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गुरुवार, 24 जून 2010

आम आदमी और भाषा का रिश्ता (कुछ व्याख्याएं, कुछ निष्कर्ष)

आम आदमी को अर्जित करनी पड़ती है, राजभाषा 
जैसे कमाता है वह दाल-रोटी, माह की रोजी... बमुश्किल
यद्यपि उसकी सभी अभिव्यक्तियाँ और प्रतिक्रियाएँ
राज भाषा की मोहताज नहीं होतीं... बिल्कुल नहीं
आम आदमी राजभाषा में निरीह चौपाया होता है
जो उसकी वर्तनी की, विशिष्टार्थों की फांस में
उलझ जाता है, और फडफडाता रहता है...
सरकारें राजभाषा की चापलूस और पैरोकार 
दोनों हो सकती हैं,
लेकिन आम आदमी चाहे तो राजभाषा नहीं बरतता

अपनी भाषा में आम आदमी लड़ाकू होता है
बेहद बहादुर... 
अपनी भाषा में वह आपको अगर प्यार कर सकता है,
आपको नंगा भी कर सकता है 
और आप उसका बाल भी बांका नहीं कर सकते !
अपनी भाषा में आम आदमी अपनी ज़मीन, अपनी जमीर के
बहुत करीब होता है... 
अपनी भाषा में आम आदमी
आदमी बनता है, आदमी तैयार करता है
आदमियत की ज़मीं तैयार करता है...

आम आदमी और राजभाषा का रिश्ता
घोड़े और लगाम का रिश्ता है

आम भाषा धान की बाली है
हवलदार की गाली है
पगड़ी है, धोती है, औजार है, पसीना है...
मिटटी है, दाना है...

राज भाषा गमले की बोंजाई है,
आलों में कैद मोदी-गदराई जिल्दें हैं...
राजमार्ग की चुंधियाती हुई नियोन की बत्तियाँ हैं...

ज्यादा बार आम आदमी दुहाई देता हुआ निरीह नजर आता है...
कई बार वह बेचारा कर दिया गया होता है
और अपनी भाषा के साथ अपनी अस्मिता के लिए रिरियाता है...

लेकिन फिर एक सुकून मिलता है कि
राजभाषा में गुर्राती हुई आवाजों 
और मोहरों की तरह जबरदस्ती चस्पां किये गए 
फैसलों के खिलाफ़
वह आपने तरीके से विद्रोह कर जाता है...
कि वह राजभाषा को 
स्कूली बस्तों, इश्तिहारों, आवेदन पत्रों,
सरकारी दफ्तरों और दीवानी कचहरी के अहातों...
के बाहर 
अपने गमछे से धूल की मानिंद झाडकर
आगे बढ़ जाता है.

१८/२३-०६-२०१०

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