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शनिवार, 31 जुलाई 2010

जख्मी सिपाही जैसे सपने

एक सर्वकालिक समसामयिक किस्सा है...
जिसमें, धुंध, धुंए और गर्द के बीच
जख्मी सिपाही की तरह बदहवास,
लहू से लिथड़े...जवान सपने
पड़े थे...
घायल होना जिनकी मौलिक नियति थी
ये कुछ ऐसा ही था जैसे,
पहली बार साईकिल चलाने की
कोशिश में गिरना और घुटनों का छिलना...
और लोग कहते थे कि
ऐसा होना ही था...
जो टकराता है... छीलता भी वही है, और दीवार
भी वही तोड़ता है...

सपने जब चोटिल होते थे,
चारों तरफ राहत के उजाले का
नामोनिशान नहीं था
जोर-जोर से कराहना भी मात्र संकेत था
और सारी भाषाएँ मूक हो गयीं थीं...

आसमान पर नज़र जाते ही, धूप के बरक्स
जली हुई हरियाली की पपड़ी
दिखाई पड़ती थी
और आस-पास की ज़मीन पर
बादलों के टुकड़े
नरम फाहों से बदलकर कठोर
पत्थर में तब्दील हो चुके थे...

हवा बार-बार...
नाम पुकारती हुई किसी तवन्गी प्रेमिका की
तड़प की तरह...
दूर से पास आती महसूस होती थी
पत्तों की खड़क, उसकी पायल की खनक
सी लगती थी...
मन बौखला कर किसी कोमल, गर्म
सीने में मुँह छुपा लेना चाहता था
आश्वस्त होने का बहाना भर ढूँढता रहता था...

कंटीली झड़ियों के सिरों पर...
सफ़ेद, गुलाबी, जामुनी, पीले, नीले फूल
खिले होते थे...
गंधहीन, वैविध्यमयी...
फिर भी मौसम की सही पहचान करना
मुश्किल था

कानों में "साइरन" गूंजती थी... भयावह...
कोई भी सूचना तसल्ली देने के लिए नहीं आती थी

लगातार... उन दिनों,
सूरज का उगना, रोज-रोज,
सारी नयी अपेक्षाओं
के वावजूद कितना बासी लगा करता था !

कामयाबी मुश्किल चीज तो नहीं...
पर मुँह चिढ़ाकर दूर भाग जाया करती थी...
मछली की तरह फिसल जाती थी...
नौसिखिए हाथों से

और जाल बुनना, या तो आता नहीं था,
या मरजाद बेचकर नंगा हो जाना था,
या बेहद महंगा सौदा था !

खिड़की के बाहर
दूर सड़कों पर खालिस कच्ची उम्र की लड़कियाँ,
दुपट्टा उड़ाए जाया करती थीं...
कुछ सपने वहाँ भी पैदा होते थे
और आवारा करार देकर सड़कों पर ही मार डाले जाते थे...

बाजारों में त्यौहार थे...
पड़ोस में गीत गूंजा करते थे...
बहुत से करीबी दोस्त
अचानक बड़े शहरों में गुम हो जाया करते थे

इन सब बेतरतीब प्रसंगों के घटित होने के बीच...

सपनों के भीतर
सपने कई बार टूटते थे, पसीना बहता था और
दीवार की घड़ी अपनी रफ़्तार से बाज़ नहीं आती थी.

फिर भी सपने तो जादूगर थे...
फुसला कर प्रतिबद्ध कर देते थे...!

काफी दिनों से सीने पर
एक खूंटा गड़ा था
जिस पर टंगी तख्ती पर -
"लड़ाई" - शब्द तीन बार तिहराया गया था...

ये एक ऐसी आत्मकथा के टुकड़े हैं,
जो अमूमन सबकी नौजवान एडियों में
कभी गड़े थे
और रह गए हैं...
स्मृति-चिन्ह की हैसियत से...

इस पूरे किस्से का तर्क यह है कि,
सीने पर लड़ाई की घोषणा वाली तख्ती
टांग लेना ही बड़ी बात होती है... और
जख्मी सिपाही बनना,
दूसरी बड़ी बात... !

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