प्यार के शुरूआती दिनों को भरपूर जीओ दोस्त...
क्योंकि सिर्फ़ तब ही होता है,
रहता है पूरी तरह से,
ईमानदार प्यार...
सौ पैसा खांटी खुमार देता प्यार...
किसी बच्ची सा भोला और निश्छल प्यार...
जिसमें कौंधती है, प्यार करने वाले की आत्मा
और उसकी सच्चाई...
तुम्हारी फ़िक्र और परवाह वाकई सचमुच की होती है
तब, सचमुच जरा सी भी दूरी डरा देती है मन को
और बाँहों के घेरे का कसाव असली तड़प लिए होता है...
वह गर्मी भी खालिस होती है जो तपे हुए चेहरे,
सांसों और होठों से नुमांया होती है...
सारी प्रार्थनाएं सीधे कलेजे से निकलती हैं और
सबकुछ लुटाकर भी मजे में रहने वाली आस्था सच्ची होती है...
खेद है कि, फिर ऐसा रह नहीं जाता...
फिर तो सावन भी बरसता है, मगर उसकी आग महसूसती नहीं
साथ चलते हुए भी परछाइयाँ परस्पर लिपटती नहीं...
तुम्हें तड़प कर पुकारने वाली उस आवाज़ की आस में जिंदा रहते हो और
वही एक पुकार फिर आती नहीं...
फिर प्यार ना गाढ़ा, ना जुनूनी, ना विशुद्ध, ना गहरा,
ना किसी आवेग का रह जाता है !
मात्र एक खोखली उम्मीद की मानिंद...
जो एक-दूसरे से बमुश्किल निभ पाता है...!
प्यार को गुना-भाग, जोड़-घटाव...
किसी समीकरण में तौले जाने और
दुनियादार हो जाने से
पहले पूरी तरह से जी लो...
क्योंकि, फिर पलट कर नहीं आता है...
पहले दिनों जैसा प्यार...
फिर अपना-अपना कहते-कहते भी
अपना होने का भ्रम मात्र बनकर रह जाते हैं लोग...
फिर पूरी शिद्दत से
तुम उसी प्यार की कशिश को पाने के लिए
जुझने तो लगोगे...
मगर दोस्त... वह प्यार नहीं मिलेगा
ना फूलों और चाँद पर, ना भरी-पूरी रातों में, ना घर में, ना बगीचों में...
तलाशोगे अगर साथी की आँख में, चेहरे पर, उसकी बातों में...
और शारीरिक भाषा में... हताश होओगे यह पाकर कि
कोई गीली चीज दरम्यान से गायब है...
सिर्फ़ एक पथरीली सी हँसी है, जिसे तुम नहीं पहचानते और
बहुत सारा पानी सूख चुका है !
प्यार अक्सर दिन ढलते जाने पर
उपेक्षात्मक होता जाता है...
सैद्धांतिक रूप से तो...ठीक इसके उलट होना
और आदर्शवादी तौर पर...
ऐसा कतई नहीं होना... चाहिए...
मगर...
होता यही है...
इस पर अफ़सोस करने की हालत में पहुँचने से पहले
खुलकर, डटकर... पूरी मौज के साथ
इस प्यार को जीयो मेरे दोस्त...!
कुछ बातें जो रह जाती हैं कभी मन में, अनकही- अनसुनी... शब्दों के माध्यम से रखी जा सकती हैं,बरक्स... मेरे-तेरे मन की कई बातें... कई सारे अनुभव, कई सारे स्पंदन, कई सारे घाव और मरहम... व्यक्त होते हैं शब्दों के माध्यम से... मेरा मुझी से है साक्षात्कार, शब्दों के माध्यम से... तू भी मेरे मनमीत, है साकार... शब्दों के माध्यम से...
गठरी...
25 मई
(1)
३१ जुलाई
(1)
अण्णाभाऊ साठे जन्मशती वर्ष
(1)
अभिव्यक्ति की आज़ादी
(3)
अरुंधती रॉय
(1)
अरुण कुमार असफल
(1)
आदिवासी
(2)
आदिवासी महिला केंद्रित
(1)
आदिवासी संघर्ष
(1)
आधुनिक कविता
(3)
आलोचना
(1)
इंदौर
(1)
इंदौर प्रलेसं
(9)
इप्टा
(4)
इप्टा - इंदौर
(1)
इप्टा स्थापना दिवस
(1)
उपन्यास साहित्य
(1)
उर्दू में तरक्कीपसंद लेखन
(1)
उर्दू शायरी
(1)
ए. बी. बर्धन
(1)
एटक शताब्दी वर्ष
(1)
एम् एस सथ्यू
(1)
कम्युनिज़्म
(1)
कविता
(40)
कश्मीर
(1)
कहानी
(7)
कामरेड पानसरे
(1)
कार्ल मार्क्स
(1)
कार्ल मार्क्स की 200वीं जयंती
(1)
कालचिती
(1)
किताब
(2)
किसान
(1)
कॉम. विनीत तिवारी
(6)
कोरोना वायरस
(1)
क्यूबा
(1)
क्रांति
(3)
खगेन्द्र ठाकुर
(1)
गज़ल
(5)
गरम हवा
(1)
गुंजेश
(1)
गुंजेश कुमार मिश्रा
(1)
गौहर रज़ा
(1)
घाटशिला
(3)
