हालाँकि,
तिलमिलाए हुए
(जंतुओं जैसे)
मनुष्यों के पास
यदि बचा हुआ है कुछ,
तो कौड़ी भर वफ़ादारी,
हर सुबह असलियत की गर्मी में भाप
होने से पहले
उम्मीद की ओस
और
बेतरतीब टूटे हुए नाखून...
झड़ते हुए बालों से
उम्र गिनते हुए
बचे हैं धुंधले होते हुए
अभी, बाबूजी जैसे लोग...
और चौराहे पर रोज 'नगर-बस'
की प्रतीक्षा करती प्रेमिकाओं
के पास बची हुई है
सड़क के परले तरफ
खड़े प्रेमियों पर
एक नज़र उछाल देने की फुर्सत...
तमाम चीजें, दूसरी चीजों में
कुछ-कुछ बच जाने की उम्मीद में
बची हुई हैं...
और आदमी भी...इसी तरह...
लगातार एक ही जगह
खा-खाकर चोट
जो लोग तिलमिला रहे हैं...
उनके खुले जख्मों को
नमकीन हवा सहला रही है
और भूख, महंगाई, घोषणाएँ, वायदे,
तानें, उनींदी रातें... उन नासूरों में ऊँगली
घुसेड़ रही हैं
तो उनके पास बची हुई है,
बीस डेसिबल से कम हर्ट्ज की मातमी रुदालियाँ...
बदहवास आदमी का
बदरंग चित्र हवा में टंगा है
और बराबर पीछा करता है
राजपथ की चौड़ी सड़क के किनारे...
गुहार लगता हुआ, कि उसे बचा लिया जाय
शोर अब भी बचा हुआ है
सिर्फ़ संसद ही नहीं, साप्ताहिक हाटों में भी
अमूमन देश के सभी शहरों में...
बुद्धिजीवियों की कनफोडू-कलात्मक बहसें
प्रेक्षागृहों की दीवारें जज्ब कर रही हैं
इधर बचे हुए लोग
नारों और लाठियों के बीच खप रहे हैं...
पायी हुई आज़ादी की असलियत, रूख और सच्चाई पर
आज़ादी की दूसरी रात से ही बहस जारी है
बहस करने के लिए बची हुई है
आज़ादी... और,
अगस्त महीने का पन्द्रहवाँ दिन बचा हुआ है,
इसको पूरी श्रद्धा से याद दिलाने के लिए ! हर साल...
तथापि,
नए लड़के नयी फसलों की तरह
नया स्वाद लाने के लिए कटिबद्ध
हैं और
उनसे अपेक्षित है इसके लिए होना प्रतिबद्ध
नसों में बहता खून बचा हुआ है...
देह और आँखों का नमकीन पानी
बचा हुआ है...
सीमा पर,
लोकतंत्र की मरजाद पर
लड़ने-मरने
के लिए बचे हुए हैं सर
और अपने दानों को बाइज्जत चुगने का
हक़ पाने तक
पूरी लड़ाई बची हुई है
अभी...
बन्दूक के बरक्स
कलम उठाने के लिये उंगलियाँ
और कलम में असर तय करने के वास्ते
सधे हुए ईमानदार विचार... बचे हैं,
थोड़ी ही सही, कहीं ना कहीं
साफ़ नीयत भी बची हुई है...
उम्मीद बची है... इसलिए,
खुशनुमा तबियत बची है.
पुराने चाकू अगर हैं
तो नई कोंपलों का आना भी बचा हुआ है.
सचमुच बचा हुआ है बहुत कुछ...
कुछ बातें जो रह जाती हैं कभी मन में, अनकही- अनसुनी... शब्दों के माध्यम से रखी जा सकती हैं,बरक्स... मेरे-तेरे मन की कई बातें... कई सारे अनुभव, कई सारे स्पंदन, कई सारे घाव और मरहम... व्यक्त होते हैं शब्दों के माध्यम से... मेरा मुझी से है साक्षात्कार, शब्दों के माध्यम से... तू भी मेरे मनमीत, है साकार... शब्दों के माध्यम से...
गठरी...
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रविवार, 15 अगस्त 2010
बचा हुआ है कुछ (कविता)
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बहुत सुन्दर ...आशावादी दृष्टिकोण रखते हुए अच्छी रचना रची है ...
जवाब देंहटाएंcomments se word verification hata den .....
बढ़िया...
जवाब देंहटाएंस्वतंत्रता दिवस के मौके पर आप एवं आपके परिवार का हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ.
सादर
समीर लाल
अच्छी संवेनदशील कविताएं हैं आपकी। जो कुछ बेहतर बचा हुआ है, उसे बचा-सहेज लें, इसी प्रयत्न में लगें सभी। शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंआपकी कविताएं सामयिक और प्रभावशाली हैं, जो बात कहनी होती है, उसमें असमंजस और दुविधा नहीं है। जीवन में जो बेहतर बचा हुआ है, उसी को बचा लेने का प्रयत्न कविता को जीवंत फार्म के रूप में बचा ले रहा है। आपका प्रयत्न मैं उसी दिशा में देखता हूं। बधाई।
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