनोविज्ञान है.
तालाबों में, हरे खेतों के बीच जिनका ठिकाना बना था, नए-नए ताजे उजले गुलाबी चमकदार कंवल खिले थे, चौड़े-चकत्ते पत्तों के ऊपर तैरते... पहाड़ पर बादल थे. लंबी पहाड़ी श्रृखंला का आसनबोनी और राखामाइंस स्टेशन के बीच हिस्सा... कह सकता हूँ, हरे-भरे समृद्घ पहाड़ों पर मैंने भी "बाबा" की तरह 'बादल को घिरते देखा है', तिरते देखा है.
वो पहाड़ों के आँचल में पसरी हरियाली बस्ती में रहती थी. कहा करती थी, "तुम आओगे तो हम घूमने चलेंगे. तुम आना. आओगे ना ?"
"घूमने, कहाँ ?"
"पहाड़ पर."
"पहाड़ पर ?"
"हाँ, कितना अच्छा लगता है ना पहाड़ पर... ऊपर... और ऊपर चढ़ते जाने का मन करता है. और वहाँ से पूरी दुनिया कितना सुंदर, कितनी सूक्ष्म लगती है. खुद के वृहत्तर हो जाने का अंह होता है, पहाड़ के साथ पहाड़ जैसा वृहद्... और सबसे बड़ी बात, वहाँ ज़मीन और आसमान के बीच सिर्फ तुम और मैं होंउंगी बुद्धू... सिर्फ तुम औ..." तब नहीं जनता था कामेश्वर कि, पहाड़ों के साथ रहने वाली, पहाड जैसी ही कठोर भी हो जायेगी... कामेश्वर ने पूरे आवेश से उसके दहकते कपोलों को अपनी अंजुली में भर लिया, माथे पर एक गाढ़ा चुम्बन दिया...
"तुम इतने अच्छे क्यों हो ?" इंद्र की अप्सरा जानना चाह रही थी.
सफेद धारियों वाले नीले फ्रॉक में रोशनी का एक पुंज साथ चल रहा था... कामेश्वर उसके तिलिस्म के दायरे में कैद होता जाता. कदम-दर-कदम, साँस-दर-साँस, तारीख-दर-तारीख... सम्मोहन के पार दूसरी दुनिया में जहाँ दो साँवरी-साँवरी बाँहें होतीं. मधुसिक्त रक्तिम होंठ होते और उन पर इसरार होता, "आज सजीव बना लो/अपने अधरों का प्याला/भर लो, भर लो, भर लो इसमें/यौवनमधुरस की हाला..."
एक अभिशप्त अप्सरा...
कामेश्वर नवविवाहित जोड़े को देखता है, वे मुँह जोड़े बैठे हैं. क्या इस हद तक एक-दूसरे में गुम हुआ जाता है, जा सकता है ? शायद हाँ, तो इसमें ताज्जुब क्या ? क्या उसने और "उसने" भी ऐसे ही गुम कर देने वाले पलों की चाह नहीं की थी...? चाहना और चाह को नेमत की तरह पाना हमेशा कहाँ हो पता है...
बारिश पीछे छूट गई है... बरसने वाले बादलों की टुकड़ी पीछे कहीं ज़मीन के किसी टुकड़े पर बंधी रह गई...
अब अस्ताचलगामी सूरज की सुनहली आखिरी किरणें काले बादलों के एक धब्बे की आड़ से झाँक कर अपनी अंतिम आभा बिखेर रही थीं. ताकि बूझने से पहले निशाँ छोड़ जाऐं, उष्मा छोड़ जाऐं...
'तुम तो अपने उन दिनों को इस मुकाम तक ना पहुँचा सके, तुम्हारा दिन आधे जल कर ही बुझ गया!'
कामेश्वर की तरफ नवविवाहिता एक बार कनखियों से देखती है, फिर हिना रचे हाथों से अपने बालों को चेहरे से हटाती हुई अपनी दुनिया में लौट जाती है. कामेश्वर उसकी मुस्कान की एक बेहद नाजुक कौंध में अपने लिए अजनबियत, तुच्छता और उपेक्षा का स्वाद पाता है.
