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गुरुवार, 22 जुलाई 2010

विद्रोह्धर्मी

आप हमलोग का घर से ऐसे ही चले जायेंगे! सुमिता इतने आग्रह, इतने अधिकार से बोलती कि कुछ कहने को फिर बाकि नहीं रह जाता... जिसे देख दुख भी शरमा जाये, वैसा विमल चेहरा और उस पर तुर्रा यह कि किसी को भी बिना मुँह जुठा कराए अपने द्वार से उठने नहीं देने का उसका कट्‌टर स्वभाव... श्रीमोहन को आश्चर्य की हद तक आश्चर्य होता था पहले-पहल, ब नहीं... अब तो वह सुमिता भाभी को पहचान गया है.
कुछ बोलने के लिए मुँह खोला नहीं कि सुमिता हँसते-हँसते एक खास लहजे में बोल देगी, हाँ, हमलोग तो छोटा आदमी, हमारे यहाँ कहाँ खाएगा आप...
क्यों ऐसे शर्मिंदा कर रहीं हैं आप..., श्रीमोहन के मुँह से घुटी-घुटी सी आवाज़ फूटती. यह नियमित और पुख्ता आतिथ्य उसे भावविभोर किए हुए थी.
अभी कुछ नहीं, जब शादी हो जायेगा तो सब याद रखने लगेगा..., सुमिता ने कैसे एक साथ मज़ाक, क्षोभ और लड़ाकूपन से कहा था, जब उसने सुमिता को आचार के लिए कच्चे आम तो दिए थे, पर जो श्रीमोहन के ही हाथों अधपके सड़ जाने से ‘हम दूसरा बना देंगे’, वह बोली थी, आप बस एक ज़ार ले  आना, तो उसके कहने पर भी वह संकोचवश ज़ार नहीं लाता था. इसी बात पर सुमिता का स्नेहिल क्रोध उस पर उतरा.
भाभी, लड़की तो आपको ढूँढनी है, बस एक अपनी तरह का ले आईये. 
सुमिता हँसती, मेरा तो कोई बहिन भी नहीं बचा, सबका शादी हो गया, नहीं तो...

