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सोमवार, 26 जुलाई 2010

इस वक्त (लंबी कविता)

आने वाले समय के लिए
इस वक्त दो ही चीजें
हाथ में हैं...
धोखा खा जाने के बाद की मन:स्थिति...
और लगातार चोट खाती हुई आस्थायें
जिनको बचाए जाने की कवायद जरूरी है...
और जारी है !

जहाँ धोखा शब्द का दूसरा अभिधेयार्थ,
चूँकि, आज कल दो अभिधेयार्थों का दौर है !...
फलित निराशा है
और आस्था का,
आशा...!

बराबर चक्की के पाटों के
बीच घिसते-पिसते
अनाज की तरह...दिन
गुजर रहे हैं
जिनका गर्म स्वाद
और गंध बस
शुरू-शुरू में ही अच्छा लगता है.
कल्पना के हाशिए में जाने से पहले तक
और सारे उपक्रम यदि धराशायी ना हों तो ! ये दिन...
फिर बोसीदा भूतकालिक तारीखों में
बदल जाने के लिए...ही तो आते हैं

सत्ता और बाजार के समीकरण में
जो असंगत है,
वही... जिसे सारी ग़ुरबत और बेचारगी ढोने के बावजूद
गरीब नहीं चिन्हित किया गया,
आदमी...
धकिया कर मुख्यधारा से बाहर किया जा रहा है
उसके तमाम वैधानिक अधिकार, उसका वजूद, सपने
गर्त में औंधे मुँह पड़े हैं
वो चीख रहा है..., हक़ के लिए चिल्लाना
पोस्टर बनने जैसा है...
और नगरों-कस्बों में बहुत सारी स्त्रियाँ
मुक्ति के गीत गाते हुए
वापस कठपुतली बन जाने को नियत हैं...
इसे कौन तय करता है,
इस पर गौर किये जाने की जरूरत है.

तथ्य है कि, रचनात्मक पक्षधरता सवाल करती है
सवाल पैदा हो रहे हैं...पूछे जा रहे हैं...
इधर, कवियों की मेज पर
अर्थों के हाशिए से बाहर
खदेड़े गए शब्द लिथड़े हुए पड़े हैं...
और उन्हीं मेजों की दराज में
सूखी हुई दवातों की बोतलें और पन्ने
आदम-जात का पूरा
इतिहास, वर्तमान और भविष्य
सोखे हुए पड़े हैं...
वे सारे लेखक-कवि-फ़िल्मकार स्थितियों के
जाले साफ़ करने की परियोजना का हिस्सा हैं
सवाल तो किये जा रहे हैं... संदूकों और बंदूकों से...

इस समय भविष्य को
देखने वाली दूरबीन का 'फोकल'
कड़वे सच के कुछ बिंदुओं
पर चिपक गया है...
जिन्हें स्वीकार कर थूक निगलते ही
हिचकी आने लगती है...
सत्ता कांखने लगती है और
सांसद हिनहिनाने लगते हैं...
सारी बौद्धिकता परनाले में बहने लगती है
इसी मनोदशा में साबुन की टिकिया का
आखरी अंश ज्यादा झाग छोड़ने लगता है...
और घ्राणशक्ति इतनी प्रबल हो जाती है कि,
पत्तों पर गौरैया का गू भी बास मारने लगता है !

आस्था किसी टापू पर
बची हुई, प्रलय के बाद,
शताब्दियों की अवशेष, कोई अंतिम प्रजाति है...
वहीं के गिने-चुने लोग सत्ता और बाज़ार
के चुम्बकीय असर से
छूटे हुए हैं
और विकास जैसी चमकीली रौशनी के दायरे से
भी गायब हैं ! उनके सवालों
पर विज्ञापन नहीं कमाया जा सकता,
इसलिए उनके सवाल बाजार से गायब हैं
बाजार सिर्फ़ उन्हीं मुद्दों की लीद करता है,
जो उसकी ज़मीन की खाद बनने के लायक हैं...
इसी बाजारू शोर-सूत्र-समीकरण के बीच
ईमानदार और आदमी जैसे लोग, साबुत...
किसी टापू पर चले गए हैं और
उनकी सक्रियता हवा में बुदबुदाने भर हो कर रह गयी है !