"बाबा के साथ मेरा सब चला गया कामे..."
कामेश्वर चुप है. उसका बोलना बेकार है. वह धीरे से उसका सिर अपने सीने से दबा लेता है. कहना चाहता है कि मैं तो साथ हूँ हमेशा, पर खामोशी के ज़रिए इस बात को उसके अंदर डाल देना भी चाहता है, इसलिए बोलता नहीं, बल्कि उसे थोड़ा और कस लेता है.
"सपनों से बाहर निकलो कामे", वह सिर उठा कर सीधे उसकी आँखों में देखती है, "बहुत मुश्किल हो गया है अब सब कुछ. वह दिन नहीं रहे... वह वक्त नहीं रहा. वैसा कुछ नहीं होने वाला जैसा हमने सोचा था."
"क्या तुम भी वही ना रही", कामेश्वर घुटी-घुटी आवाज़ में कहता है.
"हाँ, नहीं रही. कैसे रहूँ बोलो...?" कैसी पीड़ा उस आवाज़ में उस दम... कामेश्वर को कुछ समझ नहीं आ रहा. वह उसे और भी कस लेता है, बिल्कुल एक डरे हुए बच्चे सा, जो अपनी माँ से और भी चिमट जाता है, अगर वह एकाएक उसका हाथ छुडाकर जाने लगे...
वह उसे अचानक आसमान का तारा लगने लगी है... दूर की आशा...! वह भारीपन उठाऐ गुरू स्वर में कहे जा रही थी, "सारी जिम्मेदारी चाचाजी ने संभालने की बात कही है. माँ और मुझ पर भी लोग जहान ने कालिख के छींटे उड़ाए हैं. माँ की तो ज़बान चली गई... बाबा के साथ मेरा सब चला गया... सब तुम्हारी आँखों के सामने है," एक सिसकारी शब्दों की गूँज के पीछे से फूटती है धीमे से, "तुम मेरे लिए बस एक नामुमकिन हकीकत बन कर रह गए कामे...".
एक अप्सरा अभिशप्त हो गई थी, एक मामूली कमजोर इंसान बन गई थी... अपनी सादगी में, मज़बूरियों में, और फूटफूट कर रो रही थी...
"मुझे अपना भरोसा दे सकती हो ना...तेरे चाचाजी से मैं मिलूँ..."
"खबरदार कामे...", आहत के चरमोत्कर्ष पर वो चिल्लाई थी, "भूल कर भी ऐसी गल्ती ना करना...वरना अबकी माँ और मेरी राख उड़ेगी... तुम यही साबित कर दोगे ना कि हम वाकई में रंडियाँ हैं... कि चाचाजी भी औरों की तरह यही मानने लगें कि माँ के कारण बाबा..., मोहब्बत नाम के रिश्ते को कोई नहीं जानता कामे कि उसका वास्ता दिया जा सकेगा... तुम हमारे बीच के इसी रिश्ते को गाली बना दोगे...छोड़ो रहने दो. यह खुबसूरत है कामे, इसे छोड़ दो ऐसे ही... मुझे जीते जी मरना तो है... पर माँ के लिए इतना तो करूँगी ही..."
कामेश्वर कहना चाहता है, कि मुझे भी मौत दे रही हो... पर निरूत्तर था, वह आगे भी कह रही थी, "अगर माँ ने ही प्यार भी किया तो क्या बुरा किया...किसी को दगा नहीं दिया... माँ परिवार को सब कुछ तो दे रही थी, क्या अपने को कुछ देने को चाहना उनका कसूर हो गया, कामे क्या तुम बात को, मुझको समझोगे ? मेरी माँ को समझोगे ?"
कामे सदमें की गिरफ्त में था, उसके जाने के बहुत देर बाद तक निशब्द... आँख पोंछने और दिल को समझाने की फाल्तू कोशिश करता सा... उसके कानों में पत्थरों और टूटे हुए क़दीम पुलिया से टकराती स्वर्णरेखा का चीत्कार भर रहा था.
