मुद्दतों से मुस्काना मैं भी चाहता हूँ मेरे दोस्त
असलियत ये कि असलियत छुपाना चाहता हूँ दोस्त
गैरत का मारा हूँ, अपनी शराफत से हारा हूँ
चोट खा कर भी सिर्फ़ गुमनाम रहना चाहता हूँ दोस्त
जिस गली से भी गुजरा, पराई निगाहों से गुज़रा
बहुत दिनों से किसी का बन जाना चाहता हूँ दोस्त
तेरी निगाह-ए-आशियाँ में बस जाऊं, नेमत वो पाई नहीं
बंजारे की कूचा-ए-खानाबदोश, ठहरना चाहता हूँ दोस्त
ना आफ़ताब, ना माहताब, ना चराग-ए-उम्मीद कहीं
आलम यूँ कि, अंधेरों में तबियत ही जलाना चाहता हूँ दोस्त
तुम भी तो तिश्नगी की अनबुझी तलब बनके रह गयी
तेरे ख्यालों से ही हो तरबतर, जी बहलाना चाहता हूँ दोस्त
सोचता हूँ मेरे बगैर भी कैसे जी लेते हो तुम ऐसे
हँसूं खुद पर फिर, मैं खुद को क्या मानना चाहता हूँ दोस्त
कुछ बातें जो रह जाती हैं कभी मन में, अनकही- अनसुनी... शब्दों के माध्यम से रखी जा सकती हैं,बरक्स... मेरे-तेरे मन की कई बातें... कई सारे अनुभव, कई सारे स्पंदन, कई सारे घाव और मरहम... व्यक्त होते हैं शब्दों के माध्यम से... मेरा मुझी से है साक्षात्कार, शब्दों के माध्यम से... तू भी मेरे मनमीत, है साकार... शब्दों के माध्यम से...
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बुधवार, 21 जुलाई 2010
मुद्दतों से मुस्काना मैं भी चाहता हूँ मेरे दोस्त
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