वो आवारा काफिराई जाती रही मेरी...
दर-ऐ-यार दरगाह बन गया मेरे वास्ते
सर नवाता हूँ मौला, वजू करता हूँ
शब-ओ-सहर सिर्फ़ नाम-ऐ-यार को...
वफ़ा की बंदिशें कहाँ किसको
होती नसीब ऐसे, ऐ साहेब मेरे
बंदगी का लुत्फ़ पाया बाद मुद्दतों...
वो मुस्काती ऐसे कि सारी नेमतें
डाल रही हो मेरी झोली में
ऐसा हो खुदा मेरा, क्यों पूजूँ बुतों को...
कितनी राहत है उस वक्त-ऐ-वस्ल में
तस्कीन देता हुआ उल्फत उसका
रब्बा इस हसीन माज़रे में उम्र तमाम हो...
०३/०८/२०१०
खूबसूरत !!!
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