मैंने खिड़की के बाहर सुना, एक शोर अब भी था; दौड़ती ट्रेन की हाँफ पटरियों पर से शोर बन कर उठ रही थी...
इक्कीस दिसंबर की एक सर्द भोर में, उसके सभी सपने ज़रीदार भारी लाल जोड़ा पहने, गहनों से लदे-फदे, सिर के नहर में कमला सिंदूर डाले सात फेरों के चक्कर में मेंहदी वाले हाथ उलझाए एक अजनबी के साथ गुम हो गए.
'तुम सोचते रहो कामेश्वर, काश यह नहीं हुआ होता... काश, तो... यह कोई दूसरी दास्तां होती...! जिसे तुम मुस्कराहट और नशे में चूर होकर बांच रहे होते, जैसे वह बंगाली जोड़ा इस समय उसे जी रहा है...'
सामने बैठा जोड़ा अभी अचानक किसी उत्तेजना से खिलखिला उठा था, ठीक इसी पल गाड़ी पुल पर से गुज़रने लगी... और धड़धड़ाहट में उनकी हँसी धँस गई... मैं आँखें बंद करके एकबारग़ी चमक कर आँखें खोल बैठा था. अपने भीतर भी एक धड़धड़ाहट महसूस की. अपने आप को बहलाने के लिए कुमार शानू का कोई गीत गाने लगा, इतने धीमे कि सामने वाला जोड़ा सुन न सके.
वैसे ही जैसे, वह बतियाते हैं और मुझे सुनाई नहीं देता !...
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रविवार, 8 अगस्त 2010
एक असंबद्ध कविता का ड्राफ्ट
रक्त की बूंदों से भी
ज्यादा शुद्ध संभावनाओं की
अवैध हत्या की जाती है...
हरदम ठीक उसी क्षण से ऐन पहले
जब उनके पनपने की तेज गुंजाइश हो
या तब, जब उनकी धार तेज हो जाने का खतरा
कनपट्टियों को सुर्ख करने लगे
फिर मातमपुर्सी के लिए
गाहे-बगाहे कुछ सभायें आयोजित कर ली जाती हैं
और संतोष की सारी प्रायोजित खबरें
आसपास बिखेर दी जाती हैं...
जब 'मैं', 'तुम' और 'हम'
जैसे पुरुषवाचक सर्वनाम
एक खराब मशीन के
कलपुर्जे बनकर रह गए हों
फिर भी नपुंसकता का पता ही नहीं चलता
क्योंकि ये
अवसरवाद के नए व्याकरण और परिभाषाओं में
संकरित हो गयी है.
ऐसे अवसरवादी कालखंड में
जब हर कोई अपने अवसर भुना रहा है
हथेलियों और तलवों की खुजली मिटा रहा है
कोई गा रहा है,
कोई रो रहा है
कोई धो रहा है,
तो कोई ढो रहा है!
मकसद सिर्फ़ लेने या पाने से है...
और पीढ़ी के ज्यादातर लोग
सिर्फ़ इसी फ़िराक में डटे हुए हैं...
शवों पर रोने के लिए कुछ बेचारगियाँ हैं
जिनकी शिनाख्त कोई बड़ा मुद्दा नहीं है...
लोकहित की घोषणाएँ सिर्फ़ खुशनुमां मुहावरे हैं...
जिनको दातून की तरह चबा कर थूका जाता है
ना कि गन्ने की मानिंद चूसा जा सकता है !
सीना तान कर चलने वाली आवारगियाँ
कम हुई हैं...
सारे हौसले बाजार खा गया है
शर्म आईने की तरह टंगा है दीवार पर
दाँत मांजने के बाद अपने चेहरे का धुला हुआ अक्स
देखने के लिए...
पश्चाताप मुँह पर से पानी पोंछने के बराबर है
शराफत असल में
गुसलखाने या पैखाने
के चारखानों तक ही सिमट गयी है...
