गठरी...

25 मई (1) ३१ जुलाई (1) अण्णाभाऊ साठे जन्मशती वर्ष (1) अभिव्यक्ति की आज़ादी (3) अरुंधती रॉय (1) अरुण कुमार असफल (1) आदिवासी (2) आदिवासी महिला केंद्रित (1) आदिवासी संघर्ष (1) आधुनिक कविता (3) आलोचना (1) इंदौर (1) इंदौर प्रलेसं (9) इप्टा (4) इप्टा - इंदौर (1) इप्टा स्थापना दिवस (1) उपन्यास साहित्य (1) उर्दू में तरक्कीपसंद लेखन (1) उर्दू शायरी (1) ए. बी. बर्धन (1) एटक शताब्दी वर्ष (1) एम् एस सथ्यू (1) कम्युनिज़्म (1) कविता (40) कश्मीर (1) कहानी (7) कामरेड पानसरे (1) कार्ल मार्क्स (1) कार्ल मार्क्स की 200वीं जयंती (1) कालचिती (1) किताब (2) किसान (1) कॉम. विनीत तिवारी (6) कोरोना वायरस (1) क्यूबा (1) क्रांति (3) खगेन्द्र ठाकुर (1) गज़ल (5) गरम हवा (1) गुंजेश (1) गुंजेश कुमार मिश्रा (1) गौहर रज़ा (1) घाटशिला (3) घाटशिला इप्टा (2) चीन (1) जमशेदपुर (1) जल-जंगल-जमीन की लड़ाई (1) जान संस्कृति दिवस (1) जाहिद खान (2) जोश मलीहाबादी (1) जोशी-अधिकारी इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज (1) ज्योति मल्लिक (1) डॉ. कमला प्रसाद (3) डॉ. रसीद जहाँ (1) तरक्कीपसंद शायर (1) तहरीर चौक (1) ताजी कहानी (4) दलित (2) धूमिल (1) नज़्म (8) नागार्जुन (1) नागार्जुन शताब्दी वर्ष (1) नारी (3) निर्मला पुतुल (1) नूर जहीर (1) परिकथा (1) पहल (1) पहला कविता समय सम्मान (1) पाश (1) पूंजीवाद (1) पेरिस कम्यून (1) प्रकृति (3) प्रगतिशील मूल्य (2) प्रगतिशील लेखक संघ (4) प्रगतिशील साहित्य (3) प्रगतिशील सिनेमा (1) प्रलेस (2) प्रलेस घाटशिला इकाई (5) प्रलेस झारखंड राज्य सम्मेलन (1) प्रलेसं (12) प्रलेसं-घाटशिला (3) प्रेम (17) प्रेमचंद (1) प्रेमचन्द जयंती (1) प्रो. चमन लाल (1) प्रोफ. चमनलाल (1) फिदेल कास्त्रो (1) फेसबुक (1) फैज़ अहमद फैज़ (2) बंगला (1) बंगाली साहित्यकार (1) बेटी (1) बोल्शेविक क्रांति (1) भगत सिंह (1) भारत (1) भारतीय नारी संघर्ष (1) भाषा (3) भीष्म साहनी (3) मई दिवस (1) महादेव खेतान (1) महिला दिवस (1) महेश कटारे (1) मानवता (1) मार्क्सवाद (1) मिथिलेश प्रियदर्शी (1) मिस्र (1) मुक्तिबोध (1) मुक्तिबोध जन्मशती (1) युवा (17) युवा और राजनीति (1) रचना (6) रूसी क्रांति (1) रोहित वेमुला (1) लघु कथा (1) लेख (3) लैटिन अमेरिका (1) वर्षा (1) वसंत (1) वामपंथी आंदोलन (1) वामपंथी विचारधारा (1) विद्रोह (16) विनीत तिवारी (2) विभाजन पर फ़िल्में (1) विभूति भूषण बंदोपाध्याय (1) व्यंग्य (1) शमशेर बहादुर सिंह (3) शेखर (11) शेखर मल्लिक (3) समकालीन तीसरी दुनिया (1) समयांतर पत्रिका (1) समसामयिक (8) समाजवाद (2) सांप्रदायिकता (1) साम्प्रदायिकता (1) सावन (1) साहित्य (6) साहित्यिक वृतचित्र (1) सीपीआई (1) सोशल मीडिया (1) स्त्री (18) स्त्री विमर्श (1) स्मृति सभा (1) स्वास्थ्य सेवाओं का राष्ट्रीयकरण (1) हरिशंकर परसाई (2) हिंदी (42) हिंदी कविता (41) हिंदी साहित्य (78) हिंदी साहित्य में स्त्री-पुरुष (3) ह्यूगो (1)