घाटशिला इप्टा
(2)
चीन
(1)
जमशेदपुर
(1)
जल-जंगल-जमीन की लड़ाई
(1)
जान संस्कृति दिवस
(1)
जाहिद खान
(2)
जोश मलीहाबादी
(1)
जोशी-अधिकारी इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज
(1)
ज्योति मल्लिक
(1)
डॉ. कमला प्रसाद
(3)
डॉ. रसीद जहाँ
(1)
तरक्कीपसंद शायर
(1)
तहरीर चौक
(1)
ताजी कहानी
(4)
दलित
(2)
धूमिल
(1)
नज़्म
(8)
नागार्जुन
(1)
नागार्जुन शताब्दी वर्ष
(1)
नारी
(3)
निर्मला पुतुल
(1)
नूर जहीर
(1)
परिकथा
(1)
पहल
(1)
पहला कविता समय सम्मान
(1)
पाश
(1)
पूंजीवाद
(1)
पेरिस कम्यून
(1)
प्रकृति
(3)
प्रगतिशील मूल्य
(2)
प्रगतिशील लेखक संघ
(4)
प्रगतिशील साहित्य
(3)
प्रगतिशील सिनेमा
(1)
प्रलेस
(2)
प्रलेस घाटशिला इकाई
(5)
प्रलेस झारखंड राज्य सम्मेलन
(1)
प्रलेसं
(12)
प्रलेसं-घाटशिला
(3)
प्रेम
(17)
प्रेमचंद
(1)
प्रेमचन्द जयंती
(1)
प्रो. चमन लाल
(1)
प्रोफ. चमनलाल
(1)
फिदेल कास्त्रो
(1)
फेसबुक
(1)
फैज़ अहमद फैज़
(2)
बंगला
(1)
बंगाली साहित्यकार
(1)
बेटी
(1)
बोल्शेविक क्रांति
(1)
भगत सिंह
(1)
भारत
(1)
भारतीय नारी संघर्ष
(1)
भाषा
(3)
भीष्म साहनी
(3)
मई दिवस
(1)
महादेव खेतान
(1)
महिला दिवस
(1)
महेश कटारे
(1)
मानवता
(1)
मार्क्सवाद
(1)
मिथिलेश प्रियदर्शी
(1)
मिस्र
(1)
मुक्तिबोध
(1)
मुक्तिबोध जन्मशती
(1)
युवा
(17)
युवा और राजनीति
(1)
रचना
(6)
रूसी क्रांति
(1)
रोहित वेमुला
(1)
लघु कथा
(1)
लेख
(3)
लैटिन अमेरिका
(1)
वर्षा
(1)
वसंत
(1)
वामपंथी आंदोलन
(1)
वामपंथी विचारधारा
(1)
विद्रोह
(16)
विनीत तिवारी
(2)
विभाजन पर फ़िल्में
(1)
विभूति भूषण बंदोपाध्याय
(1)
व्यंग्य
(1)
शमशेर बहादुर सिंह
(3)
शेखर
(11)
शेखर मल्लिक
(3)
समकालीन तीसरी दुनिया
(1)
समयांतर पत्रिका
(1)
समसामयिक
(8)
समाजवाद
(2)
सांप्रदायिकता
(1)
साम्प्रदायिकता
(1)
सावन
(1)
साहित्य
(6)
साहित्यिक वृतचित्र
(1)
सीपीआई
(1)
सोशल मीडिया
(1)
स्त्री
(18)
स्त्री विमर्श
(1)
स्मृति सभा
(1)
स्वास्थ्य सेवाओं का राष्ट्रीयकरण
(1)
हरिशंकर परसाई
(2)
हिंदी
(42)
हिंदी कविता
(41)
हिंदी साहित्य
(78)
हिंदी साहित्य में स्त्री-पुरुष
(3)
ह्यूगो
(1)
सोमवार, 25 अक्तूबर 2010
पहले दिनों जैसा प्यार...
लेबल:
कविता,
प्रेम,
युवा,
स्त्री,
हिंदी,
हिंदी कविता,
हिंदी साहित्य
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
प्यार के शुरुवाती दिन सचमुच में प्यारे होते हैं...लेकिन प्यार तो तभी मुकम्मल होता है जो जिन्दगी भर साथ चले...जहान तक कविता के शिल्प का सवाल है तो मुझे इसे लेकर कुछ नहीं कहना...क्योंकि मुझे वप कविता हर शिल्प से परे नज़र आती है जो अपनी बात सीधे सीधे दिल में अतर कर कह दे....कविता अच्छी है...और रोज ब रोज आपकी कविता अपना रंग और गाढ़ा करती जा रही है...
जवाब देंहटाएंachchhi prastuti
जवाब देंहटाएंगज़ब की रचना ज़िन्दगी की सच्चाई को बयाँ करती हुयी………………इस विषय पर काफ़ी कुछ कहा जा सकता है………………बहुत सुन्दर लिखा है दिल मे उतर गया।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंप्रेम के गहरे भावों की निश्छल अभिवक्ति की ये कविता गहरे प्रभावित कर जाती है.प्रेम की इमानदार स्वीकारोक्ति और उसके पहले जैसा न रह पाने का दुःख स्वाभाविकतः एक टीस जगाता है. रेत का मुट्ठी से फिसलते जाने जैसा प्यार का एहसास पूरा बांध -समेट लेने की कवायद करती ये पंक्तियाँ जीवनानुभवों का सहज कहन हैं ,भाषाई सादगी देखते ही बनती है ,भाव -कथ्यानुरूप .बधाई शेखर भाई .एक उम्दा कविता .
जवाब देंहटाएं