क्योंकि पूरे बाहर,
सिर्फ़ जो नंगई है, उसकी तासीर गज़ब की है !
इसको पकड़ने वाली आँखों पर
संभाव्य अवसर की संभावना की टाट झूलती है...
अत: वह नजरंदाज कर दी जाती है.
सारी विभत्सता के बाद
गुलाब बाग़ का सरकारी संपोषित, संरक्षित
गुलाब खिलता महकता रहता है
निरपेक्ष सौंदर्य का नमूना पेश करता है...
वही, जिसका बाजार अनुमोदन करता है,
जिसका सत्ता अभिवादन करती है...
लाल रंग हमेशा पीछा करता है...! सलाम करता है...
खून में दिखता है...
जहाँ बहता है, अपना वक्तव्य भी देता है...
उसको पढ़ने वाली नजर पर भी
दरबारी "ब्राण्ड" की मलाई चढ़ी होती है !
यह अफसोसजनक होने से ज्यादा
घृणास्पद है...
धर्म, विचार और पवित्र जुनून
जैसी संकल्पनाएँ व्यावहारिक रूप से
बेवकूफ बनाने का
सबसे कारगर विज्ञापन हैं...
यह कहना क्षोभ पैदा करने के समान है कि
संकट का छायाभास
खड़ा करना बहुत जरूरी चीज हो गयी है.
ऐसा इसलिए कि
संकट के कई रूपों और व्यक्तिवाचक संज्ञाओं पर
माल बिकने की संभाव्यता बढ़ जाती है.
सवाल करना भी
विरोध करना है
और विरोधी हो जाना यथास्थिति की ढूह को ठोकर
मारना है
सारे अवसादों के बीच भी
यह उत्साह कई गुना बढ़ा देता है...
यथास्थिति को तोडना
दरअसल आदमी हो जाना है...
सवाल करना और संभावनाएं पैदा करना
बेहद जरूरी और जायज हैं...बेहद...
ज्यादा शुद्ध संभावनाओं की
अवैध हत्या की जाती है...
हरदम ठीक उसी क्षण से ऐन पहले
जब उनके पनपने की तेज गुंजाइश हो
या तब, जब उनकी धार तेज हो जाने का खतरा
कनपट्टियों को सुर्ख करने लगे
फिर मातमपुर्सी के लिए
गाहे-बगाहे कुछ सभायें आयोजित कर ली जाती हैं
और संतोष की सारी प्रायोजित खबरें
आसपास बिखेर दी जाती हैं...
जब 'मैं', 'तुम' और 'हम'
जैसे पुरुषवाचक सर्वनाम
एक खराब मशीन के
कलपुर्जे बनकर रह गए हों
फिर भी नपुंसकता का पता ही नहीं चलता
क्योंकि ये
अवसरवाद के नए व्याकरण और परिभाषाओं में
संकरित हो गयी है.
ऐसे अवसरवादी कालखंड में
जब हर कोई अपने अवसर भुना रहा है
हथेलियों और तलवों की खुजली मिटा रहा है
कोई गा रहा है,
कोई रो रहा है
कोई धो रहा है,
तो कोई ढो रहा है!
मकसद सिर्फ़ लेने या पाने से है...
और पीढ़ी के ज्यादातर लोग
सिर्फ़ इसी फ़िराक में डटे हुए हैं...
शवों पर रोने के लिए कुछ बेचारगियाँ हैं
जिनकी शिनाख्त कोई बड़ा मुद्दा नहीं है...
लोकहित की घोषणाएँ सिर्फ़ खुशनुमां मुहावरे हैं...
जिनको दातून की तरह चबा कर थूका जाता है
ना कि गन्ने की मानिंद चूसा जा सकता है !
सीना तान कर चलने वाली आवारगियाँ
कम हुई हैं...
सारे हौसले बाजार खा गया है
शर्म आईने की तरह टंगा है दीवार पर
दाँत मांजने के बाद अपने चेहरे का धुला हुआ अक्स
देखने के लिए...