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

घर

बहुत बार सोचा है,
या ज्यादे साफ़ कहा जाय, तो पूछा है अपने आप से...
और जिस जगह रात बिताता रहा हूँ अक्सर
दुनिया-जहान के सारे खौफ़ से होकर बेलौस,
उस जगह से भी
पूछा है,
घर क्या होता है, कैसा होता है ?...

तो...
प्राय: नेपथ्य से जवाब आता है...
घर वही जिसकी दीवारें मुहब्ब्त के ताप से लीपी हुईं
और जिसकी छत पर रोज सुबह मुहब्बत की धूप फैली हुईं होती हो !
हवा में नमीं और चाशनी सी खुशबू महसूस करो और
जहाँ सुकून के भाप भरे चश्मे की सतह सा फर्श हो...
 
अगर ऐसा ना हो, और
अगर दरवाजे पर हर शाम
अनकही सी फ़िक्र आँखों में समेटे एक इंतजार ना हो...
गले लग जाने की बेसुध तड़प को थामे कई लम्हों से
देर से आने की शिकायत करते हुए झिडकी दे और तुम
देर तक हँसते रहो उसे मनाने का उपक्रम करते हुए

फिर कहीं से भी,
कभी भी तुम लौटो...
"घर" नहीं लौटते... बस एक ठिकाने पर लौटते हो...!

वह होता है घर जहाँ, रोटियाँ तवे पर नहीं
हथेलियों की गर्माहट से पकती हैं...
दुधिया आँचल चेहरा ढांप लेता है और
नींद की शुरुआत हो जाती है थकी पलकों के नीचे
जहाँ की रसोई भी उतनी ही मादक और कमनीय होती है
जितनी बिस्तर की आदम, पवित्र गंध !
जिसमें कमल का एक फूल खिल जाता है हर दफा
सुबह गुसलघर की बौछार के नीचे से धुल कर
नया-नया और ताजा-ताजा...
जहाँ रात की खामोशी में
बिस्तरों के कोनों में उलझी-झूलती
जैसे घंटियों की कर्णप्रिय आवाजें
नशे की हद तक आलिंगन का जायका मीठा बना देती हैं...
घर वही जहाँ कसाव होता है...अपनेपन का हर सुबह...
और जहाँ के पानी, आग और धुएँ का स्वाद
हरदम पीछे चलता है

घर जो तुम्हारी हर हार को अपने आगोश में छिपा कर
फिर भी तुम्हें दुलारता रहता है, हौसला देता रहता है...
दुनिया से बार-बार लड़ने के लिए जज्बा और इत्मीनान देता है
तुम कहीं से भी चोट खाकर आओ...
पुचकार कर तुम्हारे जख्मों पर कोमल फूँक मारता है...
घर !

जिसकी दीवारों और खिड़की-दरवाजों से भी
एक साँस भरता रिश्ता होता है...

घर तो यारों वह है
जो मुझ जैसे को बंजारा बनने नहीं देता !
मगर अब उसी खोये हुए "घर" को ढूँढता हूँ
घर में ही, जो अब मकाननुमा रह गया है...

सवाल करने को जैसे अभिशप्त हूँ, "मेरा घर कहाँ है ?"...    

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...