उसे बहुत कुछ देना चाहता था, अपना दामन फाड़ के सब दे देना चाहता था, और जिंदगी भर की तसल्ली हासिल कर लेना. ये उन दिनों के हालातों के तकाज़े की बात है, वरना मेरी अंजुलियों में इतना था कि वो तृप्त हो जाती, मैं सब पा जाता... वह फिर कभी भी आसमान पर चाँद देखकर निराश नहीं होती... ना उनींदी रातों में उसके माथे पर सलवटें आतीं... कुछ ऐसा था मेरे पास जो हर जिंदा रूह के पास होता ही है; कम-बेसी, मगर होता तो ज़रूर
है. अगर आपको याद हो तो, वही चीज जो 'लहनासिंह' 'सूबेदारिन' को देना चाहता था, जो 'काली' 'ज्ञानों' को और 'परीकुट्टी' और 'करूत्तम्मा' एक-दूसरे को देना चाहते थे. सब समाज की चौखट के पार दूसरी दुनिया में जाते हुए दे पाये थे ! खैर,
सपना यहाँ से शुरू होता है...
बहुत बड़ी-बड़ी और गहरी नदियों के पार, घने और दुर्गम्य जंगलों के नीम अंधेरों में, किन्हीं बुजुर्ग पहाड़ों की सबसे ऊँची चोटी पर जहाँ सूर्य हर शाम उस कस्बे के वाशिंदों की भोली निगाहों और मेहनतकश बाजूओं से पनाह लेता है. आसमान पर हर शाम का रंग नया होता है... उसके पीछे मैं एक सदी, एक उम्र भागा... उस मादक-गंध के पीछे-पीछे भागा... उस अनजानी महक फेंकते अदृष्ट सोते के पीछे भागा... और मेरे पैरों में कड़ियों की मानिंद सारे फलसफ़े, सभ्यता के नियम और नैतिकताएँ-व्यावहारिकताएँ, सारी कविताएं, सब किस्सेकोताह बंधे थे; मेरी कमर से लिपटा पूरा इतिहास घिसट रहा था...असफलताओं का सुनहरा इतिहास...!
दूर किसी ऐसे आबशार की तलाश में, जो मेरे सपने के भीतर सपनों में था, मैं प्यास से हलकान हो उसकी आस में बेतहाशा भाग रहा था, लेकिन मैं जितना उसके पास आता गया, वह उतना ही दूर लगता रहा. बचपन में माँ की कही एक बात याद आई, "पहाड़ करीब दीखते हैं, मगर जितना उनके पास बढ़ते जाओ, वे उतने ही दूर होते जाते हैं."
"ताउम्र ढूँढता रहा मंज़िल मैं इश्क़ की / अंज़ाम ये के गर्द-ए-सफ़र लेके आ गया..." जगजीत सिंह की आवाज़ गुनगुनाने लगी... हलक की क़ैद से एक रूहानी हँसी छूट कर हवा में गूँजने लगी.
सपने में मरोड़ और ये बिखर गया...
साथ वाली प्लेटफॉर्म पर लगी ट्रेन की तेज़ सीटी और एक धक्के से होश आया. मैं सफर में था. मेरी रैटिना पर पहला अक्स उभरा, सामने वाली सीट पर बैठा वह नवविवाहित जोड़ा जो एक-दूजे से रेशा-रेशा चिपका था. वे हँस-हँस कर बातें कर रहे थे और इतना पास होने के बावजूद मुझे उनके शब्द सुनाई नहीं दे रहे थे.
मैं विभम्र की स्थिति में था...
रेल पटरियों पर जुगलबंदी करती हुई सरपट भाग रही थी. पहाड़, खेत, नाले, जंगल, गाँव-जवार, झोंपड़ियाँ, नदी, खाईयाँ... हरेक शै उल्टी दिशा में दौड़ रही थी. क्या वक्त इसी तरह से पीछे फिर सकता, उल्टे...उल्टे...!!! हवा में कोई हँसा ! मगर घोर दृष्टिदोष ! भाग तो मैं रहा था, वे तो वहीं थे...स्थाई रूप से... भूत और सच्चाई की तरह मजबूत... अटल !