सुमिता का घरवाला मुख्य मार्ग पर हनुमान मंदिर के सामने गोलगप्पे का ठेला लगाता, शादी-ब्याह में गोलगप्पों के आर्डर मिलते, दावत की सारी सामग्री बनाता. भोज कारीगर था. मगर सुमिता का हाथ लगे बिना भी कुछ भी हो ही नहीं सकता था. दिन-रात एक करके वह गोलगप्पे की पूड़ियाँ, पापड़ियाँ छाँकती. उसके हाथों में तो तिलिस्म था. कोई चीज़ कभी बेस्वाद बन जाए, इतनी हिमाकत चीजों में कहाँ थी!
एक दफे जब श्रीमोहन कलाकंद ले आया था, तो उसे उम्मीद थी कि बच्चे के अलावा भाभी भी लेगी, तब वह बोली थी, हम बाहर का नहीं खाता. जो अच्छा लगता है, घर खुद बना लेते हैं.
कहीं कोई दिक़्क़त नहीं. एकदम सीधी ज़िंदगी. पत्नी पति का आधा हिस्सा किस तरह होती है, श्रीमोहन को लगा यह बात अब समझ सका है. सुमिता का खुला बर्ताव उससे पहली बार जानने से ही खींचता था. और वह अपने बे-पलस्तरे मकान से कुछ ही फ़र्लांग पर बहती स्वर्णरेखा की कलकल सी चंचल लेकिन तटबंधों में सिमटी, लट्‌टू सी नाचती घरेलू कामों में मशग़ूल रहती. समझने वाले कुछ भी समझा करें, सबसे हँसीमुसी, सबसे स्नेहापा, सबसे बोलचाल...
बिना आहट के जो मन पर छा जाय वही तो सुगंध है! कस्तुरी, गुलाब, बेलीजूही, रजनीगंधा, चंदन, प्रेमिका के ताजे धुले हुए बाल... कैसा-कैसा... या फिर उसकी हथेलियों जैसा, हल्दी और मसालों का हल्का पीलापन और गंध बसाए. उसकी साँवली हथेलियाँ. आपका भैया कितना खटता है. वह कहती. अनिरूद्घ सचमुच मेहनत करते हैं. नहीं करते तो?  घर-गिरस्थी, खाना-कपड़ा मेहनत के इसी तने हुए तार पर टिके हैं,  आलस की एक उबासी सब असंतुलित कर रसातल में गिरा देगी. श्रीमोहन हँसते-हँसते कहता, आप बहुत अच्छी हो भाभी. और भाभी भी हँसती. हँसी... बेदाग़, उछाह भरी उसकी हँसी. कितना सुंदर रह जाता था सब कुछ; सुंदर भाषा की सुंदर लिपि की तरह वर्तुलाकार...
तालाब के किनारे की उठान पर हरियाली मेंड़ें - गहरा नीला पानी और बाँस के झुरमुटे- घरों की खिड़कियों-रौशनदानों से निकलती भात के गर्म भाप की गंध - रसोई से चटख सब्जी की, छौंक की महक...!
श्रीमोहन तो सुमिता के बेटे का टयुटर है... वह रोज़गार की तलाश में राजस्थान, दिल्ली-गाजियाबाद, खड़गपुर कहाँ-कहाँ घूम आया था. लेकिन, जितनी आत्मीयता और अपनापा उसे अपनी इस मिट्‌टी से बिन-माँगे मिला, वह और कहाँ था!
मई के दिन और इस बार मौनसून जल्दी धरने की संभावना, प्राय रोज अच्छी मानसून-पूर्व वृष्टि हो जाती. यह तो घाटशिला के मौसम का स्वाभाव था, हाँलाकि बीते बरस की गरमी ने जन-जानवरों की जान सुखा दी थी. सुमिता के यहाँ श्रीमोहन के दिन बीतने लगे थे. मन लगने लगा था. सुमिता उसी भरी मुस्कान से पूछती, मास्टर जी, चाय लीजिए. लेकिन सूखी चाय कहाँ होती थी! गोलगप्पे-पापड़ी, मकर संक्राति के अगड़े-पिछाड़े दिनों में गुड़पीठा और दूसरे पीठे ( और साल में आम तौर पर चावल का नमकीन पीठा बनाती), मीठा-तीखा, बादाम की फलियाँ, कभी कुछ तो कभी कुछ,  और कुछ नहीं तो बिस्कुट वह प्राय रोज मँगवा लेती थी. हमारे घर (गाँव) से आए हैं. वह बताती. गाँव में बादाम की खेती थी. श्रीमोहन बहुत दिनों तक बादाम फाँकता रहा.
अच्छा मास्टर जी, हमलोग तो अनपढ़-मूरख. एक ठो बात पूछें? श्रीमोहन सिर उठाता,
सरकार का काम क्या होता है?
शासन करना... वह मुस्काया.
वह इशारा कर के कहती, ये सामने वाला मकान बनता देख रहा है ना, यह वी.पी.एल. वाले, लाल काड वाले को मिलने वाले पैसा से खड़ा हो रहा है. और मिला है सेठ को. हमलोगों को भी घर बेचा. इसको भी बना के बेच देगा, बेसी दाम पर. सरकार देख रहा है ?
भाभी, सब जगह एक ही बात है, भ्रष्टाचार को क्या देखें. लोग सब ठीक होगा तब ना. लोग का हाथ में सबसे बड़ा ताकत, लेकिन क्या पता सही दिशा में वह जा पाती है, या जाने दिया जाता भी है या नहीं...
हाँ, सबसे बड़ा ताकत तो पैसा का,  और उसका आगे...
छोड़िए भाभी, मन खट्‌टा करने से फायदा नहीं.
लेकिन बात छाती को लगता है. तभी तो... उस साल गाँ में पोखर बनाने के लिए सरकारी पैसा लिया, मगर हरामी लोग उस को खा गया और फिर उस पोखर को खराब, काहे कि बकरी-बाछुरी (बछड़ा) उसका पानी पीने से खराब हो रहा है, बोलके बंद कराने के लिए भी फिर सरकार से पैसा ले कर खाया. जो पोखर कागज-पत्ता पर बना और कागज-पत्ता पर बंद हो गया! ऐसा-ऐसा लोग है... तो उगरवादी लोग मारेगा नहीं, सुमिता कहती जाती और श्रीमोहन को उसकी नाक पर, नाक के बगल में और गालों पर पसीना चुहचुहाता दिखाई पड़ता.
उमस काफी रहती थी इन दिनों, बरसात पड़ जाती तो भी दिन भर भयंकर उमस... पसीना जिस्म के पोरों से बेसाख़्ता निकलता रहता, कमीज़ गीली रहती हरदम...
पं. बंगाल में वाम दलों का परचम लहराया था फिर एक बार... अमय दास, पिचहत्तर साल का सयाना बूढ़ा, बोलता, असल जीत जनता की होती है. तब सुमिता लड़ पड़ती ससुर से, लोग क्या खा कर लड़ेगा, क्या जीतेगा? मास्टर बुदबुदाता था, सारे प्रिंसीपल पेट के सामने लाचार, बेकार...