पश्चाताप मुँह पर से पानी पोंछने के बराबर है
शराफत असल में
गुसलखाने या पैखाने
के चारखानों तक ही सिमट गयी है...
क्योंकि पूरे बाहर,
सिर्फ़ जो नंगई है, उसकी तासीर गज़ब की है !
इसको पकड़ने वाली आँखों पर
संभाव्य अवसर की संभावना की टाट झूलती है...
अत: वह नजरंदाज कर दी जाती है.
सारी विभत्सता के बाद
गुलाब बाग़ का सरकारी संपोषित, संरक्षित
गुलाब खिलता महकता रहता है
निरपेक्ष सौंदर्य का नमूना पेश करता है...
वही, जिसका बाजार अनुमोदन करता है,
जिसका सत्ता अभिवादन करती है...
लाल रंग हमेशा पीछा करता है...! सलाम करता है...
खून में दिखता है...
जहाँ बहता है, अपना वक्तव्य भी देता है...
उसको पढ़ने वाली नजर पर भी
दरबारी "ब्राण्ड" की मलाई चढ़ी होती है !
यह अफसोसजनक होने से ज्यादा
घृणास्पद है...
धर्म, विचार और पवित्र जुनून
जैसी संकल्पनाएँ व्यावहारिक रूप से
बेवकूफ बनाने का
सबसे कारगर विज्ञापन हैं...
यह कहना क्षोभ पैदा करने के समान है कि
संकट का छायाभास
खड़ा करना बहुत जरूरी चीज हो गयी है.
ऐसा इसलिए कि
संकट के कई रूपों और व्यक्तिवाचक संज्ञाओं पर
माल बिकने की संभाव्यता बढ़ जाती है.
सवाल करना भी
विरोध करना है
और विरोधी हो जाना यथास्थिति की ढूह को ठोकर
मारना है
सारे अवसादों के बीच भी
यह उत्साह कई गुना बढ़ा देता है...
यथास्थिति को तोडना
दरअसल आदमी हो जाना है...
सवाल करना और संभावनाएं पैदा करना
बेहद जरूरी और जायज हैं...बेहद...
लेबल:
कविता,
विद्रोह,
शेखर,
समसामयिक,
हिंदी,
हिंदी कविता,
हिंदी साहित्य
बुधवार, 4 अगस्त 2010
इश्क में नमाजी बन गया
इश्क में नमाजी बन गया अब तो
वो आवारा काफिराई जाती रही मेरी...
दर-ऐ-यार दरगाह बन गया मेरे वास्ते
सर नवाता हूँ मौला, वजू करता हूँ
शब-ओ-सहर सिर्फ़ नाम-ऐ-यार को...
वफ़ा की बंदिशें कहाँ किसको
होती नसीब ऐसे, ऐ साहेब मेरे
बंदगी का लुत्फ़ पाया बाद मुद्दतों...
वो मुस्काती ऐसे कि सारी नेमतें
डाल रही हो मेरी झोली में
ऐसा हो खुदा मेरा, क्यों पूजूँ बुतों को...
कितनी राहत है उस वक्त-ऐ-वस्ल में
तस्कीन देता हुआ उल्फत उसका
रब्बा इस हसीन माज़रे में उम्र तमाम हो...
वो आवारा काफिराई जाती रही मेरी...
दर-ऐ-यार दरगाह बन गया मेरे वास्ते
सर नवाता हूँ मौला, वजू करता हूँ
शब-ओ-सहर सिर्फ़ नाम-ऐ-यार को...
वफ़ा की बंदिशें कहाँ किसको
होती नसीब ऐसे, ऐ साहेब मेरे
बंदगी का लुत्फ़ पाया बाद मुद्दतों...
वो मुस्काती ऐसे कि सारी नेमतें
डाल रही हो मेरी झोली में
ऐसा हो खुदा मेरा, क्यों पूजूँ बुतों को...
कितनी राहत है उस वक्त-ऐ-वस्ल में
तस्कीन देता हुआ उल्फत उसका
रब्बा इस हसीन माज़रे में उम्र तमाम हो...
०३/०८/२०१०
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