बाग में बैठी हुई लड़की
के इर्द-गिर्द
की पूरी दुनिया गुम है उसके लिए
बस लड़की है
और वो बैठी है...
लड़की चुप है या कुछ बोल रही है
कोई नहीं सुन रहा है...
वो किसी और के सुनने के लिए नहीं,
खुद के लिए बोलती है
वो धीरे-धीरे गुनगुना भी रही है...
वह संगीत भी सिर्फ़ पेड़ों की शाखों को झुलाने के लिए है...
वो फूलदार झाड़ियों, साफ़ नीले आकाश,
हरी घास से होते हुए सपनों में झांक रही है
अपने-आप में गहरे उतरी हुई है,
इसलिए अभी बाहर वालों से महफूज़ है...
लोहे की एक बैंच पर बैठी
जाने क्या सोचकर-गुनकर
रह-रह कर
जोर से
सिर्फ़ अपने लिए खिलखिलाती हुई
लड़की
और कोने में फूलों के झाड़ पर बैठी
पर फडफडाती
सुनहरी तितली में
एक बारीक़ साझेदारी तो है,
खुल कर पंख फ़ैलाने की आजादी में...
एक शर्त लगी है, कि
कौन ज्यादा मचल कर
उड़ सकता है !
बाग में बैठी लड़की
उड़ रही है...
और इसे या तो वह जानती है या
शायद वह तितली !
०८-०९-१०-१३-२०.०७.२०१०
कुछ बातें जो रह जाती हैं कभी मन में, अनकही- अनसुनी... शब्दों के माध्यम से रखी जा सकती हैं,बरक्स... मेरे-तेरे मन की कई बातें... कई सारे अनुभव, कई सारे स्पंदन, कई सारे घाव और मरहम... व्यक्त होते हैं शब्दों के माध्यम से... मेरा मुझी से है साक्षात्कार, शब्दों के माध्यम से... तू भी मेरे मनमीत, है साकार... शब्दों के माध्यम से...
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मंगलवार, 20 जुलाई 2010
बाग में बैठी हुई लड़की..
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