मैं गेट पर आ कर खड़ा हो गया था और दरवाजे की हैंडिल पकड़ कर खड़ा रहा. हवा के झोंके पूरे बदन से टकराने लगे, गाड़ी की रफ्तार से शरीर हिचकोले लेता था. जानता था इस हालत में वहाँ वैसे खड़े रहना खतरनाक है, मगर मैं दिल की ज़िद से मज़बुर था! "कामेश्वर, जब बुद्घि कोई उपाय नहीं सुझाती तो दिल की जिद सुन लेने में कोई हर्ज नहीं...?" अपने भीतर कोई दार्शनिक की तरह कह रहा था, "और, साफ कर दूँ, दिल की सुन लेना जुनूनियत है! हर किसी के बस की बात नहीं...बस जज्ज्बा होना चाहिए"
अपने माज़ी से मुख़्तसर आवाज़ें गूँजने लगीं... "सुखसिंग, वह मर जायेगा देखना, उसकी बीबी, दो सुंदर-सुंदर बेटियाँ हैं... वह उनके सामने रोज ज़लील होना आखिर कितने दिन बर्दास्त करेगा ? मरेगा..." ये केवल सूचना थी या जुगुप्सा या बेचैनी या सहानुभूति...? ना तब तय कर सका था, ना अब. मगर सुखसिंग की आवाज़ में निश्चय ही कठोरता, भर्त्सना, उपेक्षा थी, "मरे, मरेगा ही, उसकी बीबी बेहद सुंदर है, देखा नहीं तुमने... बहुत सुंदर...! उस जैसी बेशक्ल वाले को ऐसी सुन्दर बीबी...! दस दुआर मुँह मारेगी, बीस जगह जूठी होगी... ये मरेगा नहीं...?"
"छी:..."
और सचमुच एक रोज़ उस बेशक्ल वाले आदमी ने आत्महत्या कर ली, एक सुबह अपने ईष्टदेव के मंदिर के प्रांगण की सीढ़ियों पर बैठे-बैठे आप पर मिट्टी का तेल डाल कर लपटें उठा दी थीं. लपटों में अपनी ज़िंदगी के सब शको-शिकायतें, मलाल भसम कर गया. वह अफवाहों के कारण मरा था; उसके मरने पर तमाम अफवाहें फैलीं...
मगर वह भला आदमी था,
मगर शायद वह बेहद कमजोर आदमी था ? एक उदास... बेशक्ल वाला आदमी...
...और एक दिन मंदिर की सीढ़ियों पर आत्महत्या करना जिसकी नियति थी... बिल्कुल उसी तरह, जैसे एक निहायत खूबसूरत पत्नी पाना...
मैं झटके खा रहा था. सामने नंग-धड़ंग बच्चे खेतों में जमे पानी में नाचते-कूदते धम्मा-चौकड़ी मचा रहे थे. एक-दूसरे पर कच्ची मिट्टी के ढेले फेंकते... धीरे-धीरे वह दृश्य भी पीछे गुजर गया...
उस आदमी की दो बेटियाँ थीं, प्यारी-सी बेटियाँ... जवान होती हुई बेटियाँ... इंद्र की एक अप्सरा का नाम मिला था बड़ी को और वह अपने पाए हुए नाम को साबित भी करती थी; कि इस पर सिर्फ उसी का हक़ हो सकता था. साँवली सुरबाला !
'कामेश्वर, फासले तब तक होते हैं जब तक तुम कदम उठाने से हिचकिचाते हो...'
'मगर कुछ फासले फिर भी बाकी रह जाते हैं"'
'अपने दर्शन को ले कर एक दिन नेस्तनाबूद हो जाओगे, देखना तुम... हुँह्...!'
जेहन में ख्यालों की आमद एकाएक सुस्ताई तो मैं अपनी सीट पर दोबारा आ बैठा. मैं मृत्यु से बच कर आ गया था, जो मेरे कदमों तले गेट के पायदान के नीचे सरपट भाग रही थी. लेकिन मैं मर चुका था! बहुत पहले, बहुत-बहुत पहले...
'कामेश्वर, तुम पागल हो, बेवकूफ़ हो, तुम्हारी इस जैसी बोसीदा-कल्लर कहानियाँ पहले भी बहुत दफे बताई जा चुकी हैं. बेकार की मशक्कत कर रहे हो. सिर्फ खुद को तसल्ली देने के लिए, सिर्फ खुद को खुद के सामने अफ़सानानिगार साबित करने के लिए...'
ट्रेन के बाहर बारिश पड़ने लगी थी. प्रदेश में पिछले कुछ दिनों से मानसून के दिनों के आने के संकेत मिलने लगे थे. चट से जोरदार बरसात...! खिड़की के शीशों से टकराती ज़िंदा बूँदें भीतर चू कर, मेरे बदन से मिल कर कुछ अपनापा जताने को बेताब हुई जा रही थीं. मैं मन मार कर नव विवाहित धनाढय बंगाली जोड़े को चोर नज़र से बार-बार ताक लेता था. उन्हें भी बारिश पसंद आ रही थी. लड़की के चेहरे की पुलक उस खुशी की शिनाख्त कराने को उभर आई थी. लड़कियों को बारिश में भीगना भाता है, यह उनका मौलिक-निजी मनोविज्ञान है.