एक शाम जब सुमिता इमरजेंसी बैटरी की रोशनी में श्रीमोहन को चाय दे रही थी, मास्टर उसके माथे पर चिपकी बड़ी-सी लाल टहटह बिंदी को एकटक देख रहा था. थोड़ा सा है, खा लिजिए... वह मुस्कुराती बोली. मास्टर ने प्लेट में देखा. चाट से लबालब भरा. इतना सारा! दो प्लेट भर के...! क्या करूँगा?  खाएगा और क्या करेगा ? वह हँसी. और हँसती रही. बाहर झींसा-झींसी शुरू हो गई थी. आज रात बिजली नहीं आाएगा, वह कह रही थी. लेकिन मास्टर उसकी आवाज़ में मायूसी नहीं महसूस रहा था. डीवीसी लाईन का यहाँ यही चलता है... बिजली नहीं रहने से परेशानी तो होती है. उसे भी होती. वह भी कोसती; मगर आज?
पको गाना आता है भाभी? वह जाने क्या करके पूछ बैठा था. वह हँसी... दीवार के पीछे से हँसी आई उसकी. की... गान ? हम क्या गान करेगा मास्टर जी! वह शोखपन से बोला था बंगला में, ना, गान करो ना बऊदी...

शाम के मुँह अँधेरे में... बारिश की सिहरी में सुमिता गाई. रवीन्द्र संगीत का एक बेहतरीन टुकड़ा... पागला हवार बादल दिने...पागोल आमार मोन जेगे उठे.../ वृष्टि निशा भोरा संध्या बेला...
रात गहरी होती गई.... नदी से सटा इलाका वर्षा की फुहार से भीगता, सन्नाटे में दादुर की टर्राहट और झींगुरों की चिर्राहट में काँपता-काँपता सो गया. श्रीमोहन खाट पर बैठा बड़ी ढिबरी की पीली रोशनी में सुमिता के साँवले कंधों को, जो इस समय और गहरे वर्ण के हो गए थे, देख रहा था.
बऊदी, आप पता नहीं समझोगी या नहीं, लेकिन सबसे बड़ा लड़ाई आदमी का अपने आप से होता है. अपने आप से हार गया तो सब खतम.
बऊदी ने उठ कर खिड़की के पल्ले बंद कर दिए. ठिठुरती हवा बाहर सिर मारती रह गई. वह दरवाजे की ग्रिल के पास बैठ गई.
आप को डर लग रहा है ?
सुमिता हँसी, किससे ? फिर उसका चेहरा सख्त हो गया, डर लगता है,  आजकल समय ठीक नहीं... मारने वाला, बचाने वाला सब एक जैसा! पहचान वाला... सबसे डर लगता है. किसी का बिस्सास नहीं. इधर एका रहने में बहुत डर है. किन्तु आपसे नहीं. वह मुस्काई.
भईया कब तक आऐंगे ?
अब कल ही आऐगा आपका भईया. आडर में गया है.
ठीक है, तो मैं निकलूँ. आप भीतर से दरवाजा ठीक से बंद कर लीजिए.
मास्टर बाबू,  आप भी डरता है ? सुमिता ने उसे देखा और हाथ की चूड़ियाँ हटा कर कलाई खुजलाने लगी.
हाँ भाभी.
किससे?
आपसे.
हमसे!
हाँ, आपसे... आप नहीं जानती... आप..., बाकि शब्द उसके मुँह से निकलते-निकलते जबान में ज़ज्ब हो गए. फिर वह एक अलग बात बगैर संदर्भ और भूमिका के बोला, सबसे बड़ी लड़ाई सिद्दांतों की भी है...
तभी खिड़की का पल्ला झटके से फिर खुल गया. श्रीमोहन ने भाभी को देखा, सुमिता फिर उठी थी और खिड़की बंद करने लगी... तेज फुहार ने हवा के झोंके से अंदर आ उसे भिगो दिया. चेहरे, बाँहों, गर्दन, गले के नीचे सीने के उठानों से ऊपर और कमर पर बूँदें लालटेन की धीमी रोशनी में भी चमक उठीं. वह बंगला में बोली, मास्टर बाबू, ऐई भावे की देख्छो ? बुद्घि खाराब कोरबे ना...
श्रीमोहन हँस पड़ा, क्या भाभी,  आपको मुझसे डर नहीं लगता तो ये बात कैसे बोल रहीं?
लगता है... वह फुसफुसाई... खिड़की का पल्ला जोर से काँपा.

श्रीमोहन के पंजों में उसने अपने पंजे उलझा दिए थे.   
और, श्रीमोहन तब से, पता नहीं कब से, श्रीमोहन कितने दिनों-महीनों से, ऐसी ही किसी नाजुक हालात की कल्पना करता आया था. आज भी कर रहा थाभी तक भी उसके जेहन में था... मगर  अभी एकदम से माजरा समझ कर हकबका गया. भाभी,  आप तो... अब उसे एकांत के असर का एहसास हुआ. बुबाई मामा के घर गया था  और उसके दादा उसके साथ. घर पर कोई नहीं. सामने मानों फैंटेसी की दुनिया से सुमिता गूँज रही थी, शादी-शुदा है हम. आप को डर लगता है...? नियम उसूल का बात करता आप,  आप में तो बहुत हिम्मत है... नाड़ियों में लावा दौड़ने लगा, हमारा शामी का हम, किन्तु हमारा कौन ! समझता है ना आप ? नियम से शादी किया. हमलोग से लोक-संसार जो माँगता है, वैसा इज्जत से रहता है. बाबा और शामी का इज्जत रखा. आप बोलो हमको तो जिसको पसंद नहीं एकदम भी, उसको भी सब देना पड़ता है. तो जो पसंद है उसको मर्जी से काहे नहीं देगा...? सुमिता का चेहरा एकदम से पलट गया था. उसके चेहरे से सट गया था और श्रीमोहन को उसकी साँसों की भाप लगी.
उस रात बिजली आई ही नहीं. उस रात बारिस लगातार पड़ती रही... कभी धीमी तो कभी पगला कर...
उस रात आदम और हव्वा की संततियाँ मीठे सुर में जीवन राग गाती रहीं...
श्रीमोहन चला गया था, और सुमिता अपनी बाँह पर सूजे हुए, उभरे कुछ निशान देख रही थी. एक पुलक थी उन्हें देखते हुए उसके भीतर कहीं...

उन दिनों की खबर थी कि नेपाल में राजशाही निर्मूल हो गई. और आम जनता, माओवादियों ने लोकतंत्र का बिगुल फूँका है. श्रीमोहन प्राय कहता रहता और पड़ोस में मनसा मंदिर के चबुतरे पर बैठे बूढ़े अमय दास को बताता, नेपाल में तानाशाही खत्म... जनता का शासन होगा... कैपटेलिज्म, कम्यूनिज्म या र्माक्सिज्म की बहस छोड़िए... सबसे बड़ी बात, जनता, दबी-कुचली जनता का, लड़ाई अपने हाथ में ले लेना है. लोकसंघर्ष कभी नाकाम नहीं होता... चाहे सफल होने में हजार बरस लग जांय...     
सुमिता चाय की प्याली में छिलके वाले भूने बादाम रखके लाती और बोलती, ह-ओह, मास्टर जी तो बड़ा भाषण देता है... लोग लड़ेगा कैसे ? गरीब आदमी को भात नहीं तो, भाग भरोसा बैठेगा नहीं तो क्या करेगा... लोड़ाई क्या हवा में होता है. ऐसी कुछ टिप्पणियों की वजह से श्रीमोहन समझने को मज़बूर हो जाता था कि सुमिता भले कलम-कागज़ नहीं उठा सकती है, पर दिमाग से बहुत आगे है.  आम जनता में भी, जिसको ‘ले-मैन' कहा जाता है, गैरप्रशिक्षित जनता में भी, भुक्तभोगी जनता में भी इसी तरह तर्क, विरोध और संघर्ष करने की सहजात प्रवृति और क्षमता होती है.
सुमिता हँसती, बोलती, ठिठोली करती... आसपास में लोग सोचने-बोलने लगे थे, निरूद्घ की घरवाली मास्टर से फंसी है क्या ? जरूर... मास्टर खाली पढ़ाने आता है क्या...? लेकिन बहती नदी को क्या इससे अंतर पड़ता है कि उसमें लोगों ने अपनी कितनी गंदगियाँ छोड़ी...

नेपाल में तानाशाही खत्म हो चुकी थी. लोकतंत्र की ईंट डालने के लिए माओवादी हिंसा छोड़ मुख्यधारा में आने को तैयार थे, घोषणा कर चुके थे.
विशाल  आम सभा में, जो राजमहल से कुछ ही दूरी पर हुई थी, तानाशाही राजा को मृत्युदंड देने का आह्वान किया गया था... लगभग इन्हीं दिनों या इसके कुछ ही दिनों बाद झारखंड के किरीबुरू में नक्सलियों ने सीआरपीएफ (केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल) के १२ जवानों को लैंड माइन में जीप उड़ा कर मार डाला था. उसके बाद हड़ियान में तीन लोगों, जिसमें एक ग्राम प्रधान भी था, जो गाँव में कार्य करवाने के सरकारी ठेके लिया करता था, की आदिवासी पूजा स्थान - जाहेर थान में गला रेत कर हत्या कर दी थी. नक्सलियों ने इस आशय के पोस्टर चिपकाए थे कि लाँगो में अपने साथी कामरेडों की हत्या का बदला लिया गया है. कुछ साल पहले पूर्वी सिंहभूम के डुमरिया के लाँगो में नक्सलियों के सामूहिक संहार के बाद तय था कि वे बदला ज़रूर लेंगे.

अमय दास मंदिर के चबूतरे पर बैठ के बाँस की झुरमुट की तरफ ताक रहा था, श्रीमोहन ने उसके हाथ में थमे अखबार के कुछ फड़फड़ाते पन्नों को देखा, पहली हेडलाईन यही खबर थी.
एक बहुत बड़े बदलाव की जरूरत है काका, समाज में, राजनीति के संदर्भ में एक भयानक विस्फोट होगा.
जानी (जानता हूँ), किन्तु क्रान्ति के लिए इतना खून और निर्दोष खून बहाना जरूरी है?
तो क्या क्रान्ति बैठ के चरचा करने से आएगी! दुनिया में हर क्रान्ति खून दे कर ही हुई है, खून माँगती है. हाँ मानता हूँ, निर्दोष खून नहीं बहना चाहिए. निरीह-निर्दोष के जान की क्षति एक शर्म और पछतावा ही देती है. निर्दोषों की हत्या से क्रांति नहीं आती. आखिर सारी लड़ाई तो उन्हीं निरीह जनता के लिए है.
तो नीचे स्तर के बेचारे पुलिसवालों को मार कर क्या यही नहीं कर रहे वे? हाई लेवल के लोग जो असल जिम्मेदार हैं, उनको टारगेट करना चाहिए.
लेकिन पुलिस को मार कर वे उनकी, पूँजीवाद की पोषक, निरंकुश सत्ता की शक्ति को छेद रहे हैं, उनके तंत्र को कमजोर करना उद्घेश्य है इनका. सत्ता की मशीनरी को तोडना भी बदलाव का एक हिस्सा है, लड़ाई के भीतर है. आप ही बोलो ना, जालियांवाला बाग में अपने ही लोगों पर गोलियाँ दागने वाले हाथ भी हमारे ही लोगों के थे, भगत सिंह को फांसी पर लटकाने वाला जल्लाद भी भारतीय ही होगा ना. अपने ही लोग जब व्यवस्था के हाथों खूंखार कठपुतली बन जाएँ तो क्या कीजियेगा? यही पुलिस फर्जी एनकाउन्टर में बेगुनाह आम आदमी की हत्या कर उसे कानूनी चोगा पहना देती है, शांतिपूर्ण जुलूसों और हड़तालियों पर लाठी और गोलियां बरसाने वाली यही पुलिस ही होती है. औरतों के कपडे नोंचकर बलात्कार करने वाली भी यही... पुलिस का चेहरा शोषक का है काका, हज़ारों रूपये और दारू की बोतलों पर इनका ईमान और कर्तव्य भसिया जाता है. इस लोकतांत्रिक देश का सबसे बड़ा शर्म, घूस, भ्रष्टाचार, अनाचार में लिप्त यह पुलिस... गरीबों और मजलूमों को जैसा चाहे, वैसा चूसती है, मसलती है मास्टर (पहली बार और इस बात पर) उत्तेजित हो गया था.    
अमयदास ने कुछ सोचकर कहा, लेकिन अब तो वामदलों और नक्सलपंथ में भी वैचारिक-सैद्धांतिक धड़े हो गए हैं... वे लोग खुद ही भीतर से टूट रहे हैं... हिंसा के सवाल पर
हो सकता है काका, लेकिन मैं तो हमेशा उस विचारधारा को सलाम करूँगा, जो आम आदमी को शोषण से मुक्ति के लिए संघर्ष करे. अतिशय हिंसा भी तो निर्थक साबित होती है... लेकिन चीजें तभी बदलती हैं, जब आप को उनके बदलने का विश्वाश हो.  
सुमिता हँस पड़ी, क्या बदलेगा मास्टर जी... ना आप, ना हम, ना दुनिया...
आप समझेंगी नहीं भाभी... हालत से मन बुझाना ही नहीं है. जो है, वह बदलेगा. उसको हम बदलेंगे, ऐसा सोच के ही चलना होगा. नहीं तो सब पुँजीपतियों की जूतियों के पुराने कील भर बनके रह जाँयेंगे, जिसे जब चूभने-गड़ने लगे, निकाल के फेंक दिया जाता है! अब तो सच भी बाजार में बिकाऊ हो गया है काका, उसकी आवाज जोशिया गई, देख नहीं रहे मीडिया बेच रहा है मनगढंत सच्चाईयाँ, बनाऊ-बिकाऊ, बनावटी खबरें... सच और खबर उत्पाद हो गई. हर चीज़ का बाजार वैल्यू उसकी जगह और जरूरत तय करता है यहाँ.
सुमिता गीले कपड़ों में ही नदी से नहा कर, तालाब से बरतन धो आदि कर के चली आती थी, उस बस्ती का ये आम चलन था, आम औरतें, लड़कियाँ ऐसा ही करती थीं. फिर भी कहीं कोई नैतिकता का उल्लघंन नहीं! श्रीमोहन सोचता, हर समाज, हर समुदाय अपने नैतिक नियम खुद कितना खूब गढ़ लेता है. यह तो बाहर वाले जबर्दस्ती उस पर चोट करके अतिरेक भरने की कोशिश करते हैं, और सब विकृत हो जाता है, कर दिया जाता है...तिरस्कृत हो जाता है...

अभी दो दिनों की लगातार जोरदार बारिश के बाद उमस भरे दिन थे... और ऐसी ही रात... पसीना चूचुआती देह से लिपटे दोनों में से एक ने बाहर धुँधलाए चाँद को देखा और बाँहों में रह रहे साथी का माथा चूम लिया...
तुम कहीं चला तो नहीं जायगा...? लालटेन की थरथराती रोशनी की तरह की ही काँपती जनानी आावाज़.
कहाँ ? श्रीमोहन उसके चेहरे को टुकुर-टुकुर देखने लगा, और फिर चूम लिया...
बाहर कहीं, कहीं भी. तुम्हारा ठिकाना क्या?
तो आप क्या हमेशा ऐसी ही रहोगी भाभी... एक मुस्कान उसके चेहरे पर आई, जिसको उसने बिना देखे भी भाँप लिया. , ऐई... अभी भी हमको भाभी बोलेगा... बोदमाश...?
नहीं... इस समय ना आप, आप हैं,  और ना हम, हम... हमलोग दो स्त्रोत हैं परस्पर आनंद के. हमलोग तो सिर्फ एक मर्द, सिर्फ एक औरत हैं इस समय. हमारे बीच एक सीधा रिश्ता है, जो प्रकृति के नियम से बना है, और उसी को मानता है... समाज लोक के बनाए नियमों को नहीं...
तुई ओनेक बोकी मास्टर... ज्यादा पढ़ा-लिखा है, यही दिखाता है क्या...
सुमिता उसकी नाक के बाँई बगल में धड़कती शिरा पर ऊँगली फिराती हुई रख दी.
खाली बोलता नहीं मैं, वक्त आने से कर के भी दिखाता हूँ... दम है... कहे को करे में बदलने का. समझी आप... मास्टर ने उचक कर उसके होंठों को चूमना चाहा तो उसने चिंहुक कर चेहरा खींचा, चुंबन उसके होंठ के बाँए कोर पर पड़ा...
उस रात, उस उमस भरी रात जब हवा इतनी मंथर कि पत्तियाँ भी कसमसा जाँय, चाँद इतना धुँधला -- जैसे बादलों के झीने, गंदले पर्दे में छिपा... और वे दोनों इतने-इतने पास कि, दोनों की रूह सरगोशियाँ कर सकें. इतने ही चमत्कारों से भरी वह रात आगे बढ़ी,  बूढ़ी हुई और ढल गई.

(पुराने और पारंपरिक कथावाचक यह कथा सुनाते तो कहते, ऐसी रात सुमिता के लिए आखिरी रात थी. श्रीमोहन तो मुँह अँधेरे चला गया था. उसका जाना हमेशा के लिए हुआ.)    