यह भी हो रहा कि
तमाम फैसलों की सारी प्रक्रिया में से
बाहर जो आदमी खड़े किये जाते हैं,
उनकी जिंदगियों का चूल्हा
उन्हीं फैसलों के ईंधन पर निर्भर है...
फैसलों के समय इरादतन तवज्जो नहीं दिया जाता कि
इनकी रोटी-दाल का नमक
इन्हीं के पसीनों से ही तैयार होता है
और ज्यादातर उन्हीं की जीभ पर नहीं लगता, क्योंकि
कुछ इरादे साफ़ हैं...
बहुत सारे बेहद नापाक हैं !
दुनिया के सबसे पुराने एक देश में
प्रदेशों के बीच... आग और अंगारों की 'फेंसिंग'
करने की कवायद राजनीति का एक
जानदार हथकंडा हो चुका है...

समय के साथ
अडोस-पड़ोस की दीवारें, गलियाँ
चौराहे और मोहल्ले... बदले हुए
दिखाई पड़ते हैं...
दोस्त - सफलता का मंत्र बताते हैं,
वैद्य और बाबा - नपुंसकता का अचूक इलाज बांटते हैं...
सिनेमा में सच
ठेठ बलात्कार,
भूख और गरीबी
बेचने के इल्जाम के पार्श्व में बुना जा रहा है...
कला समीक्षकों को इसकी खबर कम है,
और आदमी मनोरंजन का ग्राहक है! बेवकूफी की हद तक...

आदमी...
धुँआ, नमक, आटा, वोट और ईमानदारी आदि
कारकों के बीच
"महँगाई-अम्ल" की प्रयोगशालाई प्रतिक्रया से
पूरा क्षरित हो चुका है
और केवल
मतदाता सूची में उसका दर्ज
नाम, लिंग और उम्र
बचा हुआ है...
उसका एक मात्र राष्ट्रिय दायित्व
चुनाव में
एक जैसे सूरत और सीरत वालों में से
किसी को भी चुन लेना भर है...
इसके बाद तमाम दुर्घटनाओं की खबरें पढते रहना है
 
लगातार गोलियों की आवाजों के बीच
नवजात की रुलाई जैसी कोई पैनी चीज कानों में
अक्सर भोंक दिया करता है कोई...
तुरंत, रिश्तेदार समझाते हैं कि आग में मत कूदना,
तुम्हारे पीछे बीबी है, बच्चे हैं,
मन में पिघला लावा परिवार की चौहद्दी में ही
खट्टा दही
हो जाता है !

लेकिन इसी वक्त
बराबर...
पगलाये हुए से नहीं दिखने वाले लोग
पागलपन की हद तक जाकर
पानी, आँसू, पसीना, बादल और... शर्म
जैसी तमाम गीलीं चीजों को बचाने में लगे हैं
यद्यपि उनकी मेहनत पारदर्शी हो गयी है...!
उनको सलाम करने का हौसला, जज्बा और सहूलियत
उनके काम से एक मुश्किल काम है ! इसलिए,

बाकि लोग समर्थक या निंदक की भूमिका में हो गए हैं...

4 टिप्‍पणियां:

  1. शंखर
    स्‍नेह।
    आपकी कवि‍ता पढ़ने को मि‍ली।......अव्‍छी है। फि‍र भी......कवि‍ता में सब कुछ कह देना ज्‍रूरी नहीं होता। यह आवश्‍यक नहीं कि‍ कवि‍ स्‍वयं कवि‍ता के उपपाठों को खोले। शब्‍दों की कि‍फ़ायत का बहुत महत्‍त्‍व होता है। स्‍थि‍ति‍यों....वि‍चारों को संघनि‍त....सान्‍द्र होने दें.....। आप नि‍रन्‍तर अच्‍छा लि‍ख रहे हैं, अत: आपको और सजग रहना चाहि‍ए। शुभकामनाएं।

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  2. आपकी कविता सचमुच अच्छी लगी. बधाई.

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  3. apki kavita sahi jagahon pe prahar karti hai, achhi kavita ke liye badhai

    जवाब देंहटाएं

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