तालाबों में, हरे खेतों के बीच जिनका ठिकाना बना था, नए-नए ताजे उजले गुलाबी चमकदार कंवल खिले थे, चौड़े-चकत्ते पत्तों के ऊपर तैरते... पहाड़ पर बादल थे. लंबी पहाड़ी श्रृखंला का आसनबोनी और राखामाइंस स्टेशन के बीच हिस्सा... कह सकता हूँ, हरे-भरे समृद्घ पहाड़ों पर मैंने भी "बाबा" की तरह 'बादल को घिरते देखा है', तिरते देखा है.
वो पहाड़ों के आँचल में पसरी हरियाली बस्ती में रहती थी. कहा करती थी, "तुम आओगे तो हम घूमने चलेंगे. तुम आना. आओगे ना ?"
"घूमने, कहाँ ?"
"पहाड़ पर."
"पहाड़ पर ?"
"हाँ, कितना अच्छा लगता है ना पहाड़ पर... ऊपर... और ऊपर चढ़ते जाने का मन करता है. और वहाँ से पूरी दुनिया कितना सुंदर, कितनी सूक्ष्म लगती है. खुद के वृहत्तर हो जाने का अंह होता है, पहाड़ के साथ पहाड़ जैसा वृहद्... और सबसे बड़ी बात, वहाँ ज़मीन और आसमान के बीच सिर्फ तुम और मैं होंउंगी बुद्धू... सिर्फ तुम औ..." तब नहीं जनता था कामेश्वर कि, पहाड़ों के साथ रहने वाली, पहाड जैसी ही कठोर भी हो जायेगी... कामेश्वर ने पूरे आवेश से उसके दहकते कपोलों को अपनी अंजुली में भर लिया, माथे पर एक गाढ़ा चुम्बन दिया...
"तुम इतने अच्छे क्यों हो ?" इंद्र की अप्सरा जानना चाह रही थी.
सफेद धारियों वाले नीले फ्रॉक में रोशनी का एक पुंज साथ चल रहा था... कामेश्वर उसके तिलिस्म के दायरे में कैद होता जाता. कदम-दर-कदम, साँस-दर-साँस, तारीख-दर-तारीख... सम्मोहन के पार दूसरी दुनिया में जहाँ दो साँवरी-साँवरी बाँहें होतीं. मधुसिक्त रक्तिम होंठ होते और उन पर इसरार होता, "आज सजीव बना लो/अपने अधरों का प्याला/भर लो, भर लो, भर लो इसमें/यौवनमधुरस की हाला..."
एक अभिशप्त अप्सरा...
कामेश्वर नवविवाहित जोड़े को देखता है, वे मुँह जोड़े बैठे हैं. क्या इस हद तक एक-दूसरे में गुम हुआ जाता है, जा सकता है ? शायद हाँ, तो इसमें ताज्जुब क्या ? क्या उसने और "उसने" भी ऐसे ही गुम कर देने वाले पलों की चाह नहीं की थी...? चाहना और चाह को नेमत की तरह पाना हमेशा कहाँ हो पता है...
बारिश पीछे छूट गई है... बरसने वाले बादलों की टुकड़ी पीछे कहीं ज़मीन के किसी टुकड़े पर बंधी रह गई...
अब अस्ताचलगामी सूरज की सुनहली आखिरी किरणें काले बादलों के एक धब्बे की आड़ से झाँक कर अपनी अंतिम आभा बिखेर रही थीं. ताकि बूझने से पहले निशाँ छोड़ जाऐं, उष्मा छोड़ जाऐं...
'तुम तो अपने उन दिनों को इस मुकाम तक ना पहुँचा सके, तुम्हारा दिन आधे जल कर ही बुझ गया!'
कामेश्वर की तरफ नवविवाहिता एक बार कनखियों से देखती है, फिर हिना रचे हाथों से अपने बालों को चेहरे से हटाती हुई अपनी दुनिया में लौट जाती है. कामेश्वर उसकी मुस्कान की एक बेहद नाजुक कौंध में अपने लिए अजनबियत, तुच्छता और उपेक्षा का स्वाद पाता है.
"बाबा के साथ मेरा सब चला गया कामे..."
कामेश्वर चुप है. उसका बोलना बेकार है. वह धीरे से उसका सिर अपने सीने से दबा लेता है. कहना चाहता है कि मैं तो साथ हूँ हमेशा, पर खामोशी के ज़रिए इस बात को उसके अंदर डाल देना भी चाहता है, इसलिए बोलता नहीं, बल्कि उसे थोड़ा और कस लेता है.
"सपनों से बाहर निकलो कामे", वह सिर उठा कर सीधे उसकी आँखों में देखती है, "बहुत मुश्किल हो गया है अब सब कुछ. वह दिन नहीं रहे... वह वक्त नहीं रहा. वैसा कुछ नहीं होने वाला जैसा हमने सोचा था."