श्रीमोहन गिरफ्तार हो चुका था.
ऐसे देश में जहाँ भगतसिंह और मार्क्स को पढ़ना अनपढ़ या अल्पपढ़ सत्ता की आँखों में अपराध है, खूँखार नक्सली साहित्य रखने और नक्सलियों को गुपचुप मदद करने जैसे संदिग्ध गतिविधियों में लिप्त होने के पर्याप्त सबूत पुलिस उसके ठिकाने से उगाह चुकी थी. यानि, एक प्रमुख स्थानीय अखबार का सिर्फ़ वह टुकड़ा भर, जिसपर किसी माओवादी पुस्तिका का हवाले से, जलते हुए हर्फे थे, ... की रात लाँगो गाँव मौत की काली चादर ओढ़े थी... बड़ी बेरहमी से कत्ल किया गया था जनता के वीर संतान ... का. कुछ अक्षरों में उन वीर शहीदों की जीवन गाथा समाप्त नहीं हो सकती. सिद्दो-कान्हू-बिरसा-तिलका के परंपरा से अनुप्राणित इन योद्दाओं ने शोषणमुक्त समाज तैयार करने के लक्ष्य में अपनी जिंदगी के अंत तक काम करते रहे. लाँगों काण्ड निश्चित रूप से क्रांतिकारी आंदोलन के लिए एक बड़ा आघात्‌ है. लेकिन इस इलाके के तमाम कामरेड दृढ़ता के साथ संग्राम में जुटे रहेंगे. साथियों को खोने के शोक को नफरत की आग में बदल कर नक्सलबाड़ी आंदोलन की धारा प्रवाह से भारतवर्ष के अन्य राज्यों की तरह यहाँ भी क्रांतिकारी आंदोलन का बीज अपने लहू से बोये हैं, उन अमर शहीदों के आत्म बलिदान की कहानी आने वाली पीढ़ी को और भी ज्यादा सशक्त बनाने का काम करेगी. साथियों की हत्या कर के शोषक वर्ग ने समझा होगा कि खेतिहर क्रांति की आग को बुझा दिया है तो वे यह बात भूल गये कि कामरेड चंद लोगों की शक्ति नहीं, मार्क्सवाद, लेलिनवाद-माओवाद के प्रतीक हैं...’
  अमयदास रोज की तरह, मंदिर के चबूतरे पर बैठा अखबार देख कर पता नहीं किससे, शायद पास में थोड़ी दूर मसाले बाटती सुमिता सेपने आप से या फिर हवा से, ऊँची आवाज़ में कह रह था, हमको मालूम था. लड़का का बात से हमको डाउट लगता था... किन्तु
सुमिता जानती थी या शायद नहीं जानती थी कि, ऐसा कभी होगा ?  वह बसंत के मुरझाए फूलों के ढेर पर बैठी रह गई हो जैसे ! सोचती रहती, क्या सचमुच उसूलों और प्रतिबद्घताओं के कारण प्रेम और जीवन में स्त्री से मिलने वाले सतत्‌ भरपुर प्रेम, निर्भय और समर्पित प्रेम, माँसल प्रेम को गौण बता गया श्रीमोहन ! सुमिता की सीमित साक्षरता उसमें भगत सिंह की परछाईं तो ढूँढ नहीं सकती थी... ना वह उसे अपराधी ही मान सकती है. सवाल यह भी है कि क्या श्रीमोहन सचमुच माओवादी था ? नक्सली और माओवादी की परिभाषा क्या है, और उसका सरलीकरण कर जिन सब लोगों पर ये परिभाषा चस्पां की गयी है, क्या वे सब लोग इसमें फिट बैठते हैं ? आदिवासी और दमित-शोषित लोग जमीनखोर हैं, या भौगोलिक संसाधनों को दुहने वाले वे पूंजीवाद के कीड़े हैं असल जमीनखोर ? क्या विद्रोही विचार-भावना वाला और असंगत व्यवस्था से विरोध पालने वाला, अपने हक़ का तर्क रखने वाला, हर कोई संविधान-विरूद्ध घोषित कर दिया जायेगा...इस देश में ?

क्या श्रीमोहन किसी दिन मुठभेड़ में मारा जाएगा... अखबार में उसकी खबर, जिसमें उसको, कुछ लोगों के साथ, समाज का पनायक घोषित-साबित किया गया होगा और उसकी लाश की विरूपित तस्वीर छपेगी... क्या तब वह समाज के किसी वर्ग के मंतव्य में शहीद कहा या माना जाएगा...?या शिकार !  इन सभी बड़ी-बड़ी और स्वभाविक मसलों को सोचने का माद्दा सुमिता के फटे कलेजे में नहीं है... दरअसल उसकी मेधा के बाहर की चीज़ भी है.

सुमिता फुसफुसाहट से गा रही है... आमार वेला जे जाय, साँझ वेला ते...
रवीन्द्र संगीत वर्षा बूँदों की तरह उसके ओसारे पर टपक रहा है.  

(ये कहानी अब तक कहीं भी प्रकाशित नहीं है. कुछ साल पहले लिखी थी. थोड़ा संशोधन भी किया है. ताकि सामयिक लग सके. इसका शीर्षक भी बदल दिया है. अब शायद कुछ बाह्य स्थितियां बदल गयीं हों, आंतरिक हालत तो वैसे ही हैं, सत्ता के चरित्र और शोषण के, मुक्ति की आशा के, संघर्ष के इरादों के.इसलिए सवाल पूछने ही होंगे...)
- शेखर मल्लिक
13 & 14 July, 2010

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