"क्या तुम भी वही ना रही", कामेश्वर घुटी-घुटी आवाज़ में कहता है.
"हाँ, नहीं रही. कैसे रहूँ बोलो...?" कैसी पीड़ा उस आवाज़ में उस दम... कामेश्वर को कुछ समझ नहीं आ रहा. वह उसे और भी कस लेता है, बिल्कुल एक डरे हुए बच्चे सा, जो अपनी माँ से और भी चिमट जाता है, अगर वह एकाएक उसका हाथ छुडाकर जाने लगे...
वह उसे अचानक आसमान का तारा लगने लगी है... दूर की आशा...! वह भारीपन उठाऐ गुरू स्वर में कहे जा रही थी, "सारी जिम्मेदारी चाचाजी ने संभालने की बात कही है. माँ और मुझ पर भी लोग जहान ने कालिख के छींटे उड़ाए हैं. माँ की तो ज़बान चली गई... बाबा के साथ मेरा सब चला गया... सब तुम्हारी आँखों के सामने है," एक सिसकारी शब्दों की गूँज के पीछे से फूटती है धीमे से, "तुम मेरे लिए बस एक नामुमकिन हकीकत बन कर रह गए कामे...".
एक अप्सरा अभिशप्त हो गई थी, एक मामूली कमजोर इंसान बन गई थी... अपनी सादगी में, मज़बूरियों में, और फूटफूट कर रो रही थी...
"मुझे अपना भरोसा दे सकती हो ना...तेरे चाचाजी से मैं मिलूँ..."
"खबरदार कामे...", आहत के चरमोत्कर्ष पर वो चिल्लाई थी, "भूल कर भी ऐसी गल्ती ना करना...वरना अबकी माँ और मेरी राख उड़ेगी... तुम यही साबित कर दोगे ना कि हम वाकई में रंडियाँ हैं... कि चाचाजी भी औरों की तरह यही मानने लगें कि माँ के कारण बाबा..., मोहब्बत नाम के रिश्ते को कोई नहीं जानता कामे कि उसका वास्ता दिया जा सकेगा... तुम हमारे बीच के इसी रिश्ते को गाली बना दोगे...छोड़ो रहने दो. यह खुबसूरत है कामे, इसे छोड़ दो ऐसे ही... मुझे जीते जी मरना तो है... पर माँ के लिए इतना तो करूँगी ही..."
कामेश्वर कहना चाहता है, कि मुझे भी मौत दे रही हो... पर निरूत्तर था, वह आगे भी कह रही थी, "अगर माँ ने ही प्यार भी किया तो क्या बुरा किया...किसी को दगा नहीं दिया... माँ परिवार को सब कुछ तो दे रही थी, क्या अपने को कुछ देने को चाहना उनका कसूर हो गया, कामे क्या तुम बात को, मुझको समझोगे ? मेरी माँ को समझोगे ?"
कामे सदमें की गिरफ्त में था, उसके जाने के बहुत देर बाद तक निशब्द... आँख पोंछने और दिल को समझाने की फाल्तू कोशिश करता सा... उसके कानों में पत्थरों और टूटे हुए क़दीम पुलिया से टकराती स्वर्णरेखा का चीत्कार भर रहा था.
मैंने खिड़की के बाहर सुना, एक शोर अब भी था; दौड़ती ट्रेन की हाँफ पटरियों पर से शोर बन कर उठ रही थी...
इक्कीस दिसंबर की एक सर्द भोर में, उसके सभी सपने ज़रीदार भारी लाल जोड़ा पहने, गहनों से लदे-फदे, सिर के नहर में कमला सिंदूर डाले सात फेरों के चक्कर में मेंहदी वाले हाथ उलझाए एक अजनबी के साथ गुम हो गए.
'तुम सोचते रहो कामेश्वर, काश यह नहीं हुआ होता... काश, तो... यह कोई दूसरी दास्तां होती...! जिसे तुम मुस्कराहट और नशे में चूर होकर बांच रहे होते, जैसे वह बंगाली जोड़ा इस समय उसे जी रहा है...'
सामने बैठा जोड़ा अभी अचानक किसी उत्तेजना से खिलखिला उठा था, ठीक इसी पल गाड़ी पुल पर से गुज़रने लगी... और धड़धड़ाहट में उनकी हँसी धँस गई... मैं आँखें बंद करके एकबारग़ी चमक कर आँखें खोल बैठा था. अपने भीतर भी एक धड़धड़ाहट महसूस की. अपने आप को बहलाने के लिए कुमार शानू का कोई गीत गाने लगा, इतने धीमे कि सामने वाला जोड़ा सुन न सके.
वैसे ही जैसे, वह बतियाते हैं और मुझे सुनाई नहीं देता !...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें